इतिहासएशिया और अफ्रीका में साम्राज्यवादविश्व का इतिहास

अफ्रीका का विभाजन

अफ्रीका का विभाजन

अफ्रीका का विभाजन यूरोपीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। अफ्रीका में बलात् प्रवेश करने का प्रथम प्रयास बेल्जियम के शासक लियोपोल्ड द्वितीय ने किया। उसके मन में लिविंग्स्टन और स्टेनली की खोजों से लाभ उठाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई।

1876ई. में उसने अफ्रीका के अज्ञात क्षेत्रों का पता लगाने तथा वहाँ सभ्यता का प्रकाश फैलाने के लिये अपनी राजधानी ब्रूसेल्स में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन में मध्य अफ्रीका में खोज तथा सभ्यता के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की गयी, जिसका अध्यक्ष लियोपोल्ड स्वयं बना।

यह भी निश्चय किया गया कि प्रत्येक यूरोपीय राज्य में इस अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की शाखाएँ अथवा समितियाँ गठित की जायें, किन्तु शीघ्र ही इस संस्था का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप समाप्त हो गया और प्रत्येक देश अपने ही लिये अफ्रीका में अधिक से अधिक प्रदेश हथियाने का प्रयास करने लगा।

अफ्रीका का विभाजन

कांगो की लूट-खसोट

लियोपोल्ड ने अन्तर्राष्ट्रीय अफ्रीकन सभा की ओर से स्टेनली को कांगो क्षेत्र में खोज कार्य के लिये नियुक्त किया। स्टेनली 1879 से 1882 ई. तक कांगो प्रदेश में रहा तथा उसने वहाँ रहने वाले कबीलों के नीग्रो सरदारों को फुसलाकर या डरा-धमकाकर अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का संरक्षण स्वीकार करने के लिये तैयार कर लिया। तीन-चार वर्ष की अवधि में उसने नीग्रो सरदारों से लगभग 400 संधियाँ की और इस प्रकार अफ्रीका का एक विशाल प्रदेश लियोपोल्ड के संरक्षण में आ गया।

स्टेनली की गतिविधियों को देखते हुए फ्रांस ने भी कांगो के दक्षिणी किनारे पर अपना प्रभाव स्थापित करना आरंभ कर दिया। इसी समय पुर्तगाल ने भी कांगो के कुछ भाग पर अपना दावा किया। फरवरी, 1884 में पुर्तगाल और इंग्लैण्ड के बीच एक समझौता हो गया, जिसके अनुसार ब्रिटेन ने कांगो नदी के मुहाने पर पुर्तगाल का अधिकार स्वीकार कर लिया।

लियोपोल्ड ने इस समझौते का विरोध किया, क्योंकि इससे कांगो फ्री स्टेट का समुद्र तट से संबंध विच्छेद हो गया था। फ्रांस ने भी इस समझौते को अमान्य घोषित कर दिया। इसी समय दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका के समुद्र तट पर स्थित एंग्रापिक्वेना पर जर्मनी के अधिकार को लेकर ब्रिटेन और जर्मनी के आपसी संबंधों में भी तनाव आ गया था, अतः बिस्मार्क ने फ्रांस और बेल्जियम का समर्थन किया।

बर्लिन समस्या (1884-85)

जुलाई, 1884 ई. में जर्मनी ने कांगो की समस्या तथा अन्य समस्याओं के निराकरण के लिये एक सम्मेलन आमंत्रित करने की माँग की। 1884 ई. में बर्लिन में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह सम्मेलन नवम्बर, 1884 से शुरू होकर फरवरी, 1885 में समाप्त हुआ।

इसमें स्विट्जरलैण्ड को छोङकर सभी यूरोपीय राज्यों के प्रतिनिधियों तथा अमेरिका के प्रतिनिधि ने भी भाग लिया। सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों ने एक साधारण अधिनियम पर हस्ताक्षर किए, जिसे बर्लिन एक्ट कहा जाता है। इस एक्ट में मुख्य रूप से निम्नलिखित बातों का समावेश किया गया था-

अफ्रीका का विभाजन
  • कांगो फ्री स्टेट, जिसमें कांगो नदी की घाटी का अधिकांश भाग सम्मिलित था, पर अन्तर्राष्ट्रीय अफ्रीकन सभा का अधिकार मान लिया गया।
  • कांगो नदी की घाटी में सभी राज्यों को व्यापार और नौ-संचालन की स्वतंत्रता प्रदान की गयी, किन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि कांगो क्षेत्र में किसी भी राज्य को विशेष अधिकार अथवा व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त नहीं करने दिया जाएगा।
  • कांगो नदी के यातायात और व्यापार संबंधी नियमों का पालन कराने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोग स्थापित किया गया।
  • नाइजर नदी के संबंध में यह तय किया गया कि उसके ऊपरी भाग पर ब्रिटेन का और निचले भाग पर फ्रांस का नियंत्रण रहेगा।
  • अफ्रीका के भावी बँटवारे के संबंध में यह निर्णय लिया गया कि किसी भी प्रदेश पर किसी राज्य का अधिकार तभी स्वीकार किया जाएगा जबकि उस क्षेत्र परर उसका वास्तविक अधिकार रहेगा। इसके साथ ही यह भी आवश्यक होगा कि उसे साम्राज्य में शामिल करने से पहले वह अन्य राष्ट्रों को इसकी सूचना देगा।
  • बर्लिन सम्मेलन में अफ्रीका के मूल निवासियों के नैतिक एवं भौतिक कल्याण के लिये कार्य करने एवं दास-प्रथा तथा दास-व्यापार को रोकने का भी आश्वासन दिया गया, किन्तु इन पवित्र उद्देश्यों को कार्यान्वित करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया गया।
  • कांगो फ्री स्टेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप भी शीघ्र ही समाप्त हो गया और वह लियोपोल्ड का व्यक्तिगत राज्य बन गया। बेल्जियम की संसद का उस पर कोई नियंत्रण नहीं था। कालांतर में कांगो को बेल्जियम के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया।

मिस्त्र और इंग्लैण्ड

मिस्त्र उत्तर-पूर्वी अफ्रीका का क्षेत्र है। यहाँ के निवासी अरब हैं। 1517 ई. में तुर्की के ओटोमन साम्राज्य ने इस पर अधिकार कर लिया था, परंतु उसने मिस्त्र के स्थानीय शासक जिसे खदीव कहा जाता था, को सिंहासन पर बने रहने दिया और आंतरिक शासन में काफी स्वतंत्रता दे रखी थी। 18 वीं शताब्दी के अंत तक ओटोमन साम्राज्य इतना निर्बल हो गया था, कि वह दूरस्थ मिस्त्र पर अपना नियंत्रण नहीं रख पाया।

इसी समय मिस्त्र यूरोपीय साम्राज्यवादियों के जाल में फँसने लगा। 1798 में नेपोलियन बोनापार्ट ने मिस्त्र पर आक्रमण कर दिया। तब इंग्लैण्ड ने रूस और ओटोमन साम्राज्य से मिलकर नेपोलियन को मिस्त्र से निकाल बाहर किया, परंतु इससे इंग्लैण्ड को अपने भारतीय साम्राज्य की चिन्ता उत्पन्न हो गयी और उसने पश्चिमी एशिया में अपनै सैनिक अड्डे स्थापित करने आरंभ कर दिए।

1854 ई. में फ्रांस के एक इंजीनियर फर्डीनेण्ड-डी-लेसेप्स ने खारी झील और तिमाश झील से होते हुये स्वेज की खाङी से भूमध्यसागर तक सीधा नहर का रास्ता निकालने का सुझाव दिया। मिस्त्र के खदीव सईदपाशा ने स्वेज नहर की योजना स्वीकार कर ली।योजना के अनुसार नहर निर्माण का संपूर्ण व्यय फ्रांस की नहर निर्माण कंपनी उठायगी और कंपनी को स्वेज नहर पर 99 वर्ष का अधिकार दिया गया।कुल लाभ का 15 प्रतिशत हिस्सा मिस्त्र सरकार द्वारा नहर निर्माण में लगाई जाने वाली पूँजी का ब्याज और उस पूँजी का लाभांश मिस्त्र सरकार को देना स्वीकार किया गया।

1859 ई. में नहर निर्माण का कार्य शुरू हुआ तथा 1869 ई. में 103 मील लंबी नहर बनकर तैयार हो गयी। 1863 ई. में सईदपाशा की मृत्यु के बाद इस्माइल पाशा मिस्त्र का शासक बना। उसके शासनकाल में मिस्त्र कर्ज के सागर में डूब गया और इंग्लैण्ड ने स्वेज नहर में मिस्त्र के खदीव के हिस्से खरीद लिये।

मिस्त्र की राजनीति में इंग्लैण्ड की दिलचस्पी यहीं से शुरू होती है। 1880 में मिस्त्र के खदीव ने कम्पनी से प्राप्त होने वाले 15 प्रतिशत लाभ को हमेशा के लिये फ्रांस को हस्तांतरित कर दिया। अब स्वेज नहर के दो हिस्सेदार रह गए – फ्रांस और इंग्लैण्ड।

स्वेज नहर के हिस्से तथा लाभांश बेच देने के बाद भी इस्माइल पाशा की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ और वह इंग्लैण्ड तथा फ्रांस से बेशुमार ऋण लेता रहा। उसने यह कर्ज अपने राज्य के टेक्सों (करों)को जमानत पर रखकर लिया था, अतः फ्रांस और इंग्लैण्ड ने टेक्सों की वसूली के लिये अपने कर्मचारी नियुक्त कर दिए।

जब इस्माइल पाशा ने इसका विरोध किया तो इंग्लैण्ड और फ्रांस ने ओटोमन सुल्तान पर दबाव डालकर इस्माइल पाशा को गद्दी-च्युत करवाकर उसके पुत्र तौफीक पाशा को खदीव बनवा दिया। इस प्रकार, मिस्त्र में द्वैध शासन की स्थापना हो गयी।

अरबी पाशा का राष्ट्रीय आंदोलन

द्वैध-शासन से मिस्र की अवस्था बहुत बिगङ गई। लोगों पर करों का बोझ बढ गया। सैनिकों को कई महीने तक वेतन नहीं मिला। इससे मिस्र में बहुत असंतोष फैल गया। फलस्वरूप यूरोपीय साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक देशव्यापी आंदोलन उठ खङा हुआ, जिसका नेता अरबी पाशा था। उसने एक संवैधानिक संरकार की माँग की।

नए खदीव को आंदोलनकारियों के सामने झुकना पङा और उसने वायदा किया कि वह मिस्र को साम्राज्यवादियों के प्रभाव से मुक्त कराने का प्रयास करेगा।

मिस्र में अरबी पाशा के प्रभाव से एक नवीन जागृति उत्पन्न हो गयी। ब्रिटेन ने मिस्र की इस जागृति को कुचलने का निश्चय किया। ब्रिटेन ने फ्रांस से सहयोग की प्रार्थना की लेकिन फ्रांस तैयार नहीं हुआ। अतः ब्रिटेन ने अकेले ही अरबी पाशा के अंदोलन को कुचलने का निश्चय किया। उसने पोर्ट सईद पर अधिकार कर नहर पर अपना शासन स्थापित कर लिया।

तेल-अल-कबीर के युद्ध में अरबी पाशा बुरी तरह पराजित हुआ और इस प्रकार 1882 ई. से मिस्र के शासन पर ब्रिटेन का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया। तौफीक पाशा नाममात्र का शासक रह गया।

सूडान की समस्या

सूडान मिस्र के अधीन था। अतः मिस्र पर अधिकार हो जाने के बाद सूडान का इंग्लैण्ड के अधीन होना स्वाभाविक था, परंतु 1881 ई. में मुहम्मद अहमद नामक व्यक्ति के नेतृत्व में सूडानियों ने विद्रोह कर दिया। इंग्लैण्ड ने विद्रोह को दबाने के लिये कर्नल हिक्स को भेजा परंतु वह पराजित हो गया।

तब गार्डन को वहाँ से अंग्रेज सैनिकों को वापस लाने के लिये भेजा गया। गार्डन ने आदेश के विपरीत विद्रोहियों का दमन करने का निश्चय किया, परंतु मुहम्मद अहमद ने खारतूम में गार्डन को उसकी सेना सहित घेर लिया। यद्यपि गार्डन की सहायता के लिये एक नई सेना भेजी गयी थी, परंतु उसके पहुँचने के पूर्व फरवरी, 1885 में मुहम्मद अहमद ने गार्डन की हत्या कर सूडान पर अधिकार कर लिया।

इससे ब्रिटिश सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा, फिर भी उसने कुछ समय के लिये सूडान की पुनर्विजय का काम स्थगित कर दिया।

मुहम्मद अहमद (जिसे मेंहदी भी कहते थे)की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने सूडान को जीतने का निश्चय किया, क्योंकि इस समय फ्रांस भी इस क्षेत्र को हथियाना चाहता था। 1898 ई. में अंग्रेजों ने सूडान पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

फेशोदा की घटना

अंग्रेजों के अधिकृत प्रदेश के उत्तर-दक्षिण में और फ्रांस वालों के अधिकृत क्षेत्र के पूर्व-पश्चिम में फेशोदा स्थित था। इंग्लैण्ड और फ्रांस दोनों ही इसको अधिकृत करना चाहते थे। 1898 ई. में अंग्रेज सेनापति किचनर फेशोदा की तरफ बढा। दूसरी तरफ फ्रांसीसी सेनापति मार्श भी पहुँच गया। इससे दोनों देशों के मध्य युद्ध की संभावना बढ गई। अंत में, फ्रांस ने अपनी सेना को वापस बुला लिया और अंग्रेजों से समझौता कर लिया। इस प्रकार, सूडान में ब्रिटिश शासन की स्थापना हो गयी।

दक्षिण अफ्रीका

1652 ई. में डचों ने दक्षिणी अफ्रीका में केप कॉलोनी की स्थापना की थी। दक्षिणी अफ्रीका में बसने वाले डचों को बोअर कहा जाता था। वे अंग्रेजों को घृणा की दृष्टि से देखते थे। 1815 ई. के आस-पास अंग्रेजों ने भी केप कॉलोनी में बसना शुरू कर दिया। प्रारंभ में डचों और अंग्रेजों में कोई संघर्ष नहीं हुआ, परंतु जब अंग्रेजों की संख्या निरंतर बढती गयी तो डचों को आशंका उत्पन्न हो गई।

अंत में 1836 ई. में डचों ने केप कॉलोनी को छोङ दिया और समीपवर्ती औरेंज-फ्री स्टेट, ट्रांसवाल, नेटाल आदि इलाकों में जा बसे। 1879 ई. में अंग्रेजों ने डचों से ट्रांसवाल छीन लिया। इस पर 1881 ई. में अंग्रेजों और बोअरों में युद्ध शुरू हो गया, जिसमें अंग्रेज पराजित हुए और उन्होंने बोअरों की स्वतंत्रता स्वीकार कर ली तथा ट्रांसवाल को भी स्वतंत्र कर दिया।

1881 ई. में ट्रांसवाल के कुछ इलाकों में सोने की खानों का पता लगा । इससे बहुत से अंग्रेज वहाँ जाकर बसने लगे, जिससे बोअर लोग पुनः आशंकित होने लगे। अंग्रेजों को प्रेरित करने वाला व्यक्ति था – सेसिल रोड्स। वह युवावस्था में इंग्लैण्ड से आकर दक्षिण अफ्रीका में बस गया था।

भाग्य से उसे सोने की खानों का पता चल गया और उसने अपार संपत्ति इकट्ठी कर ली। 1890 से 1896 तक वह केप कॉलोनी का प्रधानमंत्री भी रहा। वह चाहता था कि अंग्रेज ट्रांसवाल और औरेंज फ्री स्टेट पर अधिकार कर लें। उसकी प्रेरणा से डॉ.जेम्सन ने ट्रांसवाल पर आक्रमण कर दिया, परंतु बोअरो ने उसे बुरी तरह से पराजित किया। 1899 ई. में अंग्रेजों ने पुनः आक्रमण कर दिया, और बोअरो को इस बार परास्त होना पङा।

मई, 1902 ई. में दोनों पक्षों में संधि हो गयी, जिसके अनुसरा ट्रांसवाल और औरेंज फ्री स्टेट अंग्रेजी साम्राज्य के अंग बन गए। 1909 ई. में ब्रिटिश सरकार ने ट्रांसवाल, औरेंज फ्री स्टेट, केप कॉलोनी तथा नेटाल को यूनियन ऑफ साउथ अफ्रीका के नाम से एक राज्यच के अन्तर्गत संगठित किया।

अफ्रीका में फ्रांसीसी साम्राज्य

फ्रांस ने भी धीरे-धीरे अफ्रीका के कई महत्त्वपूर्ण प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। 1847 ई. में उसने अल्जीरिया पर अधिकार कर लिया। अल्जीरिया के पूर्व में ट्यूनिस का प्रदेश था। फ्रांस और इटली दोनों ही इसे हस्तगत करना चाहते थे, परंतु बिस्मार्क से प्रोत्साहन पाकर 1881 ई. में फ्रांस ने ट्यूनिस पर अधिकार कर लिया।

पश्चिम अफ्रीका में उसने सेनेगल तथा नाइजर नदियों की घाटी में अपना विस्तार किया। फ्रांस ने गायना, आइवरीकोस्ट, फ्रेंचकांगो तथा सहारा के नखलिस्तान पर भी अपना नियंत्रण कायम कर लिया। 1904 ई. में इंग्लैण्ड के साथ समझौता हो जाने के बाद फ्रांस ने मोरक्को को भी अपने नियंत्रण में लेना शुरू कर दिया। 1896 ई. में मेडागास्कर द्वीप पर अधिकार हो जाने से फ्रांस की स्थिति मजबूत हो गई।

जर्मन उपनिवेश

प्रारंभ में जर्मनी का चांसलर बिस्मार्क उपनिवेश स्थापना के पक्ष में नहीं था, क्योंकि इससे इंग्लैण्ड से संबंद बिगङने की आशंका थी, परंतु जर्मनी के औद्योगिक विकास, बढती हुई जनसंख्या के निवास तथा राष्ट्रीय गौरव की वृद्धि के लिये बिस्मार्क को भी अंत में उपनिवेश स्थापना की ओर ध्यान देना पङा।

1884 से 1890 के मध्य उसने अफ्रीका में तोगोलैण्ड, कैमरून, पूर्वी अफ्रीका तथा दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका पर अधिकार कर लिया और इसके लिये उसे कोई युद्ध भी न करना पङा।

इटली का साम्राज्य

अफ्रीका में इटली कोौ काफी समय बाद कुछ सफलता मिली। 1883 ई. में उसने लालसागर के किनारे के प्रदेश में इरीट्रिया नामक उपनिवेश की स्थापना की। इसके बाद वह पूर्वी सोमालीलैण्ड के कुछ भाग को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहता था, परंतु उसके मध्य में अबीसीनिया का स्वतंत्र राज्य था।

1896 ई. में इटली ने अबीसिनिया पर आक्रमण कर दिया, परंतु अडोवा के युद्ध में अबीसिनिया ने इटली को परास्त कर उसकी प्रगति को रोक दिया। इसके बाद इटली ने ट्रिपोली तथा उसके आस-पास के प्रदेश पर अधिकार कर लिया।

पुर्तगाल

पुर्तगाल जैसे छोटे से देश ने भी अफ्रीका में अपना औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किया। उसने अफ्रीका के पश्चिमी तट पर अंगोला का उपनिवेश और पूर्वी तट पर मोजाम्बिक (पुर्तगाली पूर्वी अफ्रीका) का उपनिवेश बसाया। अफ्रीका के गिनी तट पर भी उसका नियंत्रण हो गया था।

स्पेन

अफ्रीका की लूट-खसोट में स्पेन भी पीछे नहीं रहा। उसने अफ्रीका के उत्तर-पश्चिमी तट पर कुछ प्रदेश प्राप्त किए। 1906 ई. में उसे जिब्राल्टर के सामने के समुद्री तट पर पैर रखने का अवसर भी मिल गया।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : यूरोपीय देशों की नवीन औपनिवेशिक नीति का वास्तविक आधार क्या था ?

उत्तर : साम्राज्यवादी लिप्सा।

प्रश्न : यूरोपीय साम्राज्यवाद के विस्तार में अहम भूमिका किसकी रही ?

उत्तर : औद्योगिक क्रांति की

प्रश्न : हिन्देशिया पर किस यूरोपीय जाति ने प्रभुत्व जमाने में सफलता प्राप्त की ?

उत्तर : डच।

प्रश्न : अफ्रीका के किस क्षेत्र की समस्या को सुलझाने के लिये बर्लिन में अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करना पङा ?

उत्तर : कांगो

प्रश्न : दक्षिण अफ्रीका में आबाद बोअर लोग किस जाति के थे ?

उत्तर : डच जाति के थे।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : अफ्रीका का विभाजन

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