अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार
अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार – वे नियम जो अलाउद्दीन के आर्थिक सुधार कहे जा सकते हैं, उसके प्रशासन के एक विशेष अंग हैं। अलाउद्दीन की लगातार विजयों और मंगोल आक्रमणों ने उसके लिये एक विशाल सेना रखना अनिवार्य कर दिया था। राज्य के कर्मचारियों तथा सैनिकों और दीवानी प्रशासन पर अत्यधिक व्यय होता था। फरिश्ता के अनुसार अलाउद्दीन के पास 50,000 दास थे और उन पर भी अत्यधिक व्यय होता था। खर्च इतना अधिक था कि उपज पर पचास प्रतिशत कर लगाकर, विभिन्न प्रकार के अन्य कर लगाकर और सोने तथा चाँदी के पेयपात्रों को सिक्कों में परिवर्तित करके भी राज्य की आवश्यकताएँ पूरी न हो पाती थी। यह हिसाब लगाया गया कि यदि सुल्तान सामान्य वेतन पर विशाल संख्या में सैनिक भरती करे तो समस्त राज्यकोष पाँच या छह वर्षों में खाली हो जाएगा (मोरलैण्ड)। यह कहना मुश्किल है कि अलाउद्दीन ने आर्थिक सुधार केवल सेना को ही ध्यान में रखकर किए थे, क्योंकि आर्थिक नीति को विजय की दौङ के लगभग समाप्त होने के बाद भी चालू रखा गया। किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके आर्थिक सुधारों में सेना एक महत्वपूर्ण अंग थी।
अलाउद्दीन के आर्थिक नियमों का विस्तृत वर्णन केवल जियाउद्दीन बरनी ने किया है। कुछ अन्य समकालीन लेखकों का वर्णन बरनी के वृत्तांत का अनुमोदन मात्र है। ऐसी नीतियों में उसके आर्थिक सुधारों का ज्ञान हमें मुख्यतः बरनी से ही प्राप्त होता है जो विश्वसनीय भी है। मोरलैण्ड लिखते हैं, जियाउद्दीन बरनी का ऐसी कहानी गढने का कोई ध्येय नहीं था और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें आर्थिक विश्लेषण की क्षमता नहीं थी जो ऐसी मनगढंत कहानी के लिये आवश्यक थी…उस समय की आर्थिक परिस्थितियों में अलाउद्दीन जैसा शासक दक्ष मंत्रियों की सहायता से धीरे-धीरे उस नीति के आवश्यक अंगों तक पहुँचा जिसे कार्यान्वित कर लेने का उसने निश्चय कर लिया था। यह याद रखना चाहिए कि वह इन परिस्थितियों में अधिक शक्तिशाली था जबकि आधुनिक शासन प्रणालियाँ दुर्बल होती हैं, क्योंकि वह एक विस्तृत गुप्तचर प्रणाली पर भरोसा रख सकता था और प्रभावशाली दंड के लिये कोई भावुकतापूर्ण आपत्ति नहीं की जा सकती थी।
अलाउद्दीन के मूल्य-नियंत्रण के संबंध में एक विचारणीय प्रश्न यह है कि मूल्य-नियंत्रण की आज्ञा केवल दिल्ली के लिये दी गयी थी या पूरी सल्तनत के लिये? मोरलैंड का विचार है कि भाव-नियंत्रण के विषय में दिल्ली को शेष साम्राज्य से अलग कर दिया गया था। उसके अनुसार – सारे देश में भाव घटाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। प्रयास केवल दिल्ली तक ही सीमित रखा गया जहाँ सेना केंद्रित थी। प्रोफेसर के.एस. लाल मोरलैण्ड के विचारों से सहमति प्रकट करते हैं और इसके पक्ष में विस्तृत प्रमाण देने का प्रयत्न भी करते हैं। प्रोफेसर बनारसी प्रसाद सक्सेना इससे सहमत नहीं हैं। वे लिखते हैं कि यह तर्क इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि दिल्ली में ही मूल्यों की कमी सेना के लिये सहायक सिद्ध नहीं होगी जिसकी समस्त देश से भरती की जाती थी। सैनिक व अश्वारोही साम्राज्य के सभी भागों में रहते थे, इसलिए केवल दिल्ली के मूल्य नियंत्रण से उनकी कोई सहायता नहीं हो सकती थी।