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कुम्भलगढ का युद्ध

कुम्भलगढ का युद्ध

कुम्भलगढ का युद्ध – खोये हुये प्रदेशों पर अधिकार करने के बाद राजा भगवंत दास ज्यों ही वापिस मुङा, राणा प्रताप ने उन क्षेत्रों में नियुक्त मुगल अधिकारियों पर धावे मारने शुरू कर दिये। मुगल सेनानायक मिजाहिद बेग ने प्रताप के सैनिकों का डटकर सामना किया, परंतु इस संघर्ष में वह पराजित हुआ और लङता हुआ मारा गया।

इस घटना से क्रोधित होकर अकबर ने शाहबाजखाँ के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना प्रताप के विरुद्ध भेजी 15 अक्टूबर, 1577 ई. को शाहबाजखाँ ने कूच किया। उसने राणा प्रताप की मौजूदा राजधानी कुम्भलगढ को अधिकृत करने की योजना बनाई।

सर्वप्रथम उसने कुम्भलगढ की तलहटी में आबाद केलवाङा कस्बे पर आक्रमण करके उस पर अधिकार जमाया। इसके बाद उसने कुम्भलगढ दुर्ग पर धावे मारने शुरू किये। थोङे-थोङे दिनों के अंतराल पर के बाद चार बार सैनिक दस्ते भेजे गये। परंतु हर बार असफल होकर वापिस लौटना पङा।

दूसरी तरफ दुर्ग में रसद की कमी से प्रताप की स्थिति नाजुक बनती जा रही थी, अतः दुर्ग की सुरक्षा का भार भान सोनगरा को सौंप कर रात्रि के अंधकार में वह दुर्ग से सुरक्षित निकल गया और शीघ्र ही रणकपुर पहुँच गया। वहाँ से अपने परिवार तथा विश्वस्त साथियों के साथ चावण्ड चला गया।

प्रताप के जाने के बाद दूसरे दिन दुर्गरक्षक दुर्ग के द्वार खोलकर मुगलों पर टूट पङे। अधिकांश दुर्गरक्षक मारे गये और 3 अप्रैल, 1578 ई. को कुम्भलगढ के दुर्ग पर मुगल सेना का अधिकार हो गया। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद यह उनकी उल्लेखनीय उपलब्धि रही।

कुम्भलगढ का युद्ध

अपनी सफलता से उत्साहित शाहबाजखाँ ने कुम्भलगढ की सुरक्षा का भार गाजीखाँ को सौंपकर राणा प्रताप का पीछा किया। उसने एक ही दिन में गोगुन्दा तथा उदयपुर दोनों पर अधिकार कर लिया, परंतु प्रताप का कहीं पता न चला। शाहबाजखाँ के सहायक फरीदखाँ ने चावण्ड को भी जीत लिया, परंतु वहाँ भी राणा नहीं मिला।

राणा प्रताप ने उदयपुर से दक्षिण में स्थित छप्पन के पहाङी क्षेत्र को अपना केन्द्र बना लिया था और वहीं से मुगल अधिकृत मेवाङी क्षेत्र तथा सीमावर्ती मालवा के शाही क्षेत्रों में लूटमार करने लगा था। मई, 1578 ई. में शाहबाजखाँ वापिस लौट गया और उसके लौटते ही प्रताप ने गोगुन्दा सहित अनेक महत्त्वपूर्ण चौकियों पर अपना अधिकार जमा लिया।

अतः 15 दिसंबर, 1578 को अकबर ने शाहबाजखाँ को दुबारा मेवाङ भेजा। इस बार वह तीन महीने तक मेवाङ में रहा। उसके आते ही राणा प्रताप पुनः पहाङों की ओर चला गया। शाहबाजखाँ ने अधिकांश महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कब्जा कर अपनी सैनिक चौकियाँ बैठा दी परंतु इस बार भी वह प्रताप तक न पहुँच पाया।

6 अप्रैल 1579 ई. को शाहबाजखाँ मेवाङ से फतेहपुर सीकरी चला गया। उसके लौटते ही प्रताप पुनः सक्रिय हो उठा और मेवाङ में मुगलों की व्यवस्था लङखङाने लग गयी। तब अकबर ने तीसरी बार शाहबाजखाँ को मेवाङ भेजा। इस बार शाहबाजखाँ ने राणा प्रताप का निरंतर पीछा किया जिससे प्रताप तथा उसके परिवार को काफी कष्ट उठाने पङे। मई, 1580 ई. में अकबर ने शाहबाजखाँ को मेवाङ से वापिस बुला लिया।

उसके लौटते ही प्रताप अपने परिवार सहित चूलिया नामक गाँव में आ बसा। यहाँ पर प्रताप की मुलाकात अपने मंत्री भामाशाह और उसके भाई ताराचंद से हुई। ये दोनों भाई मालवा के सीमावर्ती इलाकों में लूटमार के लिये गये हुये थे। लूटमार से प्राप्त बीस हजार स्वर्ण मुद्राएँ उन्होंने राणा को अर्पित कर दी जिससे उसकी आर्थिक स्थिति में थोङा सुधार हुआ और इसी कारण प्रताप ने भामाशाह का बङा सम्मान भी किया।

1580 ई. के अंत में अकबर ने अब्दुरर्हीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया तथा उसे मेवाङ अभियान का दायित्व सौंपा। खानखाना ने अपने परिवार को शेरपुर में ठहरा कर मेवाङ पर धावा बोल दिया। परंतु कुँवर अमरसिंह ने शेरपुर पर अचानक धावा मारकर खानखाना के परिवार को जिसमें उसकी बेगमें भी थी, बंदी बना लिया।

जब प्रताप को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने पुत्र अमरसिंह को खानखाना के परिवार के सदस्यों को तत्काल सम्मान सहित वापिस पहुँचाने का आदेश दिया। खानखाना को मेवाङ अभियान में कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। इसके विपरीत मेवाङ में स्थित मुगल चौकियों पर प्रताप के धावे बढते गये।

दिसंबर, 1581 ई. के बाद खानखाना फतेहपुर सीकरी में ही जमा रहा। उसकी अनुपस्थिति में प्रताप को अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर मिल गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : कुम्भलगढ का युद्ध

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