इस काल में एक गृहस्थ को 16 संस्कारों का पालन करना पङता था।
गर्भाधान– यह संस्कार जन्म से पूर्व किया जाता था।
पुंसवन– यह संस्कार भी जन्म से पहले ही किया जाता था।
सीमंतोन्नयन– यह भी जन्म से पहले किया जाता था तथा गर्भ की रक्षा के लिये विष्णु की प्रार्थना की जाती थी।
जातकर्म– गर्भ नाल काटी जाती है तथा पिता शहद व गुङ चटाता है।
नामकर्ण-नाम रखा जाता है।
निष्कर्मण– 4 सप्ताह के बाद घर से बाहर तथा सूर्य के दर्शन।
अन्नप्राशन– प्रथम बार अन्न खिलाना।
चूङाकर्म– मुंडन किया जाता था।
कर्णवेध– कानों में छिद्र , ब्राह्मणों के लिये आवश्यक होता था।
वद्यारंभ-घर में ही माता-पिता के संरक्षण में विद्या की शुरुआत ।
उपनयन– जनेऊ धारण करना। ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य (स्रीयों को नहीं) ब्रह्मचर्य आश्रम की शुरुआत इस संस्कार के बाद हुई थी।
वेदाध्ययन– गुरु के समीप वेदों का अध्ययन । बालक की औपचिरिक शिक्षा शुरु होती थी।
केशांत / गोदान-16-17 वर्ष में आयोजित जब पहली बार दाढी-मूछ आती थी तो गुरु के आश्रम में ही इनको साफ किया जाता था। (सफाई के प्रति जागरुकता)
समावर्तन– शिक्षा पूरी होने के बाद आयोजित गुरु को दान दिया जाता था। इस संस्कार के बाद ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति । औपचारिक शिक्षा समाप्त । सनातक उपाधिकरण (ज्ञान रुपि सागर में स्नान)
विवाह– 8 प्रकार के विवाह गृहस्थ आश्रम की शुरुआत इस संस्कार से प्रारंभ।