इतिहासराजस्थान का इतिहास

अँग्रेजों के साथ संधियों के प्रारंभिक प्रयास

अँग्रेजों के साथ संधियों के प्रारंभिक प्रयास – 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से भारतीय राजनीति में ब्रिटिश शक्ति का अभ्युदय हो रहा था तथा शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक वह एक प्रबल शक्ति बन चुकी थी। अतः सर्वप्रथम 1781 ई. में जोधपुर के शासक विजयसिंह ने मराठों के विरुद्ध अँग्रेजों से पत्र व्यवहार किया। इस पर ईस्ट इंडिया कंपनी के तत्कालीन गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्ज जोधपुर राज्य से संधि करने के लिये अपना प्रतिनिधि भी भेजने को तैयार हो गया। लेकिन इसके तुरंत बाद अँग्रेजों व मराठों के बीच साल्बाई की संधि हो जाने के कारण वॉरेन हेस्टिंग्ज ने मामले को आगे नहीं बढाया। 1786 ई. में जयपुर के शासक प्रतापसिंह ने भी मराठों के विरुद्ध अँग्रेजों से सहायता प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। 1789 ई. में जोधपुर नरेश विजयसिंह और जयपुर नरेश प्रतापसिंह ने महाजदी सिन्धिया के विरुद्ध कंपनी से सैनिक सहयोग प्राप्त करने का पुनः प्रयास किया, किन्तु कंपनी के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने कंपनी की अहस्तक्षेप की नीति के कारण राजपूतों को सहायता देना उचित नहीं समझा। महाजदी की मृत्यु के बाद 1795 ई. में जोधपुर के शासक ने मराठों के विरुद्ध अँग्रेजों से सहायता प्राप्त करने के असफल प्रयास किये। 1799 ई. में जयपुर के शासक प्रतापसिंह ने इसके लिये एक और प्रयास किया तथा कंपनी सरकार को प्रसन्न करने के लिये उसने अपनी शरण में आये अवध के पदच्युत नवाम वजीरअली को अंग्रेजों के हवाले कर दिया, परंतु उसका यह प्रयास भी विफल रहा।

प्रारंभिक संधियाँ

अगस्त, 1803 ई. में आंग्ल-मराठा युद्ध छिङ गया, जिसमें मराठे पराजित हुए। सिन्धिया ने अँग्रेजों के पास सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि की, जिसके अनुसार जयपुर और जोधपुर अँग्रेजों के प्रभाव में दे दिये। मराठों की पराजय ने राजपूत शासकों को स्वर्ण अवसर प्रदान कर दिया। अतः 29 सितंबर, 1803 ई. को भरतपुर राज्य ने अँग्रेजों से संधि कर ली। इसके बाद अलवर और जयपुर राज्यों ने भी अँग्रेजों से संधियाँ कर ली। इसके बाद अलवर और जयपुर राज्यों ने भी अँग्रेजों से संधियाँ कर ली। जोधपुर राज्य को भी संधि का मसविदा स्वीकृति हेतु भेजा गया, किन्तु जोधपुर के महाराजा ने अपनी ओर से शर्तें लिख कर भेजीं, जिसे गवर्नर जनरल ने स्वीकार नहीं किया। उदयपुर और कोटा के शासकों ने भी अँग्रेजों से संधि करने का प्रयास किया, किन्तु वेलेजली ने इन राज्यों को कोई अनुकूल प्रत्युत्तर नहीं भेजा। अलवर, भरतपुर, जयपुर और जोधपुर राज्यों के साथ संधियाँ करने में अँग्रेजों का मुख्य उद्देश्य सिन्धिया के शक्ति साधनों को कमजोर कर उत्तर भारत को मराठों के प्रभाव से शून्य करना था। लेकिन कंपनी के संचालक मंडल ने वेलेजली की इस नीति को स्वीकार नहीं किया और उसे वापिस इंगलैण्ड बुला लिया। तत्पश्चात् वेलेजली के उत्तराधिकारी जार्ज बार्लो ने नवम्बर, 1805 ई. में सिन्धिया से एक नयी संधि करके राजपूत राज्य पुनः सिन्धिया के संरक्षण में दे दिये। लेकिन अलवर और भरतपुर राज्यों के साथ हुई संधियों को कायम रखा गया। संभवतः अलवर और भरतपुर में अँग्रेजों के विशेष स्वार्थ थे।

कृष्णा कुमारी की घटना

आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805 ई.) के कारण मराठों की शक्ति काफी क्षीण हो चुकी थी, फिर भी राजपूत राज्यों पर मराठों का आतंक ज्यों का त्यों बना रहा। होल्कर और सिन्धिया की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता में भी रणक्षेत्र राजस्थान की भूमि बनी।पिण्डारी नेता अमीनखाँ ने भी, जो कभी होल्कर का सेनानायक था, राजपूत राज्यों में भीषण लूटमार करके आतंक पैदा कर दिया था। फलस्वरूप राजपूत राज्य अधिकाधिक बर्बाद होते गये। ऐसी विषम परिस्थितियों में मेवाङ की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह की एक नयी समस्या उठ खङी हुई, जिसका समाधान कृष्णा कुमारी के विषपान से हुआ।

मेवाङ के महाराणा भीमसिंह की कन्या कृष्णा कुमारी की सगाई 1798 ई. में जोधपुर के राजा भीमसिंह से तय हुई थी, किन्तु विवाह से पूर्व जोधपुर के महाराजा भीमसिंह का देहान्त हो गया। अतः महाराणा ने उसका विवाह जयपुर के शासक सवाई जगतसिंह से करने का प्रस्ताव किया। किन्तु जोधपुर के तत्कालीन शासक मानसिंह ने इसका विरोध किया, क्योंकि कृष्णा कुमारी की सगाई का नारियल पहले जोधपुर राजघराने में आ चुका था, इसलिए मानसिंह स्वयं उससे शादी करने को उत्सुक था। महाराणा ने मानसिंह के विरोध की उपेक्षा कर 1806 ई. में कृष्णा कुमारी की सगाई का टीका जयपुर की ओर रवाना कर दिया। इस पर मानसिंह ने क्रुद्ध होकर सेना भेज दी लेकिन उस समय शाहपुरा के राजा द्वारा बीच-बचाव करने पर टीका ले जाने वाला दल वापिस उदयपुर लौट गया। कृष्णा कुमारी अपने आकर्षक सौन्दर्य एवं लावण्य के लिये विख्यात थी। अतः सवाई जगतसिंह किसी न किसी तरह उससे शादी करना चाहता था। इधर मानसिंह के विरोधी पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के प्रोत्साहन पर सवाई जगतसिंह ने पिण्डारी नेता अमीरखाँ को अपनी ओर मिलाकर जोधपुर दुर्ग में शरण ली। जयपुर की सेनाओं ने जोधपुर का घेरा डाल दिया। इस घेरे के दौरान मानसिंह ने अमीरखाँ को अपनी ओर मिला लिया और अमीरखाँ ने जयपुर राज्य में लूटमार आरंभ कर दी। अतः जगतसिंह को घेरा उठाकर अपने राज्य की ओर लौटना पङा।

तत्पश्चात अमीरखाँ से आतंकित होकर 1809 ई. में जगतसिंह ने मानसिंह से एक समझौता कर लिया जिसमें दोनों ही शासकों ने उदयपुर की राजकुमारी से विवाह करने का विचार त्याग दिया था, किन्तु मानसिंह को अभी भी आशंका थी कि यदि कृष्णा कुमारी जीवित रही तो जयपुर के साथ हुआ समझौता भी अस्थाई सिद्ध हो सकता है। अतः मानसिंह की सलाह पर अमीरखाँ ससैन्य उदयपुर की तरफ आया और महाराणा से 11 लाख रुपयों की माँग की। यह रकम न मिलने पर अमीरखाँ ने एकलिंगजी के मंदिर को लूटा और महाराणा को कहलवाया कि या तो कृष्णा कुमारी की शादी महाराजा मानसिंह से कर दी जाय अथवा कृष्णा कुमारी की जिन्दगी समाप्त कर दी जाय, क्योंकि जब तक वह जीवित रहेगी, जयपुर और जोधपुर के बीच युद्ध की संभावना बनी रहेगी। महाराणा की निर्बलता और सामंतों के पारस्परिक संघर्ष के कारण महाराणा इतना असहाय हो चुका था कि अमीरखाँ का घृणित प्रस्ताव स्वीकार करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं था अतः कृष्णा कुमारी को विष दे दिया गया, जिससे 21 जुलाई, 1810 ई. को सोलह वर्षीय राजकन्या का असामयिक देहांत हो गया। यह था बप्पा रावल के वंशजों का नैतिक पतन, सर्वथा निन्दनीय।

कृष्णा कुमारी की घटना ने राजपूत राज्यों के खोखलेपन का अनावरण कर दिया। शासकों और सामंतों को अपने तत्कालीन स्वार्थों की पूर्ति हेतु बाहरी शक्तियों से सहायता लेने में जरा भी संकोच नहीं हो रहा था। ये बाहरी शक्तियाँ कभी शासकों और सामंतों को आपस में लङाती तो कभी सामंतों को ही आपस में लङा देती थी। परिणामस्वरूप एक ओर तो शासकों और सामंतों की शक्ति क्षीण हुई तथा सामंतों पर शासकों का नियंत्रण समाप्त हुआ तो दूसरी ओर वे बाहरी शक्तियों को धन देकर उनकी शक्ति बढाते रहे। 1807-1811 ई. के बीच सिन्धिया और होल्कर ने जयपुर से भारी रकम वसूल की तथा अमीरखाँ ने भी जयपुर और जोधपुर से धन वसूल किया। इसी प्रकार बापू सिन्धिया ने मेवाङ में हमीरगढ और भींडर से भारी रकम वसूल की। इस बर्बादी से मुक्ति पाने के लिये तथा अपने सामंतों को नियंत्रित करने के लिये 1807-1815 ई. के मध्य राजपूत शासकों ने ब्रिटिश संरक्षण के लिये बार-बार प्रयत्न किया, लेकिन कंपनी के संचालक इसके लिये तैयार नहीं हुए, क्योंकि कंपनी अभी भी देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का अवलंबन कर रही थी, हालाँकि अब इस नीति का दृढता से पालन करना संभव नहीं हो रहा था।

कंपनी की नीति में परिवर्तन

चार्ल्स मेटकॉफ ने जब से दिल्ली के रेजीडेण्ट का पदभार ग्रहण किया था, तब से ही राजपूत राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवर्तन करने पर जोर दे रहा था। 1811 ई. में मेटकॉफ ने गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिण्टो को सुझाव दिया था कि शत्रु शक्तियों को लूटमार के स्रोतों से वंचित रखने के लिये ब्रिटिश संरक्षण में राजपूत राज्यों का एक संघ बना लिया जाय। लेकिन गवर्नर जनरल अपनी घेरा डालने की नीति से बाहर निकलने को तैयार नहीं हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि राजपूत राज्य मराठों के प्रभाव क्षेत्र स्वीकार किये जा चुके थे। अतः इस समय राजपूत राज्यों को ब्रिटिश संरक्षण में लेना संभव भी नहीं था, फिर भी, मेटकॉफ का सुझाव इस बात का स्पष्ट संकेत था कि राजपूत राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवर्तन हो रहा था।

1813 ई. के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन आया, क्योंकि इस समय तक देश में पिण्डारियों की शक्ति में काफी वृद्धि हो चुकी थी तथा पिण्डारियों ने ब्रिटिश क्षेत्रों में भी लूटमार करके आतंक पैदा कर दिया था, जिससे ब्रिटेन के जनमत में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हो चुका था। इसके अतिरिक्त कंपनी का तत्कालीन गवर्नर डनरल लार्ड हेस्टिंग्ज भारत में कंपनी की सर्वोच्च सत्ता स्थापित करना चाहता था। यह तभी संभव था जबकि होल्कर और सिन्धिया को उनके राज्यों की सीमा में सीमित कर दिया जाय तथा पिण्डारियों की शक्ति का दमन किया जाय। इसके लिये राजपूत राज्यों को कंपनी के संरक्षण में लेने से कंपनी के वित्तीय साधनों में वृद्धि होगी, जिससे कंपनी की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत होगी। किन्तु राजपूत राज्यों में पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता एवं द्वेष के कारण, लार्ड हेस्टिंग्ज राजपूत राज्यों का संघ बनाने के सुझाव से सहमत नहीं था। वह प्रत्येक राजपूत राज्य से अलग-अलग संधि करना चाहता था, यद्यपि नवम्बर, 1814 में चार्ल्स मेटकॉफ ने गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज को लिखा था कि, यदि समय पर विनम्रतापूर्वक माँग करने पर भी संरक्षण प्रदान नहीं किया गया तो शायद बाद में प्रस्तावित संरक्षण भी अमान्य कर दिये जाय, लेकिन अगले दो वर्ष तक लार्ड हेस्टिंग्ज नेपाल युद्ध में व्यस्त होने के कारण, इस मामले पर विशेष ध्यान नहीं दे सका। 1817 ई. में वह राजपूत राज्यों से संधियाँ करने को तत्पर हुआ और इस नीति परिवर्तन के लिये तर्क दिया कि चूँकि मराठे, पिण्डारियों की लूटमार को नियंत्रित करने में असफल रहे हैं, अतः उनके साथ की गयी संधियों के दायित्व को त्यागना न्यायसंगत होगा। इसलिए उसने दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ड मेटकॉफ को राजपूत राज्यों से समझौते सम्पन्न करने का आदेश दिया।

गवर्नर जनरल का आदेश प्राप्त होते ही चार्ल्स मेटकॉफ ने समस्त राजपूत शासकों के नाम पत्र भेजकर उन्हें अपना प्रतिनिधि भेजकर संधि की बातचीत करने के बारे में लिखा। राजपूत शासक तो इसके लिए पहले ही तैयार बैठे थे, क्योंकि इस समय तक राजपूत राज्य मराठों के हाथों पूर्णतः बर्बाद हो चुके थे तथा शासकों की सत्ता इतनी दुर्बल हो चुकी थी कि वे अपने सामंतों पर भी नियंत्रण स्थापित करने में असमर्थ थे। अतः मेटकॉफ का निमंत्रण मिलते ही एक-एक करके सभी राजस्थानी नरेशों ने अपने प्रतिनिधियों को दिल्ली भेजा। 1818 ई. के अंत तक सिरोही राज्य को छोङकर सभी राज्यों के साथ संधियाँ सम्पन्न कर ली गयी। चूँकि सिरोही राज्य पर जोधपुर राज्य ने अपनी प्रभुसत्ता का दावा किया था, अतः उस समय सिरोही राज्य से संधि नहीं की जा सकी। अंत में ब्रिटिश सरकार ने जोधपुर राज्य के दावे को अस्वीकृत कर 11 सितंबर, 1823 ई. को सिरोही राज्य से भी संधि कर ली।

कोटा राज्य के साथ संधि

अँग्रेजों से संधि करने वाले राजस्थानी राज्यों में कोटा प्रथम राज्य था। कोटा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 26 दिसंबर, 1817 ई. को संधि हुई थी और इस संधि की शर्तें अन्य राजस्थानी राज्यों के लिये आधार बनी थी। सर्वप्रथम कोटा राज्य से संधि होने का कारण वहाँ के मुख्य प्रशासक झाला जालिमसिंह की कुशल कूटनीति थी। झाला जालिमसिंह अपने समय का श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ था। वह 1758 ई. से कोटा राज्य का फौजदार पद ग्रहण किये हुए था। 1761 ई. के भटवाङा युद्ध (जयपुर और कोटा के बीच) के बाद राजस्थान में उसकी प्रसिद्धि फैल गयी थी। जिस समय मराठों की लूटमार से समस्त राजस्थान त्रस्त था, उस समय झाला ने मराठों के प्रति साम और दाम की नीति अपनायी। वह कई मराठा सरदारों को धन देता था तो कइयों को सैनिक सहायता देकर संतुष्ट करता था। 1803 ई. में यद्यपि सिन्धिया अँग्रेजों से पराजित हो गया था, फिर भी कोटा पर उसका दबाव बना हुआ था। अतः जालिमसिंह समयानुकूल कभी अँग्रेजों का साथ देता तो कभी मराठों का। सिन्धिया और होल्कर से उसकी घनिष्ठ मित्रता थी। लालजी बल्लाल और अम्बाजी इंगले से भी उसकी मित्रता थी। वह लाखों रुपया खंडणी के रूप में मराठों को देकर कोटा राज्य की मराठों की लूटखसोट से रक्षा करने में सफल रहा। जाविमसिंह ने लुटेरे पिण्डारी नेताओं से भी मैत्री संबंध स्थापित किये थे। उसने अनेक पिण्डारियों को अपने राज्य में बसाया तथा चालीस छोटे-बङे पिण्डारी नेताओं को अपने राज्य में जागीरें दे रखी थी।

19 वीं शताब्दी के आरंभ में जब सिन्धिया और होल्कर ने अँग्रेजों के साथ संधियाँ कर लीं तब झाला को यह समझने में देर नहीं लगी कि मराठों का सूर्य अस्त होने को है। 1816 – 17 ई. में जब सिन्धिया, होल्कर, भोंसले और पेशवा ने अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त होने के लिये युद्ध छेङ दिया और इधर अँग्रेजों को पिण्डारियों से भी युद्ध करने को बाध्य होना पङा, तब अँग्रेजों के राजदूत जेम्स टॉड ने झाला के समक्ष सहायता का प्रस्ताव रखा। झाला ने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मराठों व पिण्डारियों के साथ मित्रता होने पर भी उनके विरुद्ध अँग्रेजों की सहायता की। इस सहायता के बदले कोटा राज्य की डींग, पंचपहाङ, आहोर और गंगराङ के परगने प्राप्त हुए। इस प्रकार मराठों की पतनोन्मुख स्थिति को देखते हुए उसने अँग्रेजों से मैत्री संबंध बढाने आरंभ कर दिये। अतः जब मेटकॉफ का कोटा राज्य के नाम पत्र मिला तब सबसे पहले जालिमसिंह ने कोटा के प्रतिनिधि को दिल्ली भेजा, जिसने मेटकॉफ से बातचीत कर संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। संधि-पत्र में ग्यारह धाराएँ थी, किन्तु ग्यारहवीं धारा में केवल संधि पर हस्ताक्षर करने वालों के नाम हैं, मुख्य धाराएँ दस ही हैं, जो निम्नलिखित थी-

  1. ब्रिटिश सरकार और कोटा राज्य के बीच मैत्री और सद्भावना सदैव बनी रहेगी।
  2. एक पक्ष का मित्र व शत्रु दूसरे का भी मित्र और शत्रु समझा जायेगा।
  3. ब्रिटिश सरकार कोटा राज्य को संरक्षण में लेना स्वीकार कर उसकी सुरक्षा का वचन देती है।
  4. कोटा महाराव तथा उसके उत्तराधिकारी सदैव ब्रिटिश सरकार की अधीनता में रहते हुए ब्रिटिश सरकार को सहयोग देते रहेंगे।
  5. ब्रिटिश सरकार की बिना अनुमति के कोटा राज्य किसी अन्य शक्ति से न तो संधि करेगा और न मैत्री रखेगा, किन्तु अपने मित्रों संबंधियों के साथ उसका मित्रतापूर्ण पत्र-व्यवहार पूर्ववत् जारी रहेगा।
  6. महाराव तथा उसके उत्तराधिकारी किसी अन्य राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे और यदि किसी राज्य से कोई विवाद होगा तो उसे ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता से निपटाया जायेगा।
  7. कोटा राज्य अब तक मराठों को जो खिराज दे रहा है वह अब ब्रिटिश सरकार को देगा।
  8. ब्रिटिश सरकार के अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति कोटा से खिराज का दावा नहीं करेगी। यदि कोई शक्ति ऐसा करती है तो उसे ब्रिटिश सरकार जवाब देगी।
  9. ब्रिटिश सरकार की माँग पर कोटा राज्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार सैनिक सहायता देगा।
  10. महाराव तथा उसके उत्तराधिकारी अपने राज्य के पूर्णतः शासक बने रहेंगे तथा वहाँ ब्रिटिश सरकार के दीवानी व फौजदारी नियम लागू नहीं किये जायेंगे अर्थात् ब्रिटिश सरकार उनके राज्य में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी।
  11. अँग्रेजों को वार्षिक खिराज देने के संबंध में, चूँकि कोटा राज्य पेशवा, होल्कर, सिन्धिया और पंवार चारों को खिराज देता था तथा कोटा के अधीन सात कोटङिया और शाहाबाद भी थे, अतः कोटा से लिये जाने वाले खिराज की राशि कुछ अधिक थी। कोटा के राजस्व में से 2,44,777 रुपये, सात कोटङियों के राजस्व में 19,997 रुपये तथा शाहाबाद के राजस्व से 25,000 रुपये वार्षिक लेना तय किया गया।

संधि की पूरक धाराएँ-

इस समय तक झाला जालिमसिंह लगभग 79 वर्ष का हो चुका था। राज्य में उसके बढते हुए प्रभाव के कारण कोटा के हाङा सामंत एवं राजकुमारों के मन में उसके प्रति काफी ईर्ष्या थी। झाला ने अपने जीवन काल में कोटा पर एकछत्र शासन किया था और वह राज्य का सर्वेसर्वा था। किन्तु अब अपनी वृद्धावस्था को देखते हुए अपने उत्तराधिकारियों के बारे में काफी चिन्तित हो उठा। मराठों के पराभव काल में उसने अँग्रेजों से घनिष्ठता बढना आरंभ कर दिया। अँग्रेजों के पिण्डारी अभियान के समय अँग्रेजों को सहायता देकर जेम्स टॉड का विश्वास अर्जित कर लिया था। उसने जिस तत्परता से अँग्रेजों से संधि की, इस कारण अँग्रेजों के मन में उसके प्रति विशेष सद्भावना थी। अतः अँग्रेजों ने उसके प्रति काफी उदारता प्रदर्शित की। इसीलिए झाला के विशेष आग्रह पर कोटा राज्य के साथ हुई संधि में अँग्रेजों ने दो पूरक धाराओं का समावेश किया, जिनके अनुसार 1.) कोटा के राजा महाराव उम्मेदसिंह के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र तथा उसके वंशज कोटा राज्य के शासक होंगे 2.) राज्य की समस्त सत्ता (प्रशासन) झाला जालिमसिंह और उसके बाद जालिमसिंह के वंशजों के पास रहेगी पूरक संधि पत्र पर धाराएँ शामिल करने की तारीख 20 फरवरी, 1818 अंकित है तथा 7 मार्च को गवर्नर जनरल ने इन नवीन धाराओं की पुष्टि की थी। पूरक संधि पत्र पर छः व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं – मेटकॉफ, महाराव उम्मेदसिंह, राजराणा जालिमसिंह, महाराज शिवदानसिंह, हुलूचंद और शाह जीवनराम । डॉ. रामप्यारी शास्री की मान्यता है कि इस पूरक संधि पत्र में अनेक असंगतियाँ हैं। पूरक संधि पत्र हस्ताक्षर दिल्ली में हुए, परंतु ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता, जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि उस दिन महाराव उम्मेदसिंह दिल्ली में उपस्थित थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूरक धाराओं का विचार बाद में आया था तथा अँग्रेज जालिमसिंह को उसकी विशिष्ट सेवाओं के लिये पुरस्कृत करना चाहते थे। इस पूरक संधि के द्वारा कोटा का महाराव नाममात्र का शासक रह गया था। लेकिन स्वयं जालिमसिंह भी कोटा में अलोकप्रिय हो गया। उसके विरोधियों ने अनेक बार उसकी हत्या करने का प्रयास किया। महाराव उम्मेदसिंह की मृत्यु के बाद नये महाराव किशोरसिंह ने जालिमसिंह के अधिकारों को चुनौती दी, जिससे दोनों में झगङों के कारण स्थिति अत्यन्त विकट हो गयी और महाराव को भागकर बूँदी में शरण लेनी पङी। तत्पश्चात् महाराव न्याय प्राप्त करने के लिये दिल्ली भी गया, किन्तु वहाँ भी उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। 1821 ई. में दोनों के बीच मंगरोल नामक स्थान पर युद्ध भी हुआ। इस अवसर पर कर्नल टॉड ने जालिमसिंह के सहायतार्थ एक अँग्रेज फौज भेजी । युद्ध में पराजित होकर महाराव नाथद्वारा चला गया। अंत में मेवाङ के महाराणा भीमसिंह की मध्यस्थता में दोनों के बीच 22 नवम्बर 1821 को समझौता हो गया, जिसके अनुसार पूरक संधि की धाराओं को स्वीकार किया गया और तय हुआ कि महाराव के निजी कार्यों में जालिमसिंह हस्तक्षेप नहीं करेगा और झाला के राज काज में महाराव दखल नहीं देंगे। दिसंबर, 1821 ई. में किशोरसिंह कोटा लौट आया। जुलाई, 1824 ई. में झाला का देहांत हो गया। तत्पश्चात् संधि के अनुसार उसका पुत्र माधोसिंह कोटा का दीवान और फौजदार बना। किशोरसिंह के उत्तराधिकारी रामसिंह के काल में 1833 ई. में माधोसिंह का पुत्र मदनसिंह दीवान व फौजदार बना, तब महाराव रामसिंह और मदनसिंह के संबंध बिगङ गये। झाला के वंशजों को निरंतर अँग्रेजों का समर्थन मिला, अतः 1837 ई. में कोटा का अंगभंग हुआ और झाला के उत्तराधिकारियों के लिये एक संवतंत्र राज्य झालावाङ की स्थापना हुई। इस प्रकार पूरक संधि पत्र कोटा राज्य के लिए तथा कोटा के शासकों के लिये अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ। हाँ, झाला ने अपने उत्तराधिकारियों के लिये स्वर्णिम भविष्य अवश्य निश्चित कर दिया था।

जोधपुर राज्य के साथ संधि

कोटा राज्य के बाद 6 जनवरी, 1818 ई. को कम्पनी सरकार और जोधपुर राज्य के बीच संधि हुई । संधि पर गवर्नर जनरल की ओर से चार्ल्स मेटकॉफ ने तथा जोधपुर के महाराजा मानसिंह की ओर से युवराज छत्रसिंह, व्यास विशनराम और व्यास अभयराम ने हस्ताक्षर किये। संधि की शर्तें निम्नलिखित थी –

  1. अँग्रेज सरकार और महाराजा मानसिंह एवं उसके उत्तराधिकारियों के बीच मैत्री, सहयोग और समान हितों के लिये एकता पीढी दर पीढी बनी रहेगी। एक के मित्र और शत्रु दूसरे के मित्र और शत्रु होंगे।
  2. अँग्रेज सरकार जोधपुर राज्य की सुरक्षा का दायित्व अपने ऊपर लेती है।
  3. महाराजा मानसिंह और उसके उत्तराधिकारी अँग्रेज सरकार की सर्वोच्चता स्वीकार करते हुये उसके अधीन रहते हुए उसके साथ सहयोग करते रहेंगे तथा दूसरे राज्यों और रियासतों से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखेंगे।
  4. अँग्रेज सरकार की अनुमति के बिना जोधपुर महाराजा और उसके उत्तराधिकारी किसी राजा अथवा राज्य के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे, किन्तु अपने मित्रों तथा रिश्तेदारों के साथ सामान्य पत्र व्यवहार पूर्ववत् जारी रहेगा।
  5. जोधपुर महाराजा और उसके उत्तराधिकारी किसी अन्य राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे और यदि किसी राज्य के साथ कोई विवाद उत्पन्न हो जाय तो तो वह मामला अँग्रेज सरकार की मध्यस्थता और निर्णय के लिये प्रस्तुत किया जायेगा।
  6. जोधपुर राज्य की ओर से अब तक जितना खिराज सिन्धिया को दिया जाता था, वह खिराज अँग्रेज सरकार को दिया जायेगा तथा जोधपुर राज्य और सिन्धिया के बीच हुआ खिराज संबंधी इकरारनामा समाप्त समझा जायेगा।
  7. चूँकि महाराजा का कथन है कि जोधपुर राज्य से सिन्धिया के अलावा अन्य किसी को खिराज नहीं दिया जाता था और अब चूँकि वह खिराज अँग्रेज सरकार को देने का अनुबंध किया जा रहा है, अतः यदि अब सिन्धिया अथवा अन्य कोई खिराज का दावा करेगा तो अँग्रेज सरकार उसे जवाब देगी।
  8. अँग्रेज सरकार की माँग पर जोधपुर राज्य 1,500 सवार अँग्रेज सरकार की सेवा में भेजेगा और आवश्यकता पङने पर राज्य की आंतरिक सुरक्षा के लिये आवश्यक सेना को छोङकर राज्य की संपूर्ण सेना अँग्रेज सरकार की सेवा में भेज दी जायगी।
  9. जोधपुर महाराजा और उसके उत्तराधिकारी अपने राज्य के पूर्ण स्वामी ने रहेंगे तथा ब्रिटिश क्षेत्राधिकार को उनके राज्य में लागू नहीं किया जायेगा अर्थात् अँग्रेज सरकार उनके राज्य में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी।
  10. जोधपुर राज्य से लिये जाने वाले खिराज की राशि 1,08,000 रुपये वार्षिक निर्धारित की गयी। इसके अलावा माँग करने पर कंपनी को 1,500 सवारों की सहायता देने को भी कहा गया था। लेकिन 1835 ई. में कंपनी ने जोधपुर के सवारों की अकुशलता का बहाना लेकर इस सहायता के बदले ब्रटिश अधिकारियों के नियंत्रण में जोधपुर लीजियन का गठन किया और इसके खर्चे के 1,15,000 रुपये वार्षिक जोधपुर राज्य से वसूल किये जाने लगे।

उदयपुर राज्य के साथ संधि

13 जनवरी, 1818 ई. को उदयपुर राज्य और कंपनी सरकार के बीच संधि सम्पन्न हुई। संधि पर कंपनी की ओर से चार्ल्स मेटकॉफ ने तथा महाराणा की ओर से ठाकुर अजीतसिंह ने हस्ताक्षर किये। 22 जनवरी, 1818 ई. को गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज ने इसकी पुष्टि कर दी। संधि की शर्तें निम्नलिखित थी –

  1. दोनों पक्षों के बीच मैत्री, सहयोग और हितों की एकता पीढी दर पीढी बनी रहेगी तथा एक के मित्र और शत्रु दोनों के मित्र और शत्रु होंगे।
  2. अँग्रेज सरकार उदयपुर राज्य और उसके क्षेत्र की सुरक्षा का दायित्व अपने ऊपर लेती है। उदयपुर के महाराणा अँग्रेजों की सर्वोच्चता स्वीकार करते हुए उसके अधीन रहकर उसके साथ सहयोग करते रहेंगे तथा दूसरे राजाओं अथवा राज्यों से कोई संबंध नहीं रखेंगे।
  3. उदयपुर के महाराणा अँग्रेजों की सर्वोच्चता स्वीकार करते हुए उसके अधीन रहकर उसके साथ सहयोग करते रहेंगे तथा दूसरे राजाओं अथवा राज्यों से कोई संबंध नहीं रखेंगे।
  4. उदयपुर के महाराणा, अँग्रेज सरकार की जानकारी और स्वीकृति के बिना किसी राजा अथवा राज्य के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे, किन्तु अपने मित्रों व रिश्तेदारों के साथ मैत्रीपूर्ण पत्र व्यवहार पूर्ववत् जारी रख सकेंगे।
  5. उदयपुर के महाराणा किसी अन्य राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। यदि किसी राज्य के साथ कोई विवाद उत्पन्न होगा तो वह विवाद मध्यस्थता एवं निर्णय के लिये अँग्रेज सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा।
  6. प्रथम पाँच वर्ष तक राज्य की आय का एक चौथाई भाग प्रतिवर्ष अँग्रेज सरकार को खिराज के रूप में दिया जायेगा और इस अवधि के बाद प्रतिवर्ष 3/8 भाग दिया जाता रहेगा। खिराज के संबंध में महाराणा किसी अन्य शक्ति से कोई संबंध नहीं रखेंगे। यदि कोई शक्ति इस प्रकार का दावा करेगी तो अँग्रेज सरकार उसका उत्तर देगी।
  7. महाराणा का कथन है कि उदयपुर के बहुत से क्षेत्रों पर दूसरों ने अन्यायपूर्ण ढंग से अधिकार कर लिया है और वे उन क्षेत्रों को वापिस दिलाने की प्रार्थना करते हैं, सही हालात मालून न होने के कारण ब्रिटिश सरकार इस संबंध में कोई समझौता करने में असमर्थ है। परंतु राज्य की पुनः समृद्धि के लिये ब्रिटिश सरकार का पूरा ध्यान रखेगी तथा प्रत्येक मामले का ठीक-ठीक हाल मालूम होने पर जब भी कुछ करने का अवसर आयेगा, उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिये पूरा प्रयत्न करेगी। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की सहायता से जो भी क्षेत्र उदयपुर राज्य को वापिस मिलेंगे, उस क्षेत्र की आय का 3/8 भाग प्रतिवर्ष ब्रिटिश सरकार को दिया जाता रहेगा।
  8. आवश्यकता पङने पर, उदयपुर राज्य, अपनी सामर्थ्य के अनुसार ब्रिटिश सरकार को सैनिक सहयोग देगा।
  9. उदयपुर के महाराणा सदैव अपने राज्य के पूर्ण शासक रहेंगे और उस राज्य में ब्रिटिश सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी।

अन्य राज्यों के साथ संधियाँ

अन्य राजस्थानी राज्यों के साथ की गयी संधियों में इसी प्रकार की शर्तें थी। इन संधियों के अन्तर्गत राजपूत शासकों ने अँग्रेजों की सर्वोच्चता स्वीकार कर ली तथा अँग्रेजों ने प्रत्येक राज्य को बाह्य आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने तथा आंतरिक शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने में सहायता देने का आश्वासन दिया। इस ब्रिटिश संरक्षण के बदले राजपूत शासकों को अपनी बाह्य सत्ता (विदेश नीति) अँग्रेजों को सौंपनी पङी और अपने आपसी विवादों को अंग्रेजों की मध्यस्थता तथा निर्णय हेतु प्रस्तुत करने का वचन देना पङा। आवश्यकता के समय उन्हें अपने राज्यों के समस्त सैनिक साधन अँग्रेजों के सुपुर्द करना स्वीकार करना पङा। अँग्रेजों को वार्षिक खिराज देने संबंधी धारा, सभी राज्यों की संधियों में अलग-अलग थी। अँग्रेजों को दिये जाने वाले खिराज की राशि निर्धारित करने हेतु यह आधार अपनाया गया कि प्रत्येक राज्य जितना खिराज पहले मराठों को देते थे वह खिराज अब कंपनी सरकार को दिया जाय। जयपुर राज्य की मराठों और पिण्डारियों के हाथों हुई बर्बादी को देखते हुए उसे प्रथम वर्ष खिराज से मुक्त रखा। दूसरे वर्ष जयपुर से 4 लाख रुपये खिराज के लेना तय किया और प्रति वर्ष इसमें एक लाख रुपये की बढोतरी करने का प्रावधान रखा गया, लेकिन छठे वर्ष के बाद 8 लाख रुपये वार्षिक लेना तय किया, जब तक कि राज्य का राजस्व 40 लाख रुपये वार्षिक से अधिक न हो जाय। राज्य का राजस्व 40 लाख रुपये वार्षिक से अधिक होने पर अतिरिक्त राजस्व (40 लाख रुपये से अधिक की राशि) का 5/6 भाग, 8 लाख रुपये वार्षिक के अतिरिक्त दिया जायेगा। बूँदी से 80,000 रुपये वार्षिक लेना तय हुआ। बीकानेर, जैसलमेर और किशनगढ के राज्य चूँकि मराठों को नियमित खिराज नहीं देते थे, अतः कंपनी ने इन्हें खिराज से मुक्त रखा। लेकिन कंपनी सरकार द्वारा माँगने पर ये राज्य अपने साधनों के अनुसार कंपनी को निःशुल्क सैनिक सहायता देंगे। इस प्रकार इन तीनों राज्यों को छोङकर शेष सभी राज्यों ने निर्धारित वार्षिक खिराज देना स्वीकार किया था। कंपनी के साथ की गयी संधियों की धाराओं से स्पष्ट है कि, राजपूत शासकों ने अपनी स्वाधीनता बेचकर सुरक्षा खरीद ली थी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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