इतिहासराजस्थान का इतिहास

किशनगढ चित्रकला शैली का इतिहास

किशनगढ चित्रकला शैली – अन्य स्थानों की भाँति किशनगढ में भी प्राचीन काल में चित्र बनते रहे, लेकिन किशनगढ शैली का समृद्ध स्वरूप राजा सावंतसिंह (1699-1764 ई.) जो नागरीदास के नाम से विख्यात हुआ, के काल में दिखाई देता है। नागरीदास एक अच्छा कवि होने के साथ-साथ श्रेष्ठ चित्रकार भी था। शैली को समृद्ध बनाने में उसकी वैष्णव धर्म के प्रति श्रद्धा, कवि होने के कारण उसकी कल्पना-शक्ति एवं भावुकता और उसकी प्रेमिका बनी-ठनी का बङा योगदान था। कार्ल खंडालवाला का तो मानना है कि किशनगढ शैली का उद्भव और विकास हमें नागरीदास के काल से ही मानना चाहिए। किन्तु यह कथन उचित नहीं है। नागरीदास को निहालचंद नामक एक श्रेष्ठ चित्रकार मिल गया, जिसने नागरीदास और बनी-ठनी को ही राधा के रूप में चित्रित किया। फलस्वरूप राधा का यह स्वरूप एक ऐसा नमूना बन गया कि बाद में बनने वाले राधा के चित्र उसी नमूने के बनने लगे। नगारीदास और निहालचंद के चित्र स्वयं में एक शैली बन गये। किन्तु डॉ. फैयाजअली की मान्यता है कि नागरीदास और निहालचंद ने राधा के चित्र का एक नवीन नमूना तैयार कर लिया था जिसका पालन आगे भी होता रहा। राधा के चित्र बनी-ठनी के अनुरूप नहीं हैं। किशनगढ की राधा के चित्र में उसकी सुन्दर वेश-भूषा, नुकीली नाक, खंजन के समान आँखें, उभरा हुआ कोणीय चेहरा आदि एक नवीन सौन्दर्य के प्रतीक थे। निहालचंद की कलम में अलंकरण था, पारदर्शी रंग, पक्का रेखण और श्रेष्ठ वर्गीकरण द्वारा निहालचंद ने चित्रकला को मोहक कला के शिखर पर पहुँचा दिया। उसके चित्रों में कला, प्रेम और भक्ति का उद्भुत सामंजस्य दिखायी देता है। निहालचंद द्वारा प्रतिपादित शैली 19 वीं शताब्दी तक प्रचलित रही।

किशनगढ चित्रकला शैली

18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निहालचंद द्वारा बनाया गया कृष्ण-लीला का चित्र एक मौलिक एवं मनमोहक रचना है। जिसमें पेङ, फूलों और पानी के श्रेष्ठ रंगों का प्रयोग किया गया है जिससे चित्र में सजीवता उत्पन्न हो गयी है। चित्र में कृष्ण, दो गोपियों के गले में बाँहें डाले हुए हैं, अन्य चार गोपियाँ, कृष्ण की ओर बढती हुई तथा अन्य दो गोपियाँ पास में पेङ के नीचे बैठी कृष्ण की ओर अँगुली से इशारा करती हुई बतायी गयी हैं। संपूर्ण दृश्य में ऐसा प्रतीत होता है मानों सभी गोपियाँ यह दावा कर रही हों कि कृष्ण उनका है। इसी प्रकार का एक अन्य चित्र दीपावली का है, जिसमें कृष्ण और राधा अत्यन्त सुन्दर सिंहासन पर बैठे हैं तथा मध्य में एक गोपी नृत्य कर रही है। बाँयें व दाँयें चार-चार गोपियाँ खङी हैं, जिनमें कुछ के हाथ में तानपुरा है और कुछ के हाथ में फूलझङी छूटती दिखायी गयी हैं। पानी में दो बतखें तैर रही हैं और सारा चित्र मानों दीपावली की रोशनी से जगमगा रहा है। काले रंग की पृष्ठभूमि में सुनहरे रंगों का प्रयोग कर चित्र को अत्यन्त ही आकर्षक बनाया गया है।

मारवाङ चित्रकला शैली

इस प्रकार किशनगढ शैली के चित्रों के विषय ब्रज भाषा की कविताएँ हैं। इन चित्रों में प्राकृतिक दृश्य तो किशनगढ के प्राकृतिक दृश्यों के अनुरूप हैं, लेकिन वेश-भूषा फर्रुखशियर कालीन है। नहालचंद के बाद नंगराम और रामलाल नामक चित्रकारों ने भी इसी शैली का प्रयोग किया था। इस शैली में राधा की रूपाकृति बनी-ठनी की रूपाकृति के इतनी अनुरूप है कि आधुनिक विद्वानों में यह मतभेद उत्पन्न हो गया है कि अमुक चित्र में दिखायी गयी स्री बनी-ठनी है या राधा है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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