महादजी सिंधिया –
आरंभिक जीवन – महादजी सिन्धिया जिसको महादजी शिंदे के नाम से भी जाना जाता है, इनका जन्म 1727 ई. में सुप्रसिद्ध मराठा सरदार रानोजी सिन्धिया के यहाँ उसकी राजपूत पत्नी से हुआ। रानोजी ने एक निर्भीक सैनिक के रूप में बालाजी विश्वनाथ के अधीन काफी ख्याती अर्जित की थी। 1750 ई. में अपनी मृत्यु से पहले उसने ग्वालियर को विजय करके वहाँ अपनी जागीर स्थापित कर ली।

इस प्रकार 1750 ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद महादजी ग्वालियर का शासक बना। उसे बालाजी के समय (1740-1761) एक सैनिक के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त करने तथा मराठों की विभिन्न समस्याओं का सूक्ष्म निरीक्षण प्राप्त हुआ। यह प्रशिक्षण बाद में उसके बहुत काम आया।
1761 ई. में पानीपत के युद्ध में लङने वालों में महादजी सिन्धिया भी एक था। वह सौभाग्यवश उस युद्ध से बच निकलने में सफल हुआ, परंतु इस युद्ध में उसकी एक टाँग जाती रही। इसलिए वह जीवनभर के लिए पंगु हो गया, परंतु वह शीघ्र ही इस आघात से उबर गया और पेशवा माधवराव के अधीन विभिन्न सैनिक विजय प्राप्त करने में उसने सक्रिय भाग लिया और काफी नाम पाया। विशेष रूप से माधवराव की असामयिक मृत्यु (1772 ई.) से मराठा साम्राज्य पर जो काले बादल मंडराने लगे, तब नाना फङनवीस से मिलकर महादजी सिन्धिया ने मराठा साम्राज्य का विनाश होने से बचाकर उसकी अत्यधिक सेवा की। फिर 12 फरवरी, 1794 ई. को पूना के निकट बवौङी के स्थान पर इस महान नेता की मृत्यु हो गयी।
मराठों के मामले में महादजी सिन्धिया की भूमिका
अपने में अनेक कमजोरियाँ होते हुए भी महादजी सिन्धिया ने मराठा राज्य की बहुत सेवा की। उसके विषय में प्रायः यह कहा जाता है कि उसे आर्थिक मामलों की इतनी समझ नहीं थी इसलिए उसके विभिन्न कार्यों में अव्यवस्था के दोष पाये जाते थे। कई बार उसके पास सेना को वेतन देने के लिए धन नहीं रहता था और विवश होकर धन के लिए उसे दूसरों के सामने हाथ पसारने पङते थे। डॉ.सरदेसाई भी मानते हैं – महादजी में इतनी सक्षमता न थी और उसके नीचे काम करने वाले कर्मचारी और नौकर अक्सर उसे धोखा दे देते थे।
परंतु अवगुणों के होते हुए भी महादजी सिन्धिया ने मराठा राज्य की इतनी सेवा की, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। महादजी एक वीर सैनिक था। बङी से बङी विपत्ति आने पर भी वह साहस, संयम, धैर्य और संतुलन को नहीं छोङता था। बाबर की भाँति उसमें आत्म-विश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ था और विपत्तियों से घिरा होने पर भी उसके चेहरे पर कोई शिकन न आती थी। वह अत्यंत मिलनसार था और सभी नौकर-चाकर, क्लर्क, अनुचर, सहायक आदि उसे बहुत चाहते थे। चाहे वह सभी से बातचीत और हँसी-मजाक करता रहता था, परंतु जैसा कि डॉ.सरदेसाई ने कहा है कि वह इतना सतर्क रहता था कि किसी को सही बात मालूम न हो पाती थी और दूसरे लोग उसके वास्तविक इरादों या योजनाओं की थाह न पा सकते थे।
देश प्रेम और वफादारी भी उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। उसने कभी भी अपने लाभ के लिए अपनी जेबें भरने का प्रयत्न नहीं किया, जबकि वह मुगल सम्राट से अनेक उपाधियाँ प्राप्त कर सकता था, उसने ऐसा करने की बजाय पेशवा के लिए वकील-ए-मुतलक का उच्च पद प्राप्त किया। अपने इन गुणों के कारण ही महादजी सिन्धिया मराठा राज्य की इतनी सेवा करने में सफल हुआ।
उसने निम्नलिखित क्षेत्रों में मराठा राज्य की जो सेवाएं की वे विशेषकर उल्लेखनीय हैं-
राघोबा के विरुद्ध माधवराव का साथ देना – जैसा कि यदुनाथ सरकार ने कहा है, राधोबा मराठा इतिहास का सबसे कुख्यात व्यक्ति था। ऐसे दुष्ट व्यक्ति से बालक पेशवा माधवराव को बचाना नाना फङनवीस के साथ-साथ महादजी सिन्धिया का ही काम था। पेशवा बनने के समय (1761 ई.) में माधवराव की आयु 16 वर्ष की ही थी। इसलिए ऐसा डर था कि कहीं उसका चाचा राघोबा अपने स्वार्थों के कारण कोई अनर्थ न कर बैठे, जैसा कि उसने कोई 12 वर्ष पश्चात किया। महादजी की सतर्कता के कारण माधवराव राघोबा की कुचेष्टाओं का अंत करने में सफल हुआ। वास्तव में माधवराव की महान सफलताओं के पीछे दोनों नाना फङनवीस और महादजी सिन्धिया का ही काफी हाथ था।
राघोबा के स्थान पर माधवराव नारायण को पेशवा बनाना
जो अनर्थ राघोबा माधवराव के समय 1761-62 ई. में न कर सका, वह 1773 ई. में उसने नारायण राव के समय में करके दिखा दिया, जब षङयंत्र द्वारा उसने मराठों के पाँचवें पेशवा नारायण का वध करवाकर स्वयं पेशवा का पद संभाल लिया। ऐसे दुष्ट के मनोरथों के पूरा होने का अर्थ यह था कि मराठा राज्य ही प्रायः नष्ट-भ्रष्ट हो जाता, परंतु ऐसे आङे समय में नाना फङनवीस के साथ महादजी ने राघोबा का विरोध किया और जब नारायणराव की विधवा गंगाबाई के यहाँ 1774 ई. में एक पुत्र हुआ तो राघोबा के विरुद्ध उसे ही मराठों का छठा पेशवा मान लिया। राज्य कार्य चलाने में जो बारह भाई सभा की स्थापना हुई उसमें महादजी सिंधिया का भी विशेष हाथ था। इस प्रकार राघोबा की कुचेष्टाओं को सफल न होने देकर भी महादजी ने मराठा राज्य की अपार सेवा की।
अंग्रेजों और मराठों के मध्य होने वाले पहले युद्ध में मराठा प्रतिष्ठा की रक्षा करना
इस प्रकार अपने उद्देश्यों को पूरा न होते देखकर राघोबा अंग्रेजों से जा मिला और 1775 ई. में उसने सूरत की अपमानजनक संधि की जिसके अनुसार उसने सालसेट और बेसीन के द्वीप उन्हें देना स्वीकार किया। इस संधि के परिणामस्वरूप अंग्रेजों को मराठा राजनीति में दखल देने का अवसर मिल गया। अंग्रेजों और मराठों के मध्य होने वाले इस प्रथम महायुद्ध (1775-82 ई.) में महादजी सिन्धिया ने नाना फङनवीस को अपना पूर्ण सहयोग दिया जिसके कारण उस लङाई में मराठों का हाथ ऊपर रहा और उनकी मानहानि होते-होते बची। सरदेसाई ने कितना सत्य कहा है – यदि नाना और महादजी ने सहयोग से काम न किया होता और अंग्रेजों के साथ होने वाले इस युद्ध में अपने सारे साधन न लगा दिये होते तो मराठा शक्ति का अंत इसी समय हो गया होता।
उत्तर को अपनी सैनिक गतिविधियों का केन्द्र बनाना
एक बात जिसके लिए महादजी सिन्धिया की प्रशंसा की जाती है वह यह है कि जहाँ वह यह समझने में सफल हुआ कि भारतीय राजनीति का केन्द्र दक्षिण से हटकर उत्तर में स्थानान्तरित हो गया है, वहाँ नाना फङनवीस जैसा योग्य राजनीतिज्ञ भी इस परिवर्तन को समझने में असफल रहा। सन 1782 ई. में होने वाली सालबाई की संधि (जिसके द्वारा अंग्रेजों और मराठों में होने वाला पहला युद्ध समाप्त हुआ था) पर महादजी सिन्धिया शीघ्र ही दिल्ली पहुँचा और उसने मुगल सम्राट शाहआलम को अपने प्रभाव में ले लिया। ऐसा करके महादजी सिन्धिया ने बङे विवेक से काम लिया क्योंकि एक तो मुगल सम्राट मराठों के प्रभाव में आ गया तथा अंग्रेजों के हाथों में एक कठपुतली बनने से बच गया और दूसरे दिल्ली में रहकर महादजी सिन्धिया अंग्रेजों की गतिविधियों पर अधिक अच्छे ढंग से निगरानी रखने में सफल हुआ। ऐसा न होने पर अंग्रेज लोग काफी समय पहले ही उत्तर भारत में छा जाते। इस विषय में सरदेसाई ने लिखा है कि, वह (नाना फङनवीस) इस बात को न समझ सका कि महादजी उत्तर में क्यों चला गया… सैनिक मामलों से परिचित न होने के कारण इस बात को नहीं समझ सका कि भारतीय राजनीति का केन्द्र तेजी के साथ दक्षिण से हटकर उत्तर में स्थानान्तरित हो रहा था… वह उस भारी सैनिक दबाव को न समझ सका जिसे बढती हुई अंग्रेजी शक्ति उत्तर और पूर्व की ओर भारत के भविष्य पर डालने जा रही थी। अंग्रेजों ने वहाँ धीरे-धीरे अपनी स्थिति सुदृढ कर ली जिससे वे और आगे बढ सके। भारतीयों में केवल महादजी ही ऐसा था जिसने अंग्रेजों की सैनिक तैयारियों के इस दबाव को अपने व्यक्तिगत एवं व्यावहारिक अनुभव से समझ लिया।
अपनी सेनाओं को पश्चिमी ढंग पर संगठित करना
एक अन्य बात जिसके लिए महादजी सिन्धिया की प्रशंसा की जाती है, वह यह है कि उसने समय की गति को देखते हुए अपनी सेना को पश्चिमी ढंग पर संगठित किया। एक चतुर राजनीतिज्ञ होने के नाते उसे इस बात का विश्वास हो गया था कि मराठा राष्ट्र का भावी शत्रु एक पश्चिमी शक्ति होगी और इसिलए जब तक मराठे अपनी परंपरागत युद्ध-प्रणाली को न बदलेंगे, तब तक उनके जीवन की कोई आशा नहीं।
परिणामस्वरूप महादजी सिन्धिया ने अपनी सेना को नए ढंग से संगठित किया। उसने सैनिकों की सोलह पल्टनें भर्ती की और उन्हें पश्चिमी ढंग पर प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से यूरोप के प्रसिद्ध जनरल बेनोइट डि बोइन को नियुक्त किया। लङने की मराठों की पुरानी युद्ध-पद्धति को भी त्याग दिया। तोपखानों को भी पुनः संगठन के कारण ही महादजी सिन्धिया महान सैनिक सफलतायें प्राप्त कर सका।
उत्तर में मराठा प्रभाव की स्थापना करना
माधवराव प्रथम के कार्य काल में महादजी सिन्धिया ने उत्तरी भारत में मराठा प्रभाव को फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया था। उसने 1772 ई. में मुगल सम्राट बादशाह को फिर से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया था। इसके अलावा उसने राजपूतों, जाटों और रुहेलों को कई स्थानों पर हराकर मराठा प्रभाव को बढाया था। उसने ग्वालियर तथा दोहद पर अधिकार कर लिया। 1784 ई. में मुगल सम्राट शाह आलम ने महादजी सिन्धिया को वकील-ए-मुतलक की उपाधि प्रदान की तथा उसे मुगल-साम्राज्य के समस्त प्रशासनिक अधिकार भी सौंप दिये।
परंतु 1772 ई. में माधवराव नारायण के वध और अंग्रेजों तथा मराठों के मध्य होने वाले युद्ध (1775-82 ई.) का लाभ उठाकर राजपूतों, जाटों और रुहेलों ने फिर से अपनी स्वतंत्रता स्थापित कर ली। उधर दिल्ली में महादजी सिन्धिया की अनुपस्थिति के कारण रुहेली अफगानों ने अनेक पापयुक्त कर्म कर डाले थे। उनके दुष्ट नेता गुलाम कादर ने अभागे सम्राट शाह आलम को अंधा तक करवा दिया था। इस प्रकार सालबाई की संधि 1782 ई. के शीघ्र ही बाद महादजी सिन्धिया को उत्तर की ओर प्रस्थान करना पङा। 1794 ई. में अपनी मृत्यु के पहले महादजी सिन्धिया राजपूतों, जाटों, अफगानों को फिर से अपने अधीन करने, मुगल सम्राट शाह आलम को फिर से अपने प्रभाव में लाने, दुष्ट गुलाम कादर को मृत्युदंड देने आदि में सफल हुआ। साथ ही साथ उसने आगरा और दिल्ली में मराठा सेना रखकर अंग्रेजों के फैलाव को रोकने में काफी सफलता प्राप्त की। इस प्रकार, जैसा कि एस.आर.शर्मा ने कहा, महादजी सिन्धिया ने मराठों को भारत में सर्वोपरि शक्ति बना दिया।
राजपूतों से युद्ध
जब जयपुर नरेश प्रतापसिंह ने बकाया कर देने में असमर्थता प्रकट की, तो महादजी सिन्धिया ने जयपुर राज्य में लूटमार करना शुरू कर दिया। इस पर प्रतापसिंह ने जोधपुर की सेना की सहायता से मराठों का मुकाबला करने का निश्चय किया। 28, जुलाई, 1787 ई. को तुंगा नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें महादजी को विवश होकर पीछे हटना पङा। परंतु 1790 ई. में महादजी सिन्धिया ने पाटन नामक स्थान पर जयपुर तथा जोधपुर की सेनाओं की बुरी तरह पराजय हुई। 10 सितंबर, 1790 ई. को महादजी ने मेङता के युद्ध में जोधपुर की सेना को पराजित किया। जोधपुर के शासक विजयसिंह को महादजी के साथ संधि करनी पङी, जिसके अनुसार महादजी को 60 लाख रुपये, सांभर तथा अजमेर के परगने प्राप्त हुए। इसी प्रकार फरवरी, 1791 ई. को जयपुर-नरेश को महादजी के साथ संधि करनी पङी जिसके अनुसार जयपुर नरेश ने मराठों को चौथ के रूप में 17 लाख रुपये देना तथा मुगल सम्राट को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया।
1794 ई. में महान नेता की मृत्यु से मराठा जाति की अपार हानि हुई।
महादजी सिन्धिया का मूल्यांकन
महादजी सिन्धिया एक वीर योद्धा और कुशल सेनापति था। वह एक चतुर राजनीतिज्ञ और उच्च कोटि का देशभक्त था। डॉ.एम.एस.जैन के शब्दों में, 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मराठा राज्य संघ के विभिन्न नेताओं में महादजी सबसे योग्य कूटनीतिज्ञ तथा सेना संचालक था। उत्तरी भारत में 1761 ई. के बाद मराठों के प्रभाव और प्रभुत्व को पुनः स्थापित करना उसी का कार्य था। कोई भी अन्य मराठा नेता उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त पभावशाली था। अंग्रेज-विरोधी संघ का निर्माण, सालबाई की संधि तथा राजपूतों पर प्रभुत्व स्थापित करना उसी की कुछ कूटनीतिक सफलतायें थी।
मेलिसन का कथन है कि महादजी सिन्धिया की मृत्यु से मराठों का सब से योग्य योद्धा तथा अत्यन्त दूरदर्शी शासक खो गया। जीवन में उसके दो मुख्य उद्देश्य थे – प्रथम तो एक राज्य स्थापित करना तथा दूसरा अँग्रेजों से एक साम्राज्य स्थापित करने में होङ लगाना। इन दोनों में ही उसे काफी सफलता मिली। उसके द्वारा स्थापित राज्य बहुत दिनों तक जीवित रहा।
सर जदुनाथ सरकार का कथन है कि अपने समय के उत्तर भारतीय इतिहास पर महादजी सिंधिया का वीरतापूर्ण व्यक्तित्व एक विशालकाय दानव की भाँति छाया हुआ है।
