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कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां एवं चरित्र

कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था

फख्रे मुदब्बिर के अनुसार जब मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गौरी (1205-6ई.) में खोखरों को हराकर गजनी वापस लौट रहा था तो उसने औपचारिक रूप से ऐबक को अपने भारतीय ठिकानों का प्रतिनिधि नियुक्त किया। उसे मलिक का पद प्रदान किया गया था और उसे वली-अहद या उत्तराधिकारी घोषित किया गया। परंतु मुइज्जुद्दीन गौरी की मृत्यु के बाद ऐबक को जिन कठिनाइयों का सामना करना पङा, उनसे स्पष्ट है कि उसने अपने उद्यम और सैनिक उपलब्धियों के बल पर ही अपनी स्थिति को प्राप्त किया था।
कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास

मुइज्जुद्दीन गौरी अपनी आकस्मिक मृत्यु के कारण अपने उत्तराधिकारी के संबंध में संभवतः निश्चित निर्णय नहीं ले पाया था। उसके कोई बेटा नहीं था और अपने कुटुंब के किसी व्यक्ति या गोर के किसी जनजातीय सरदार पर वह विश्वास नहीं करता था। उसे अपने शासन की एकता बनाए रखने के लिये और शासन व्यवस्था स्थापित करने के लिये भी समय नहीं मिला था। ऐसी स्थिति में अपनी सल्तनत की रक्षा के लिये वह केवल अपने दासों पर विश्वास करता था। मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार उसने एक बार कहा था कि अन्य सुल्तानों के एक बेटा हो सकता है या दो, मेरे अनेक हजार बेटे हैं, अर्थात् मेरे तुर्की गुलाम, जो मेरे राज्यों के उत्तराधिकारी होंगे, और जो मेरे बाद उन राज्यों के खुत्बे में मेरा नाम सुरक्षित रखेंगे।

मुइज्जुद्दीन ने अपने अन्य तुर्क दास अधिकारियों को ऐबक के व्यापक नियंत्रण में नहीं रखा। शायद वह भारतीय सल्तनत में अपने ही अधीन स्वतंत्र अधिकारियों की प्रशासन व्यवस्था स्थापित करना चाहता था। जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके प्रमुख विश्वासपात्रों में से तीन की, अर्थात् ताजुद्दीन यल्दूज, नासिरुद्दीन कुबाचा और कुतुबुद्दीन ऐबक की स्थिति एकस्मात थी। अतः इन तीनों में सत्ता के लिये संघर्ष होना अनिवार्य था और योग्यतम व्यक्ति ही उसकी सल्तनत प्राप्त कर सकता था। ऐबक मुइज्जुद्दीन के विश्वासपात्रों में सबसे योग्य साबित हुआ और वही उसका वास्तविक उत्तराधिकारी बना। परंतु एक स्वतंत्र शासक के रूप में उसे बहुत समय के बाद मान्यता मिली। गजनी, गोर और बामियान की राजनीतिक समस्याओं के कारण ऐसा संभव हुआ। ऐबक अनौपचारिक रूप से 25 जून, 1206 ई. को गद्दी पर बैठा परंतु उसकी सत्ता को औपचारिक मान्यता और संभवतः नियुक्ति पत्र तीन वर्ष बाद मुइज्जुद्दीन के वैध उत्तराधिकारी महमूद से प्राप्त हुआ। अतः इन वर्षों में उसे मलिक और सिपहसालार की पदवी ही प्राप्त रही थी। संभवतः इसीलिए वह अपने नाम के सिक्के प्रचलित नहीं कर सका। तभी तो अभी तक उसका कोई भी सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है।

सन् 1206 ई. में भारत में गोरियों के अधीन मुल्तान, उच्छ, नहरवाला, पुरशोर, सियालकोट, लाहौर, तबरहिंद, तराईन, अजमेर, हाँसी, सुरसुती, कुहराम, मेरठ, कोल, दिल्ली, धनकिर, बदायूँ, ग्वालियर, मीरा, बनारस, कन्नौज, कालिंजर, अवध, मालवा, बिहार तथा लखनौती शामिल थे। परंतु इनमें से कुछ जगहों पर उसका नियंत्रण शिथिल पङ गया था। अतः ऐबक ने नए प्रदेशों को जीतने की अपेक्षा जीते हुए प्रदेशों की सुरक्षा की ओर ध्यान देना आश्यक समझा। राज्य की अनिश्चित सीमाओं को निश्चित रूप देना और उसके प्रशासनिक संगठन पर ध्यान देना वह अधिक उचित समझता था। यह बहुत जरूरी था कि मुइजी अमीर और मलिक उसकी प्रभुसत्ता को मानें। प्रारंभ में उसने यल्दूज और कुबाचा के साथ समझौता करना उचित समझा।

भारतवर्ष में ऐबक के जीवन को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है –

  • 1192 ई. से 1206 ई. तक – मुइज्जुद्दीन के प्रतिनिधि के रूप में वह उत्तरी भारत के कुछ भागों का शासक था।
  • 1206 से 1208 ई. तक – 1206 से 1208 ई. तक वह गोरी की भारतीय सल्तनत का मलिक या सिपहसालार था।
  • 1208 से 1210 ई. तक – 1208 से 1210 ई. तक वह एक स्वतंत्र भारतीय राज्य का औपचारिक अधिकार प्राप्त शासक था। उसके शासन का प्रथम काल सैनिक गतिविधियों से पूर्ण था, दूसरा राजनयिक कार्यों में व्यतीत हुआ और तीसरा दिल्ली सल्तनत का मानचित्र निर्मित करने में। कुतुबुद्दीन का राजत्व राजनीतिक विचारों पर आधारित था। विजय और युद्ध उसको प्रेरणा देने वाले राजनीतिक तत्व थे। परंतु वह केवल लगातार जीतने को ही काफी नहीं समझता था। राजनीतिक ढाँचे को शक्तिशाली बनाए रखने के लिये आवश्यक था कि जो प्रदेश उसने जीते हैं, उन्हें सुरक्षित और संगठित रखा जाए। वह एक कुशल सैनिक था। ग्यासुद्दीन महमूद यल्दूज और कुबाचा के प्रति उसकी नीति उसकी राजनीतिक कुशलता का प्रमाण है। उसने उनके विरुद्ध हर समय शक्ति का प्रदर्शन न कर नर्मी और विनय से ही काम लिया, जो उस समय की अनिश्चित परिस्थिति में महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।

भारतवर्ष में ऐबक की उपलब्धियाँ एक विजेता की थी परंतु वह अपने दिल और दिमाग की विशेषताओं के लिये समकालीन इतिहासकारों द्वारा सराहा भी गया है। न्यायप्रियता और सुरक्षा की भावना उसके राज्य की विशेषताएँ थी। जनता को शांति और समृद्धि देना उसने अपना कर्तव्य समझा था। युद्ध की स्थिति खत्म होने के बाद उसने जनता के हितों की रक्षा की और उनकी समृद्धि की ओर ध्यान दिया। डॉ. हबीबुल्ला के अनुसार – उसमें तुर्कों की निर्भीकता और फारसियों की परिष्कृत अभिरुचि पाई जाती थी। उसकी उदारता के कारण उसे लाख बख्श (लाखों का दान करने वाला) कहा गया और आने वाले समय में किसी भी उदार व्यक्ति की तुलना ऐबक की उदारता से की जाती थी। 1210 ई. में घोङे से गिरकर ऐबक की मृत्यु हो गयी और वह अपने कार्यों को अधूरा ही छोङ गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक की समस्याएँ

  • अमीरों की समस्या – ऐबक जब गद्दी पर बैठा तो अमीर उसे अपना शासक स्वीकार करने में आनाकानी कर रहे थे। यल्दौज, कुबाचा, खिलजी सरदार उसे अपना सुल्तान नहीं मान रहे थे।
  • हिन्दू राज्य
  • सीमा प्रांतों की समस्या
  • सामंत व अधिकारी
  • अशांति एवं अव्यवस्ता

कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां

  • तुर्की सरदारों का सहयोग
  • यल्दोज का दमन एवं गजनी से संबंध विच्छेद
  • बंगाल के अलीमर्दान द्वारा अधीनता स्वीकार करना – मुहम्मद बख्तीयार खिलजी की मृत्यु के बाद अलीमर्दान खां बंगाल का स्वतंत्र शासक बन बैठा था। खलजी सरदारों के आपसी झगङों के कारण अलीमर्दान वहाँ से भागकर ऐबक की शरण में चला गया । ऐबक ने इसको बंगाल का सूबेदार बनाया।
  • निर्माण कार्य – ऐबक को स्थापत्य कला से भी लगाव था। इसने उत्तर भारत में पहली मस्जिद “कुव्वत उल इस्लाम” का निर्माण करवाया जो विष्णु मंदिर के स्थान पर बनवाई गई है। यह मस्जिद दिल्ली में है।अजमेर में संस्कृत विद्यालय के स्थान पर “ढाई दिन का झोंपङा” का निर्माण करवाया तथा सूफी संत “कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी” की याद में कुतुबमीनार का निर्माण प्रारंभ करवाया जिसको  इल्तुतमिश ने पूरा करवाया।

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