इतिहासराजस्थान का इतिहास

नमक व्यापार पर ब्रिटिश एकाधिकार

नमक व्यापार पर ब्रिटिश एकाधिकार – 18 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध राजस्थान के अधिकांश राज्यों के लिए, राजनीतिक उथल-पुथल और अराजकता के बावजूद, आर्थिक सम्पन्नता का युग था। उत्तरी और पश्चिमी राजस्थान के मरु भूमि वाले राज्यों को अपने व्यापारिक मार्गों से पर्याप्त आय होती थी। राजस्थान से नमक, अफीम, रुई आदि निर्यात किये जाते थे। पारगमन व्यापार पर लगने वाले करों और स्थानीय खपत वाले माल पर लगने वाले करों से राज्यों को पर्याप्त आय होती थी। किन्तु राजस्थानी राज्यों के साथ 1818 ई. की संधियों के बाद राजस्थान की समस्त आर्थिक गतिविधियाँ ही बदल गयी। ब्रिटिश सरकार ने अपने आर्थिक और औपनिवेशिक हितों को पूरा करने के लिये ऐसी नीतियों का अवलंबन किया, जिससे राजस्थान के आर्थिक जीवन में बहुत से परिवर्तन हुए। ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि राजस्थान के व्यापारिक मार्गों से जो पारगमन व्यापार होता था, वह अब ब्रिटिश क्षेत्रों से हो, ताकि ब्रिटिश सरकार की करों से होने वाली आय में वृद्धि हो जाय। इस नीति के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने भारतीय देशी रियासतों से ब्रिटिश क्षेत्रों में सामान के आने और जाने पर भारी कर लगा दिया इसका परिणाम यह हुआ कि पारगमन व्यापार की धारा सूखने लगी। तत्पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने राजस्थान के राज्यों को प्रलोभन देकर राज्यों में कुछ व्यापारिक दृष्टि से लाभप्रद उत्पादित वस्तुओं पर कंपनी का एकाधिकार स्थापित करने की नीति अपनाई। इसी नीति के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने राजस्थान के नमक एवं अफीम के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया था।

नमक-व्यापार

पृष्ठभूमि – राजस्थान में बहुत पुराने समय से नमक उद्योग के कई केन्द्र थे, जो स्थानीय माँग को पूरा करने के साथ-साथ आस-पास के प्रदेशों की माँग को भी पूरा करते थे। जोधपुर राज्य में साँभर झील के अलावा डीडवाना, पचपद्रा, फलौदी, नांवा, लूनी आदि स्थानों पर भी नमक तैयार किया जाता था। साँभर झील पर जोधपुर एवं जयपुर राज्यों का साझा अधिकार था। साँभर झील से तैयार किये जाने वाले नमक को साँभरी कहा जाता था और इसकी माँग उत्तर-प्रदेश हरियाणा और मध्य-प्रदेश में अधिक थी। पचपद्रा में तैयार किये जाने वाले नमक को कोसिया कहा जाता था और इसकी माँग राजपूताना और मध्य प्रदेश में अधिक थी। डीडवाना का नमक डीडू के नाम से प्रसिद्ध था और इसका निर्यात मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को किया जाता था। उदयपुर और भरतपुर में भी काफी मात्रा में नमक तैयार किया जाता था। नमक उद्योग से राजस्थान के कई राज्यों को काफी आय होती थी। कर्नल टॉड के अनुसार जोधपुर राज्य को पचपद्रा से दो लाख रुपये हजार रुपये वार्षिक आय होती थी। 1847 ई. में कर्नल सदरलैंड ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि जोधपुर राज्य को केवल साँभर झील से तीन लाख रुपये की वार्षिक आय होती है।

राजस्थान के राज्य नमक को आय का प्रमुख साधन नहीं मानते थे। इसलिए नमक कर बहुत ही कम था। यह नमक, उत्पादक, पारगमन व्यय तथा व्यापारिक लाभ की लागत पर बिकता था। इसलिए यह अत्यधिक सस्ता होता था और समस्त उत्तरी तथा मध्य भारत की नमक की आवश्यकताओं को पूरा करता था। इस नमक उद्योग से हजारों लोगों को रोजगार मिलता था। रेलों के निर्माण से पूर्व दूर-दूर तक नमक ले जाने का कार्य बनजारे लोग किया करते थे, जो नमक के बदले अन्य आवश्यकता की वस्तुओं को लाकर यहाँ के बाजारों को बेचते थे। इस प्रकार बनजारे एक साथ व्यापारी, मालवाहक तथआ वितरक का कार्य करते थे। बनजारे लोग सैकङों बैलों, छकङों तथा गधों पर नमक लाद कर प्रतिदिन 6 से 8 मील की औसत गति से अपना मार्ग तय किया करते थे। बनजारों के काफिलों में एक साथ 10,000 बैल तथा पशु हुआ करते थे। सामान्य बनजारे के पास 200 से 500 तक और सम्पन्न बनजारे के पास 1500 से 2000 तक माल ढोने वाले पशु होते थे। उनके सार्थवाह को स्थानीय भाषा में बालद कहा जाता था। इस प्रकार राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने से पूर्व यहाँ नमक व्यापार अत्यन्त ही सुव्यवस्थित एवं लाभप्रद था।

नमक उत्पादन पर ब्रिटिश एकाधिकार

बक्सर के युद्ध के बाद इलाहाबाद की संधि के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उङीसा की दीवानी का अधिकार प्राप्त हो गया था। इसके तत्काल बाद ही कंपनी के अधिकारियों ने बंगाल में नमक के उत्पादन पर नियंत्रण और उनके व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने की नीति का अवलंबन करना शुरू कर दिया था। यद्यपि कंपनी के संचालक मंडल ने इसकी अनुमति नहीं दी, फिर भी अँग्रेज अधिकारी नमक के उत्पादन पर कंपनी का एकाधिकार स्थापित करने के इच्छुक थे। उस समय कंपनी का मुख्य उद्देश्य इंग्लैण्ड के लिवरपूल के नमक उत्पादकों के हितों की रक्षा करके उन्हें लाभ पहुँचाना था, अर्थात् पूर्वी भारत में उत्पादित नमक को महँगा करना ताकि लिवरपूल से आने वाला नमक उसकी तुलना में सस्ता बेचा जा सके। कंपनी प्रशासन बंगाल के नमक से होने वाली आय को सुरक्षित रखना चाहता था और यह तभी संभव था, जबकि राजस्थान का नमक, जो अपेक्षाकृत बहुत सस्ता तथा करों से अधिकांशतः मुक्त होता था, बंगाल नमक के प्रतिस्पर्द्धा में न आये। कंपनी का दूसरा उद्देश्य कंपनी के राजस्व में वृद्धि करना था। परंतु अपनी सत्ता के प्रारंभिक काल में अँग्रेज अधिकारियों के लिये इस नीति का पूरी तरह से पालन करना संभव नहीं था। क्योंकि राजस्थान में नमक उत्पादन क्षेत्रों पर उसका नियंत्रण नहीं था और साँभरी नमक किसी न किसी मार्ग से पूर्वी भारत की मंडियों में पहुँच ही जाता था। अतः अँग्रेज अधिकारियों की दृष्टि राजस्थान के नमक उत्पादन स्रोतों पर थी। भरतपुर में ब्रिटिश एजेण्ट वाल्टर ने अपनी सरकार को नमक उत्पादन को आय का प्रमुख साधन बनाने का सुझाव दिया। भरतपुर सरकार 13 लाख मन से अधिक नमक उत्पादन पर तीन लाख रुपये की आय प्राप्त करती थी। वाल्टर ने लिखा कि यदि भरतपुर राज्य में समस्त उत्पादित नमक बेचा जाय तो इससे 40 लाख रुपये से अधिक प्रतिवर्ष आय हो सकती है। वाल्टर का यह सुझाव ब्रिटिस सरकार की नीति से मेल खाता था।

राजस्थानी राज्यों पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने के बाद कंपनी ने राजस्थान के नमक उद्योग पर अपना एकाधिकार कायम करने का प्रयत्न किया। इस दिशा में सर्वप्रथम 1835 ई. में कदम उठाया गया, जबकि कंपनी सरकार ने बकाया खिराज वसूली की ओट में जयपुर और जोधपुर राज्यों से साँभर झील को अपने नियंत्रण में ले लिया। तत्पश्चात् 1838 ई. में पुनः बकाया खिराज की वसूली के लिये जोधपुर राज्य के नांवा और गुढा के नमक उत्पादक क्षेत्रों को भी कंपनी ने अपने नियंत्रण में ले लिया। सन् 1856 ई. में तत्कालीन चुँगी कमिश्नर वेन्सीटार्ट ने कंपनी सरकार को सुझाव दिया कि यदि राजस्थान के सभी राज्यों के साथ समझौता करके नमक-उत्पादक क्षेत्रों का नियंत्रण प्राप्त करके नमक पर एक नियमित चुँगी पद्धति लागू की जा सके तो काफी लाभप्रद रहेगा। किन्तु 1857 ई. में क्रांति हो जाने के कारण राजनैतिक स्थिति में परिवर्तन आ गया। भारत में कंपनी की सत्ता समाप्त हो गयी तथा भारत की सत्ता का दायित्व प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश ताज ने ग्रहण कर लिया। अतः राजस्थान के नमक-उत्पादक क्षेत्र कुछ वर्षों के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण से बचे रहे। स्थिति के सामान्य होते ही 1868 ई. में भारत सरकार के अवर सचिव ने पुनः सुझाव दिया कि जोधपुर और जयपुर के साथ समझौता करके यदि नमक-उत्पादक क्षेत्रों पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित किया जा सके तो बहुत लाभप्रद रहेगा। इसी समय के आस-पास वाल्टर ने भी अपना सुझाव भारत सरकार के पास भेजा था।

इस समय रेलों का निर्माण हो ही रहा था तथा वाल्टर ने सुझाव दिया कि रेल लाइन को नमक उत्पादक केन्द्रों से होकर निकाला जाय। अतः ब्रिटिश सरकार ने राजस्थान के नमक उत्पादन स्रोतों पर नियंत्रण स्थापित करने की योजना बनाई। सार्वजनिक रूप से ब्रिटिश सरकार ने नमक उत्पादन पर नियंत्रण करने का प्रमुख कारण साँभर नमक को सस्ता उपलब्ध कराना बताया। किन्तु उनका नमक उत्पादन पर नियंत्रण करने का यह औचित्य सर्वथा मिथ्या था, क्योंकि साँभर नमक केवल अँग्रेजों द्वारा लगाये गये नमक-कर के कारण ही महँगा हुआ था। अँग्रेजों ने जयपुर और जोधपुर राज्यों पर दबाव डालकर 1869-70 ई. में इन राज्यों से नमक संधियाँ कर साँभर झील पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। जयपुर का सवाई रामसिंह पूरी तरह अँग्रेजों के प्रभाव में था और वह अँग्रेजों को किसी कार्य के लिये मना नहीं कर सकता था। सवाई रामसिंह का प्रधानमंत्री फैजअली भी पूरी तरह अँग्रेज भक्त था। जोधपुर के महाराजा तखतसिंह ने नमक संधि इसिलए स्वीकार की थी कि ब्रिटिश सरकार उसके प्रशासन से संबंधित अधिक प्रश्न न पूछे अर्थात् नमक संधि से वह अपने राज्य में कुशासन की स्वतंत्रता चाहता था।

जयपुर और जोधपुर राज्यों के साथ साँभर नमक-संधियाँ, कुछ छोटी-छोटी बातों को छोङकर, काफी अंशों में एक जैसी थी। जयपुर राज्य ने साँभर झील की सीमा में नमक बनाने, बेचने तथा उस पर कर लगाने के अपने अधिकार को अँग्रेजों को पट्टे पर दे दिया। इसके साथ ही अँग्रेजों द्वारा बनाये जाने वाले नमक पर पारगमन अथवा किसी अन्य प्रकार के कर लगाने का अपना अधिकार भी त्याग दिया। जयपुर राज्य ने केवल उस 1,72,000 मन नमक पर कर लगाने का अधिकार रखा, जो अँग्रेज जयपुर राज्य में बेचने के लिये 56 पैसे प्रति मन के हिसाब से देंगे। इन सबके बदले में ब्रिटिश सरकार ने जयपुर राज्य को 1 लाख 25 हजार रुपये पट्टे का किराया तथा 1 लाख 50 हजार रुपये कर न लगाने की क्षतिपूर्ति देना स्वीकार कर लिया। संधि में यह भी तय किया गया कि यदि वार्षिक निर्यात अथवा बिक्री 8 लाख 15 हजार मन से अधिक होगी तो अधिक नमक के बिक्री मूल्य पर 20 प्रतिशत रायल्टी जयपुर राज्य को दी जायेगी। इसके अतिरिक्त जयपुर दरबार को 7,000 मन नमक प्रतिवर्ष घरेलू खर्च के लिये मुफ्त स्वीकार किया गया। जयपुर दरबार ने भी अपने तत्कालीन स्टॉक में से 5 लाख 10 हजार मन नमक निःशुल्क अँग्रेजों को दे दिया। यदि स्टॉक इससे अधिक हो तो शेष नमक को 40 पैसे प्रति मन के हिसाब से दे दिया। फरवरी1879 ई. में एक अन्य संधि द्वारा सवाई रामसिंह ने 1,72,000 मन नमक को, जो राज्य की प्रजा के लिये सस्ता मिलता था, 4 लाख रुपये वार्षिक के बदले छोङ दिया।

जोधपुर राज्य ने भी अपना साँभर का आधा भाग 1 लाख 25 हजार रुपये तथा 7,000 मन नमक राजघराने के निजी खर्च के बदले में पट्टे पर दे दिया। जोधपुर राज्य को तो वह क्षतिपूर्ति भी नहीं मिली, जो जयपुर राज्य को पारगमन कर के बदले दी गयी थी, क्योंकि सारा नमक जयपुर राज्य से होकर ही गुजरता था। इस संधि के तीन महीने बाद 18 अप्रैल, 1870 को एक अन्य संधि द्वारा जोधपुर राज्य ने नांवा और गुढा के नमक स्रोतों को भी अँग्रेजों को पट्टे पर दे दिया। अँग्रेजों ने नांवा और गुढा में उत्पादित नमक में से 7,000 मन नमक निःशुल्क और तीन लाख रुपया वार्षिक मुआवजा देना स्वीकार कर लिया। जोधपुर और जयपुर राज्यों ने अँग्रेजों को जो पट्टा दिया, वह स्थायी था, अर्थात् इन राज्यों को यह पट्टा वापिस लेने का अधिकार नहीं था। केवल अँग्रेज दो वर्ष का नोटिस देकर यह पट्टा वापिस कर सकते थे।

इन संधियों द्वारा अँग्रेजों ने साँभर के आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के घरों की तलाशी लेने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। जो लोग अनधिकृत रूप से नमक बनायेंगे उन्हें अँग्रेज बंदी बना सकते थे तथा साँभर साल्ट न्यायालय द्वारा उन्हें दंडित किया जा सकता था। उत्पादित नमक का भाव निर्धारित करने का अधिकार भी अँग्रेजों के पास सुरक्षित रहा। इस प्रकार इन तीनों नमक संधियों द्वारा जोधपुर और जयपुर राज्यों ने अपने नमक के असीमित भंडारों को चुटकी भर आय के लिए बेच दिया। फलस्वरूप नमक जैसी साधारण वस्तु अब सामान्य किसान के लिये भी महँगी हो गयी। इन संधियों का सर्वाधिक घातक प्रभाव भरतपुर के नमक उद्योग पर पङा, क्योंकि भरतपुर में कुओं से जो खारा नमक बनाया जाता था, वह साँभर नमक की उच्चस्तरीय गुणवत्ता के कारण साँभर नमक के सामने नहीं टिक सका। फलस्वरूप भरतपुर के व्यापारी, जिन्होंने खारा नमक में धन लगा रखा था, दिवालिया होने की स्थिति में पहुँच गये। ये संधियाँ ब्रिटिश सरकार के नमक उत्पादन एवं व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई। साँभर, नांवा और गुढा के नमक स्रोतों पर कौङियों के बदले नियंत्रण प्राप्त कर लेने से अँग्रेजों की महत्वाकांक्षा बढ गयी।

जयपुर और जोधपुर राज्यों से नमक संधियाँ करने के बाद अब किसी भी राज्य में इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि ब्रिटिश नमक नीति के विरुद्ध खङा हो सके। आगे चलकर 1879-82 के बीच राजस्थान के सभी राज्यों के साथ नमक संधियाँ की गयी, जो 1869-70 की संधियों की पूरक मात्र थी। लेकिन 1869-70 ई. में ब्रिटिश सरकार केवल अपने प्रभाव का अथवा इन राज्यों की विवशता का लाभ उठा रही थी, जबकि 1879-82 के बीच जो नमक संधियाँ की गयी व एक दृढ नीति के आधार पर की गयी थी। अँग्रेज राजस्थान के प्रत्येक राज्य के नमक व्यापार को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे, ताकि उनके एकाधिकार के मार्ग में कोई रुकावट न बन सके। अब ब्रिटिश नमक नीति के मुख्य रूप से तीन उद्देश्य बन गये – 1.) प्रत्येक प्रकार के नमक तथा खारे नमक के उत्पादन पर नियंत्रण स्थापित करना, 2.) किसी भी ऐसे नमक को जिस पर ब्रिटिश नमक कर नहीं चुकाया गया हो, व्यापार का माध्यम न बनने देना। 3.) किसी भी राज्य में जितना भी नमक हो, उस नमक पर कर लगाने का अधिकार प्राप्त करना। इसलिए ब्रिटिश सरकार राजस्थानी राज्यों के समक्ष या तो उनके राज्य के नमक स्रोतों को खरीदने का प्रस्ताव करती या फिर उस पर ब्रिटिश नमक कर वसूल करना चाहती थी।

जोधपुर राज्य के पास 1870 ई. की नमक संधि के बाद भी नमक के प्रचुर स्रोत थे, जैसे – डीडवाना, पचपद्रा, लूनी, फलौदी आदि के नमक-उत्पादक क्षेत्र। अतः 1878 ई. में जोधपुर राज्य से एक अन्य संधि द्वारा डीडवाना, पचपद्रा, लूनी और फलौदी के समस्त नमक उत्पादक क्षेत्रों का नियंत्रण प्राप्त कर लिया। 1882 ई. तक राजस्थान के समस्त राज्यों के साथ भी समझौता करके उनके समस्त नमक उत्पादक केन्द्रों पर ब्रिटिश सरकार ने अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया और इसके बदले में राज्यों को वार्षिक मुआवजा दे दिया गया। मेवाङ राज्य से हुए समझौते के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने राज्य को 1,000 मन नमक निःशुल्क व 1,25,000 मन नमक आधी दर से तथा 40,800 रुपये वार्षिक मुआवजा देना स्वीकार कर लिया।

सभी राज्यों से किये गये समझौतों के अनुसार सभी राज्यों ने अपने-अपने क्षेत्रों में नमक का उत्पादन पूरी तरह बंद कर दिया तथा इस निषेधाज्ञा का उल्लंघन दंडनीय अपराध घोषित किया गया। जयपुर, किशनगढ, भरतपुर, अलवर और धौलपुर के राज्यों ने तो अपने-अपने राज्य से संबंधित किसी भी वस्तु के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया। यहाँ तक कि कल्मी शोरे का उत्पादन भी बंद कर दिया। प्रत्येक राज्य को उस नमक पर किसी भी प्रकार का कर, चुँगी, पारगमन शुल्क लगाने से मना कर दिया, जिस पर ब्रिटिश नमक-कर चुकाया जा चुका हो। जिस नमक पर ब्रिटिश नमक-कर न दिया गया हो, ऐसे नमक का आयात और निर्यात भी बंद कर दिया गया। यदि किसी राज्य में व्यापारियों के पास नमक कर चुकाने के लिए कहेगी या एक निश्चित भाव से अँग्रेजों को बेचने के लिए कहेगी। राज्यों से हुए समझौतों के द्वारा सभी राज्यों में नमक उत्पादन बंद करवा दिया और इसके बदले में इन राज्यों तथा सामंतों को चुटकी भर क्षतिपूर्ति दे दी गयी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक शासक को उसके पारिवारिक उपभोग के लिये निर्धारित मात्रा में नमक देना भी तय किया गया। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर तथा सिरोही राज्यों को कुछ मात्रा स्थानीय जनता के उपभोग के लिये रियायती दर पर देना भी तय किया गया। रियायती दर पर नमक इसलिए दिया गया ताकि इन नमक संधियों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 22 लाख रुपये से अधिक वार्षिक धन देकर लगभग 57 से 65 लाख मन उत्पादन के स्रोतों पर अधिकार कर लिया, जिससे ब्रिटिश सरकार को लगभग दो करोङ रुपये वार्षिक नमक कर से आय होने लगी। पूर्वी राजस्थान में नमक ढाई गुणा और पश्चिमी राजस्थान में चार गुणा अधिक महँगा हो गया।

नमक एकाधिकार नीति के परिणाम

राजस्थान के राज्यों के साथ नमक समझौते संपन्न हो जाने के बाद नमक के ब्रिटिश एकाधिकार को किसी अन्य उत्पादन स्रोत से कोई भय नहीं रहा। राजस्थान की जनता के लिये अब एक सामान्य उपभोग की वस्तु अत्यधिक महँगी हो गई। वाल्टर के सुझाव पर ब्रिटिश सरकार ने नमक उत्पादन केन्द्रों को रेल मार्गों से जोङ दिया, जिनसे बनजारा समूह अपनी रोजी-रोटी से वंचित हो गया। क्योंकि उनमें से अधिकांश की जीविका निर्वाह का मुख्य साधन नमक का निर्यात ही था। इस समझौते के फलस्वरूप खारी और शोरे के उत्पादन पर प्रतिबंध लग गया, जिसका बुरा प्रभाव सूती कपङे की छपाई, ऊन की रंगाई, चमङे के काम के कुटीर उद्योगों पर पङा। क्योंकि इन उद्योगों में शोरे का काफी मात्रा में उपयोग किया जाता था। भारत का कल्पी शोरा इतनी उत्तम क्वालिटी का होता था कि उसके जैसा यूरोप के किसी देश में नहीं बनता था। इस शोरे के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाकर औद्योगिक विकास की संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया। शोरे के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने के पीछे संभवतः यह भावना भी रही कि राजस्थानी नरेश भविष्य में इसका प्रयोग बारूद उत्पादन में न कर सकें। मजे की बात तो यह है कि ब्रिटिश प्रान्तों में शोरे के उत्पादन पर इस प्रकार के प्रतिबंध नहीं थे। जैसे राजस्थान पर लगाये गये थे। अतः अब राजस्थान के व्यवसायियों को बाहर से शोरे का आयात करना पङा, जिससे ब्रिटिश सरकार की आय में वृद्धि हुई तथा स्थानीय उत्पादन की वस्तुओं के दामों में वृद्धि हुई। नमक उद्योग में लगे हजारों मजदूर बेकार हो गये, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने नमक बनाने का काम कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने साँभर नमक स्रोत पर अपना एकाधिकार स्थापित करने का औचित्य बताते हुए कहा था कि साँभर नमक स्रोत पर नियंत्रण करने का उद्देश्य सामान्य जनता को सस्ता नमक उपलब्ध कराना था, जो अधिक अच्छे ढंग से नमक उत्पादन और परिवहन की सुविधा से संभव हो सकेगा। लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तुत यह औचित्य सर्वथा बेबुनियाद है। क्योंकि भारत में कहीं भी नमक का मूल्य बढने का कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाया गया नमक कर ही था। ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक उत्पादन पर एकाधिकार स्थापित करने से पूर्व बनजारे नमक को अत्यन्त ही सस्ते दामों पर बेचते थे।

राजस्थान के शासकों द्वारा अपने प्राकृतिक साधनों को इतनी सरलता से ब्रिटिश सत्ता को सौंपना, उनकी सामान्य जनते के हितों के प्रति उदासीनता का द्योतक था। नमक संधियों से राजस्थान में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन नई शोषणात्मक नीति का श्रीगणेश हुआ। जोधपुर राज्य से हुई नमक संधियों के बाद जोधपुर राज्य को भीषण आर्थिक परेशानियाँ उठानी पङी, जिसका वास्तविक कारण महाराजा तखतसिंह की धन लोलुपता, असीमित हरम और अवैध संतान था, न कि जोधपुर के मरु प्रदेश होने के कारण। जयपुर के सवाई रामसिंह को जयपुर के आधुनिकीकरण का श्रेय दिया जाता है, लेकिन वास्तव में वह जनता को निर्धनता और कुटीर उद्योगों को विनाश की ओर धकेलने में सहायक हुआ। वस्तुतः इन शासकों ने संधियों और समझौतों के दूरगामी परिणामों को नहीं समझा तथा उन्होंने एक विचित्र हीन भावना का प्रदर्शन करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता के समक्ष घुटने टेक दिये। राजस्थानी शासकों ने राज्य के आर्थिक हितों की बलि चढाने में जरा भी संकोच नहीं किया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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