इतिहासराजस्थान का इतिहास

महाराणा सांगा का अभियान

महाराणा सांगा का अभियान – अजमेर और चाकसू की विजय

सिंहासन ग्रहण करने के बाद सांगा ने मेवाङ में व्याप्त अव्यवस्था को ठीक किया। उसने अपने राज्य के वित्तीय साधनों को भी विकसित करने का प्रयास किया ताकि मेवाङ के सैन्य संगठन को मजबूत बनाया जा सके। उसके बाद राजस्थान पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये अजमेर पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। अजमेर से वह चाकसू की तरफ बढा तथा उस पर आक्रमण कर उसे भी अधिकृत कर लिया।

चाकसू को उसने पूरणमल की जागीर में मिला दिया। अहमद यादगार ने लिखा है कि सांगा ने दिल्ली सुल्तान से चाकसू छीन लिया और वहाँ आबाद सैय्यद परिवारों पर भीषण अत्याचार किये। इस कथन से इस बात का संकेत मिलता है कि पूर्वी राजस्थान पर सुल्तान सिकंदर लोदी का नियंत्रण कमजोर पङ गया था और इसी स्थिति का लाभ उठाते हुए उसने अजमेर और चाकसू पर अधिकार कर लिया। इस विजय से न केवल मेवाङ राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ वरन् राजस्थान पर सांगा का वर्चस्व स्थापित होने का सिलसिला भी आरंभ हो गया।

महाराणा सांगा का अभियान
ईडर राज्य में हस्तक्षेप

मेवाङ की गद्दी पर आसीन होने के कुछ ही वर्षों बाद साँगा को ईडर राज्य में अपने समर्थक को गद्दी पर बैठाने का अवसर मिल गया जिसके लिये उसने ईडर राज्य में हस्तक्षेप किया। ईडर के राजा भान की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र सूरजमल ईडर का शासक बना, किन्तु 18 महीनों के बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी। सूरजमल का पुत्र रायमल ईडर का शासक बना, किन्तु 18 महीनों के बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी।

सूरजमल का पुत्र रायमल इस समय अल्पव्यस्क था। अतः सूरजमल के छोटे भाई भीम के पुत्र भारमल को ईडर की गद्दी पर बैठाया गया। इस समय तक सूरजमल का पुत्र रायमल वयस्क हो चुका था, अतः उसने भारमल की गद्दीनशीनी को चुनौती दी। फलस्वरूप दोनों में उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। रायमल ने साँगा की शरण ली और सहायता के लिये प्रार्थना की। इस पर साँगा ने ईडर पर आक्रमण किया और भारमल को परास्त कर रायमल को ईडर की गद्दी पर बैठाया तथा स्वयं मेवाङ लौट आया। 1515 ई. में भारमल ने गुजरात के मुजफ्फरशाह से सहायता की याचना की।

मुजफ्फरशाह ने अहमदनगर के निजाम-उल-मुल्क को, जो सुल्तान का एक प्रमुख अमीर था, भारमल की सहायता करने को कहा। निजाम-उल-मुल्क ने ईडर पर आक्रमण कर रायमल को वहाँ से खदेङ दिया और भारमल को ईडर का सिंहासन सौंप दिया। इस अवसर पर साँगा, रायमल को कोई सहायता नहीं दे सका। रायमल ने भागकर पहाङों में शरण ली और अपने शत्रु के विरुद्ध छापामार युद्ध करता रहा।

मालवा की समस्या

मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय ने मेदिनीराय की सहायता से अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी। कुछ ही दिनों में मालवा की शासन व्यवस्था पर मेदिनीराय का पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया तथा मेदिनीराय ने अपनी शक्ति इतनी बढा ली कि महमूद खलजी केवल नाममात्र का सुल्तान रह गया। इससे मालवा के मुस्लिम सरदारों में भीषण असंतोष उत्पन्न हो गया। उन्हें इस बात की भी गलतफहमी हो गयी कि उनके प्राण संकट में पङ गये हैं।

अतः वे अपनी प्राण रक्षा हेतु मालवा छोङकर भागने लगे। स्वयं सुल्तान को भी मेदिनीराय की निष्ठा पर संदेह हो गया और वह भी भागकर गुजरात चला गया, जहाँ मुजफ्फरशाह ने उसका हार्दिक स्वागत किया। मेदिनीराय ने सुल्तान महमूद खलजी द्वितीय को अनेक संदेश भिजवाये कि वह मालवा लौट आये लेकिन महमूद को अभी भी मेदिनीराय पर संदेह होने के कारण वह लौटकर मालवा नहीं गया।

जनवरी, 1518 ई. में गुजरात और मालवा के सुल्तानों ने मेदिनीराय के विरुद्ध कूच किया। मेदिनीराय माण्डू दुर्ग की रक्षा का भार अपने पुत्र नत्थू को सौंपकर स्वयं राणा साँगा से सहायता प्राप्त करने मेवाङ चला गया। जाने से पूर्व उसने अपने पुत्र को आदेश दिया था कि वह हर स्थिति में आक्रमणकारी को एक महीने तक रोके रखे ताकि वह मेवाङ से सहायता लेकर आ सके। इधर मुस्लिम सेनाओं ने माण्डू दुर्ग को घेर लिया। इस अवसर पर नत्थू ने मुजफ्फरशाह को कहलवाया कि वह युद्ध विराम स्वीकार कर ले, एक माह बाद दुर्ग उन्हें सौंप दिया जायेगा।

लेकिन मुजफ्फरशाह को मेदिनीराय के मेवाङ जाने की जानकारी मिल चुकी थी। अतः उसने नत्थू के प्रस्ताव को ठुकराते हुये दुर्ग पर जबरदस्त आक्रमण कर अधिकार कर लिया। इस संघर्ष में मेदिनीराय का पुत्र, उसके परिवार के अनेक सदस्य तथा कई सैनिक मारे गये। अतः अब तो मालवा-मेवाङ संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया।

मालवा के साथ संघर्ष

राणा साँगा और महमूद खलजी के बीच संघर्ष होना कोई विस्मयकारी घटना नहीं थी। यह तो पूर्वकाल से चले आ रहे मालवा-मेवाङ संघर्षों की एक कङी ही थी। वस्तुतः दिल्ली सल्तनत के विघटन के बाद से ही सीमावर्ती क्षेत्रों को लेकर मालवा और मेवाङ के बीच कई बार संघर्ष हो चुके थे। अतः राणा साँगा और महमूद खलजी के बीच संघर्ष स्वाभाविक था। दोनों के मध्य संघर्ष के कारण निम्नलिखित थे

राणा साँगा एक महत्वाकांक्षी शासक था। नह न केवल मेवाङ राज्य की सीमाओं का विस्तार करने को उत्सुक था, अपितु उत्तर भारत में एक हिन्दू साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न देखा करता था। दूसरी ओर महमूद खिलजी भी उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा रखता था। चूँकि उत्तर भारत पर प्रभुत्व केवल एक शक्ति का ही हो सकता था, अतः दोनों एक दूसरे की शक्ति को क्षीण करना अनिवार्य समझते थे। स्पष्ट है कि दोनों की महत्वाकांक्षाएँ और विस्तारवादी नीति संघर्ष का प्रमुख कारण थी।

दोनों के मध्य संघर्ष का एक कारण धार्मिक भी था। मालवा के मुस्लिम सुल्तान धार्मिक कट्टर और सर्वथा असहिष्णु थे। वे केवल अपने राज् के हिन्दुओं पर ही धार्मिक अत्याचार नहीं करते थे, बल्कि जब भी अवसर मिलता था, वे अपने पङौसी हिन्दू राज्यों की सीमावर्ती क्षेत्रों के हिन्दुओं पर धार्मिक अत्याचार करने तथा मंदिरों व मूर्तियों को तोङने से भी नहीं चूकते थे। दूसरी ओर राणा साँगा अपने आपको हिन्दू धर्म और संस्कृति का रक्षक एवं पोषक समझता था। अतः हिन्दू धर्म और संस्कृति के विरोधी से लङना वह अपना सामान्य कर्त्तव्य समझता था। मालवा और मेवाङ के बीच लङे गये युद्धों के मूल में यही कारण विद्यमान था।

राणा साँगा और महमूद खिलजी द्वितीय के बीच संघर्ष का एक अन्य कारण मालवा के उत्तराधिकार की समस्या और इससे उत्पन्न होने वाला संघर्ष था। मेदिनीराय के सहयोग से महमूद खिलजी द्वितीय का सुल्तान बनना और बाद में उसी से भयभीत होकर गुजरात जाकर सहायता प्राप्त कर मेदिनीराय के विरुद्ध सैनिक अभियान करना, जिसका प्रत्युत्तर देने के लिये मेदिनीराय का राणा साँगा से सहायता प्राप्त करना था। इससे स्पष्ट है कि मालवा के उत्तराधिकार से उत्पन्न परिस्थितियाँ दोनों शासकों को युद्ध के मार्ग पर ले जा रही थी।

मेदिनीराय के सहायता प्राप्त करने हेतु मेवाङ जाने के बाद गुजरात की मुस्लिम सेना ने माण्डू दुर्ग पर भीषण आक्रमण कर मेदिनीराय के पुत्र तथा परिवार के अनेक सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया था, जिससे साँगा को असह्य आघात लगा। उसने सोचा कि यदि समय पर मेदिनीराय को सहायता दे दी जाती तो उसे यह सर्वनाश नहीं देखना पङता। अतः साँगा ने महमूद को उसके इस जघन्य अपराध का दंड देने का निश्चय कर लिया ताकि मेदिनीराय को कुछ मानसिक संतोष प्राप्त हो सके।

राणा साँगा ने मेदिनीराय के अनुरोध को स्वीकार कर मालवा पर सैनिक अभियान करना तो स्वीकार कर लिया, किन्तु उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पहले सारंगपुर चलकर वस्तु स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के बाद ही अगली कार्यवाही के संबंध में निर्णय लिया जायेगा। मार्ग में ही उसे यह सूचना मिल गयी कि माण्डू का पतन हो गया है। अतः उसने माण्डू जाने का विचार त्यागकर उत्तरी मालवा के कुछ क्षेत्रों को अधिकृत करने का निश्चय किया।

फारसी इतिहासकारों ने लिखा है कि जब राणा को माण्डू के हत्याकाण्ड की सूचना मिली तो वह उज्जैन से ही वापिस मेवाङ लौट गया। परंतु इस कथन में सत्यता नहीं है। साँगा सदैव परिस्थितियाँ देखकर बुद्धिमतापूर्ण कदम उठाता था। अतः इस समय मालवा और गुजरात की संयुक्त सेना से टक्कर लेना बुद्धिमानी की बात नहीं थी। ऐसी स्थिति में साँगा ने माण्डू की तरफ न जाकर उत्तरी मालवा के प्रसिद्ध दुर्ग गागरोण की तरफ प्रयाण किया।

गागरोण के दुर्ग से मालवा के अधिकारियों को खदेङ कर दुर्ग पर सांगा ने अपना अधिकार जमा लिया। गागरोण के इस नये विजितदुर्ग को मेदिनीराय को सौंप कर सांगा मेवाङ लौट आया। इस प्रकार साँगा माण्डू के पतन को तो नहीं रोक सका किन्तु मालवा के प्रसिद्ध दुर्ग गागरोण को जीतने में सफल रहा।

गागरोण का युद्ध

गुजरात की सहायता से माण्डू प्राप्त करने के बाद भी महमूद खलजी द्वितीय को मेदिनीराय का भय बना रहा, क्योंकि उसे विश्वास था कि मेदिनीराय अपने पुत्र और परिवार के सदस्यों की मौत का बदला लेकर रहेगा। अतः साँगा के लौटने के बाद वह मेदिनीराय की शक्ति को कुचलने के उद्देश्य से एक विशाल सेना लेकर गागरोण की ओर बढा। मेदिनीराय को इसकी सूचना मिलते ही उसने साँगा को सहायता देने की प्रार्थना की।

साँगा तत्काल ससैन्य मेदिनीराय की सहायता के लिये गागरोण की तरफ रवाना हुआ। महमूद खलजी द्वितीय गागरोण का घेरा डाले हुए था, लेकिन जब उसे साँगा के आने की सूचना मिली तो उसने दुर्ग का घेरा उठा लिया और साँगा से निपटने चल पङा। फरिश्ता के अनुसार महमूद ने अपने सेनानायकों की सलाह के विपरीत अपनी सेना को तत्काल साँगा की सेना पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। किन्तु निजामुद्दीन ने लिखा है कि मालवा की सेना को देखते ही सांगा ने अपनी सेना को तत्काल आक्रमण करने का आदेश दे दिया।

आक्रमण करने में पहल किसी ने भी की हो, दोनों पक्षों के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें साँगा को निर्णायक विजयश्री प्राप्त हुई। महमूद बुरी तरह से घायल होकर अपने घोङे से गिर पङा। महमूद को बंदी बना लिया गया। साँगा उसे अपने शिविर में लाया तथा स्वयं अपनी निगरानी में उसके घावों का उपचार करवाया। सुल्तान महमूद खलजी का रत्नजङित कमरबंद और ताज साँगा ने अपने अधिकार में ले लिये।

उसके बाद हाङौती और रणथंभौर की सीमाओं से लगे उत्तर-पूर्वी मालवा के कुछ क्षेत्र अधिकृत करने के बाद साँगा महमूद को लेकर चित्तौङ आ गया। महमूद लगभग छः महीने चित्तौङ दुर्ग में बंदी बनाकर रखा गया। जब महमूद के सभी घाव ठीक हो गये तब साँगा ने उसे ससम्मान मालवा भिजवा दिया। निजामुद्दीन ने लिखा है कि लङाई में फतह पाने के बाद दुश्मन को गिरफ्तार करके पीछे उसको राज्य दे देना, यह काम आज तक मालूम नहीं कि किसी दूसरे ने किया हो। परंतु मिराते सिकंदरी में लिखा है कि सांगा ने दूसरे मुस्लिम सुल्तानों के संभावित प्रतिशोध के भय से महमूद खिलजी को छोङ दिया था।

इस कथन पर शायद ही विश्वास किया जा सकता है क्योंकि साँगा ने तो राजपूतों की परंपरागत उदारता का अनुसरण करते हुये ही महमूद को मुक्त किया था।

ईडर पर आक्रमण

गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह के आदेशानुसार निजाम-उल-मुल्क ने भारमल को ईडर का राज्य दिलवा दिया था। रायमल पहाङों में भाग गया और भारमल के विरुद्ध छापामार युद्ध जारी रखा। निजाम-उल-मुल्क अपने अधिकारी को भारमल की सहायता के लिये छोङ वापिस लौट गया। उसके लौटते ही रायमल ने भीषण आक्रमण कर पुनः ईडर पर अधिकार कर लिया। इससे क्रुद्ध हो गुजरात के सुल्तान ने ईडर पर धावा बोल दिया।

रायमल पुनः पहाङों में भाग गया। सुल्तान ने मुबारिज-उल-मुल्क को ईडर सौंप दिया और स्वयं वापिस लौट गया। वीर-विनोद के लेखक श्यामलदास लिखते हैं कि लौटते समय सुल्तान ने एक जानवर का नाम साँगा रखकर उसे नगर के प्रवेश द्वार पर बाँध दिया। राणा साँगा को जब इसकी जानकारी मिली तो वह अपना अपमान न सह सका और उसने ईडर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया।

कुछ दंत-कथाओं के अनुसार मुबारिज-उल-मुल्क ने भरे दरबार में राणा साँगा के लिये बङे अपशब्द कहे, जिसकी जानकारी मिलने पर साँगा ने ईडर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। लेकिन ये सभी विवरण उचित प्रतीत नहीं होते । साँगा द्वारा ईडर पर आक्रमण करने का कारण शुद्ध राजनीतिक था। रायमल साँगा का कट्टर समर्थक था और साँगा की सहायता से ही उसने ईडर की गद्दी प्राप्त की थी। लेकिन गुजरात के सुल्तान ने उसे गद्दीच्युत कर दिया तो उसे पुनः ईडर की गद्दी पर बैठाना साँगा का नैतिक दायित्व था।

राणा साँगा एक विशाल सेना लेकर पहले सिरोही पहुँचा तथा यहाँ के शासक से बकाया खिराज वसूल कर डूँगरपुर की ओर बढा, जहाँ का शासक भी ससैन्य साँगा के साथ चल दिया। ईडर के मुस्लिम अधिकारी मुबारिज-उल-मुल्क ने साँगा के इस अभियान की सूचना गुजरात दरबार को भेजते हुये सहायता की याचना की।

किन्तु गुजरात दरबार की दलबंदी के कारण उसे समय पर कोई सहायता नहीं भेजी जा सकी। इसी बीच सांगा ईडर पहुँच गया। ईडर का राज्य राठौङ राजपूतों का राज्य होने के कारण मालवाङ का राठौङ शासक राव गंगा भी सेना सहित वहाँ पहुँच गया। राजपूतों की विशाल सेना देखकर भयभीत मुबारिज-उल-मुल्क ससैन्य गुजरात की तरफ भाग गया। ईडर पर सांगा का अधिकार हो गया और साँगा ने ईडर का राज्य रायमल को सौंप दिया। दूसरे दिन साँगा का अधिकार हो गया और साँगा ने ईडर का राज्य रायमल को सौंप दिया।

दूसरे दिन साँगा ने भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा किया और अहमदनगर पहुंच गया। राजपूत ख्यातों के अनुसार घमासान युद्ध के बाद अहमदनगर दुर्ग पर साँगा का अधिकार हो गया और मुबारिज-उल-मुल्क अहमदाबाद की तरफ भाग गया। साँगा आस-पास के क्षेत्रों को लूटता हुआ बङनगर और विशालनगर गया, फिर चित्तौङ लौट आया। फारसी इतिहासकारों के अनुसार राणा को अहमदनगर के बाहर लङाई में परास्त होकर लौटना पङा।

गुजरात के सुल्तान द्वारा आक्रमण

राणा साँगा द्वारा ईडर पर अधिकार करने तथा अहमदनगर की मुस्लिम सेनाओं की पराजय ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह द्वितीय को क्रुद्ध कर दिया और उसने मेवाङ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। तदनुसार सुल्तान ने एक विशाल सेना के साथ मलिक एयाज और किवा-उल-मुल्क को मेवाङ की तरफ भेजा। 1251 ई. के आरंभ में गुजराती सेना मोडेसा पहुँची, जहाँ से कुछ सैनिक दस्ते बागङ क्षेत्र को पदाक्रान्त करने भेजे गये।

इसी के साथ गुजराती सेना ने डूँगरपुर पर आक्रमण किया, जहां का रावल गज्जा गुजराती सेना से लङता हुआ मारा गया। डूँगरपुर में भयंकर लूटमार कर गुजराती सेना सागवाङा और बाँसवाङा होती हुई आगे बढी। यहाँ से बागङ के शासक रावल उदयसिंह तथा मेदिनीराय के परिवार के कुछ सदस्यों के प्रतिरोध का सामना करना पङा। उसके बाद गुजराती सेना मंदसौर की तरफ आगे बढी। मंदसौर साँगा का आश्रित राज्य था तथा यहाँ की शासन व्यवस्था के लिये साँगा ने अशोकमल परमार को नियुक्त किया था।

साँगा को गुजराती सैनिक अभियान की सूचना मिलते ही वह भी पूरी तैयारी के साथ मंदसौर की तरफ रवाना हुआ तथा मंदसौर से 25 मील दूर नन्दसा नामक स्थान पर अपना शिविर लगाया। उधर मलिक एयाज ने मंदसौर का घेरा डाल दिया। मालवा का सुल्तान महमूद खलजी द्वितीय भी गुजराती सेना की सहायतार्थ आ पहुँचा। कुछ दिनों के परिश्रम के बाद गुजरात की सेना दुर्ग की दीवारों को उङाने तथा प्रवेश योग्य मार्ग प्राप्त करने में सफल हो गयी।

परंतु दुर्ग रक्षक राजपूत चौकन्ने थे। अतः उनके भीषण प्रतिरोध के कारण गुजराती सेना दुर्ग में प्रवेश न कर सकी। इस समय एयाज और उसकी सेना में उचित तालमेल न होने के कारण एयाज को अधीनस्थ सेनानायकों का पूरा-पूरा सहयोग नहीं मिल पा रहा था। संभवतः उनमें पारस्परिक मनमुटाव चल रहा था। ऐसी स्थिति में साँगा ने कूटनीति का सहारा लिया और मालवा के सुल्तान को मालवा लौट जाने के लिये राजी कर लिया।

जिस समय साँगा ने महमूद खलजी को चित्तौङ से सस्मान मुक्त किया था उस समय उसके एक पुत्र को साँगा ने जमानत के तौर पर अपने पास रख लिया था। अतः इस समय साँगा ने महमूद को संदेश भिजवाया कि यदि वह वापिस लौट जाता है तो उसके पुत्र को उसके पास भिजवा दिया जायेगा। इस पर अब महमूद की युद्ध में कोई रुचि नहीं रही और वह वापिस लौट गया। इसके लौटते ही मलिक एयाज को अपनी निर्बल शक्ति का अनुभव हुआ और युद्ध में अपनी पराजय की संभावना देखकर वह भी वापिस लौट गया।

बिना युद्ध किये लौट आने के कारण मुजफ्फरशाह ने उसकी काफी भर्त्सना की तथा सभी ने उसे कायर कहकर अपमानित किया। मुस्लिम इतिहासकारों का कथन है कि राणा ने अपने पुत्र के साथ बहुमूल्य उपहार भिजवाकर गुजराती सेना को वापिस लौटा दिया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : सांगा

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