आधुनिक भारतइतिहास

आधुनिक भारत की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति

आधुनिक भारत की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति

18 वीं शताब्दी की राजनैतिक अव्यस्था के होते हुए भी भारत की पारम्परिक विशेषताएं ज्यों की त्यों ही बनी रही।

सामाजिक वर्गीकरण

समाज में सब से महत्त्वपूर्ण स्थान सम्राट का था। इसका अनुकरण अभिजात वर्ग करता था। ये लोग वित्तीय कठिनाइयों के होते हुए भी ऐश्वर्यमय जीवन व्यतीत करते थे। इन्हें सुन्दरी, सुरा एवं संगीत से विशेष प्रेम होता था। सबसे नीचे ग्राम में रहने वाले कृषक तथा हस्तशिल्पी होते थे जो प्रायः निर्धनतापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
हिन्दू समाज में जाति प्रथा का बहुत महत्व था। जाति के नियमों का विवाह, वस्त्र, भोजन तथा व्यवसाय में बहुत महत्व था। परंतु आर्थिक तथा राजनैतिक कारणों से बहुत लोगों को पारस्परिक व्यवसाय छोङकर अन्य कार्य करने पङे।
स्त्रियों का समाज तथा गृह में मान तो था परंतु समानता की वह भावना नहीं थी जैसी कि आज हम समझते हैं। मालाबार तथा कुछ अन्य क्षेत्रों को छोङ कर हिन्दू समाज मुख्यतः पितृप्रधान था तथा घर में पुरुष का ही बोलबाला था। यद्यपि हमें कुछ ऐसी हिन्दू तथा मुसलमान स्त्रियों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने राजनीति, प्रशासन तथा विद्या के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई परंतु प्रायः स्त्री को समाज में उसका न्यायपूर्ण स्थान नहीं दिया जाता था। हिन्दू तथा मुसलमान स्त्रियाँ परदा करती थी यद्यपि बाहर काम करने वाली स्त्रियां प्रायः ऐसा नहीं कर पाती थी। बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी यद्यपि गौना वयस्क होने पर ही होता था। ऊंचे वर्गों में दहेज प्रथा भी प्रचलित थी।राजवंशों, बङे जमींदारों तथा धनाढ्य घरों में बहुपत्नी प्रथा भी प्रचलित थी। परंतु साधारण लोग एख विवाह ही करते थे। उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के कुलीन घरानों में बहुपत्नी प्रथा का रूप बहुत भीषण था। द्विजों में विधवा विवाह प्रायः नहीं होता था। आश्चर्य की बात है कि पेशवाओं ने विधवा के पुनर्विवाह पर पतदाम नाम का एक कर भी लगाया था।
बंगाल, मध्यभारत, राजस्थान इत्यादि के उच्च हिन्दू कुलों में सती प्रथा भी प्रचलित थी, जिसके अनुसार विधवा अपने पति की चिता में ही जलकर भस्म हो जाती थी। पेशवाओं ने इस प्रथा को रोकने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे।
एक अन्य सामाजिक कुरीति थी दास वृत्ति। मुख्य रूप से हम दासों को दो भागों में बाँट सकते थे। एक थे घरों में काम करने वाले दास तथा दूसरे थे खेतों में काम करने वाले बंधुआ मजदूर।ये दूसरी श्रेणी के लोग भूमि के हस्तांतरण होने पर नए स्वामी के पास हस्तांतरित हो जाते थे। यूरोपीय पर्यटकों तथा प्रशासकों ने दास वृत्ति का बहुत उल्लेख किया है। आर्थिक कठिनाइयों, दुर्भिक्ष, असीम निर्धनता, तथा अन्य प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लोग अपनी संतान को बेच देते थे। राजपूत, खत्री तथा कायस्थ लोग घरों में काम करने के लिये दास-दासियां रखते थे। परंतु यह स्मरण रहे कि भारत में दासों से यूरोप और अमरीका की अपेक्षा बहुत उत्तम व्यवहार किया जाता था। इन्हें लोग प्रायः पारम्परिक सेवक के रूप में ही मानते थे। उन्हें विवाह करने की अनुमति होती थी तथा उनकी संतान पूर्ण नागरिक मानी जाती थी।
विदेशी कंपनियों, विशेषतः पुर्तगाली, वलंदेजी तथा अंग्रेजों के आने पर दास व्यापार ने एक नवीन रूप धारण कर लिया। कलकत्ता में 1752 में एक कार्यालय का उल्लेख मिलता है, जहां प्रत्येक दास के पंजीकृत करने पर 4 रुपया शुल्क देना होता था। यूरोपीय कंपनियां 10 वर्षीय कन्या के लिए 5 स् 15 रुपया, 16 वर्षीय लङके के लिए 12 से 20 रुपया तथा पूर्ण वयस्क के लिए 15 से 20 रुपया प्रति दास के मूल्य पर बंगाल, आसाम तथा बिहार की मंडियों से मोल लेकर यूरोप तथा अफ्रीका भेजती थी। सूरत, मद्रास तथा कलकत्ता में यूरोपीय घरों में हबशी दास भी रखे जाते थे। 1789 में की गयी घोषणा से दास व्यापार बंद कर दिया गया परंतु ग्रामों में बंधुआ मजदूरी की प्रथा कहीं-कहीं आज भी चल रही है।

शिक्षा

हिन्दुओं तथा मुसलमानों में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि रही है। परंतु भारतीय शिक्षा का उद्देश्य संस्कृति था साक्षरता नहीं था। अपने-अपने वर्ण, कुल तथा मर्यादा के अनुसार व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने का भी चलन था जिससे लोगों में विशिष्टता आ जाती थी। हिन्दुओं तथा मुसलमानों में शिक्षा धर्म से संबंधित थी।
संस्कृति के उच्च अध्ययन के केन्द्रों को बंगाल, बिहार, नादिया तथा काशी में तोल अथवा चतुष्पाठी कहते थे। मिथिला (बिहार) तथा उत्कल (उङीसा) संस्कृत अध्ययन के विशेष क्षेत्र थे। फ्रांसीसी पर्यटक बरनियर काशी को भारत का एथन्ज कहता है। उच्च संस्कृत शिक्षा के अभिलाषी इन केन्द्रों की ओर भागते थे। फारसी तथा अरबी के उच्च शिक्षा केन्द्रों को मदरसा कहते थे। राजभाषा होने के कारण हिन्दू तथा मुसलमान दोनों फारस सीखते थे। पूर्वी भारत में आजिमाबाद (बिहार) फारसी का प्रसिद्ध केन्द्र था। कुरान तथा इस्लामी धार्मिक शिक्षा के इच्छुक अरबी सीखते थे।
प्रारंभिक शिक्षा का प्रचलन पर्याप्त मात्रा में था। हिन्दू विद्यालय को पाठशाला तथा मुस्लिम विद्यालय को मकतब कहते थे। ये विद्यालय प्रायः मंदिरों तथा मस्जिदों से संबंधित होते थे। विद्यार्थियों को लिखने, पढने तथा अंक गणित की शिक्षा दी जाती थी। सत्य, ईमानदारी, आज्ञा-पालन, धर्मनिष्ठा इत्यादि सिखाई जाती थी। यद्यपि विद्या का प्रचलन प्रायः उच्च वर्णों में ही था, परंतु निम्न वर्णों के बालक भी विद्या प्राप्त कर लेते थे। स्त्री शिक्षा अभीष्ट नहीं थी।

कला तथा साहित्य

जब कला तथा साहित्य को दिल्ली में संरक्षण मिलना बंद हो गया तो ये लोग नवीन स्थापित राज्यों – हैदराबाद, लखनऊ, मुर्शिदाबाद, जयपुर इत्यादि की ओर चल पङे। आसफुद्दौला ने 1784 में सुप्रसिद्ध इमाम बाङा (मुहर्रम मनाने के लिए एक भवन) बनवाया । इस भवन में स्तंभों का प्रयोग नहीं किया गया है। यही इसका विशेष महत्व है। सवाई जयसिंह (1688-1743) सुप्रसिद्ध जयपुर अथवा गुलाबी नगर तथा दिल्ली, बनारस इत्यादि नगरों में ज्योतिष की 5 वेधशालाएं बनवाई। अमृतसर में महाराजा रणजीतसिंह ने स्वर्ण मंदिर में संगमरमर लगवाया तथा उसके कलश पर स्वर्ण पत्र मढवा दिया। इसी प्रकार सूरजमल ने भरतपुर की राजधानी डीग में आगरे के समान सुयोजित नगर बनवाने का प्रयत्न किया। यह कार्य 1725 में आरंभ किया गया परंतु पूर्ण नहीं हो सका।
आधुनिक भारतीय भाषाओं, उर्दू, हिन्दी, बंगला, असमिया, पंजाबी, मराठी, तेलगू तथा तमिल का बहुत विकास हुआ। यह 18 वीं शताब्दी ही थी जिसमें ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भारत में प्रथम मुद्राणालय स्थापित किया तथा भारतीय भाषाओं में अंजील का प्रकाशन किया। इन्हीं लोगों ने प्रथम तमिल कोश भी प्रकाशित किया। बंगाल में केरी, बॉर्ड तथा मार्शमैन जैसे धर्म-प्रचारकों ने सीरमपुर के स्थान पर मुद्रणालय स्थापित किया तथा बाइबल का बंगला संस्करण निकाला।

आर्थिक स्थिति

18 वीं शताब्दी के प्रारंभिक दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था की आधार इकाई ग्राम ही थी, जो स्वावलंबी तथा स्वशासी ही नहीं अपितु अपनी आवश्यकताओं के लिये सभी पदार्थों का उत्पादन कर लेते थे। इनका राज्य से संबंध केवल कर देने तक ही सीमित होता था। वंश तथा शासक तो परिवर्तित होते ही रहते थे परंतु ग्राम्य समाज सदैव की तरह मंद गति से चलता रहता था। एशियाई समाज काे यह अपरिवर्तनशील रूप ही था जिसके विषय में यूरोपियनों ने कहा था कि यह नश्वर संसार में भी अनश्वर है। ये ग्राम्य समाज एक ओर आर्थिक तथा सामाजिक स्थायित्व में मुख्य भूमिका निभाते थे तो दूसरी ओर आर्थिक प्रवाहहीनता के लिए भी उत्तरदायी थे।
नगरों में हस्तशिल्प का स्तर बहुत विकसित हो चुका था तथा भारतीय माल की संसार की सभी मंडियों में मांग थी। ढाका, अहमदाबाद तथा मसूलीपट्टम का सूती कपङा, मुर्शिदाबाद, आगरा, लाहौर तथा गुजरात का रेशमी माल, कश्मीर, लाहौर तथा आगरा के ऊनी शाल, गलीचे, सोने-चांदी के आभूषण, बर्तन, धातु का सामान, हथियार, ढालें, इत्यादि की भारत में तथा बाहर बहुत मांग थी।
स्थानीय तथा विदेशी विस्तृत व्यापार के कारण व्यापारी पूंजीपतियों का विकास हुआ तथा बैंक पद्धति का भी विकास हुआ। उत्तरी भारत में जगत सेठों तथा दक्षिणी भारत में चेट्टियों का उदय हुआ। हुण्डियों इत्यादि का भी प्रचलन होने लगा था तथा इससे व्यापार में बहुत वृद्धि हुई।
17 वीं तथा 18 वीं शताब्दी में भारतीय व्यापार के विकास से यह लगता था कि भारत में पूंजीवाद के शीघ्र उत्थान के लिए परिस्थितियां विद्यमान थी परंतु कुछ प्रतिबंधों के कारण जैसे कि सामंतशाही वर्ग का प्रसार, जो कि कृषकों के बचाए हुए धन का दुरुपयोग करते थे, तथा अभिजात वर्ग की सम्पत्ति का सरकार द्वारा जब्त करना, लोगों में बचत की भावना तथा प्रवृत्ति का अभाव, तथा इन बचतों का सदुपयोग न करना इत्यादि तथा सर्वप्रधान देश में राजनैतिक स्थिरता का न होना, इन सभी के कारण आधुनिक विधि से आर्थिक विकास नहीं हो सका।
18 वीं शताब्दी में यूरोपीय कंपनियों के अस्तित्व से जिसके महान आर्थिक तथा राजनैतिक प्रभाव हुए, देश में निष्क्रियता आई तथा देश में अव्यवस्था उत्पन्न हुई।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

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