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गिरि सुमेल का युद्ध

गिरि सुमेल का युद्ध

गिरि सुमेल का युद्ध (battle of giri sumel)

गिरि सुमेल का युद्ध

गिरि सुमेल का युद्ध – मालदेव की शक्तिशाली सेना से शेरशाह घबरा गया परंतु उसने अपना मानसिक संतुलन कायम रखा। राजपूतों के संभावित आक्रमण से बचने की दृष्टि से उसने अपने शिविर को मजबूत बनाया। शिविर के चारों तरफ खाइयाँ खोदी गयी और जहाँ खाइयाँ बनाना संभव नहीं था वहाँ रेत के बोरों से रक्षा प्राचीरें बना ली गयी।

शेरशाह ने मालदेव को गुमराह करने की दृष्टि से आगरा से कुछ सैनिक दस्ते और बुला लिये और उन्हें आदेश दिया कि वे अजमेर पर आक्रमण करने का दिखावा करें। शायद शेरशाह ने सोचा हो कि वे अजमेर पर आक्रमण करने की सूचना मिलने पर मालदेव या तो अजमेर की तरफ बढेगा अथवा उस पर सीधा आक्रमण करेगा।

इससे स्पष्ट है कि शेरशाह अपनी तरफ से पहले आक्रमण नहीं करना चाहता था। दूसरी तरफ मालदेव भी पहले आक्रमण करना नहीं चाहता था। अतः वह भी अपने स्थान पर डटा रहा और अपने शिविर की सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक कदम उठाये। तारीखे-शेरशाही से पता चलता है कि लगभग एक मास तक दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खङी रही।

इस स्थिति में मालदेव को विशेष कठिनाई न थी, क्योंकि वह अपने ही राज्य की सीमा में शिविर लगाये हुए था और सेना के लिये रसद और पानी जुटाना उसके लिए मुश्किल नहीं था। इसके विपरीत शेरशाह के लिये इस स्थिति में अधिक दिनों तक बने रहना संकटप्रद था। अनजान शत्रु और स्थान पर सेना के लिये रसद जुटाना तथा अन्य बातों की व्यवस्था करना सरल काम न था।

सुमेल से दिल्ली काफी दूर थी और अब यहाँ से हटना अथवा कोई अन्य सुरक्षा स्थल ढूँढना भी खतरे से खाली न था। मालदेव के विरुद्ध सफलता मिल जायेगी इसकी निश्चित संभावना भी न थी। ऐसी स्थिति में शेरशाह ने कुटिल युक्ति से राजपूतों में फूट डालने का निश्चय किया।

नैणसी लिखता है कि शेरशाह के आदेशानुसार मेङता के वीरमदेव ने मालदेव के सरदार कूँपा तथा जेता दोनों के पास 20-20 हजार रुपये भिजवाये। कूँपा से कंबल खरीदने का और जेता से सिरोही की तलवारें खरीदने का अनुरोध किया गया। उसी के साथ मालदेव को सूचित किया गया कि उसके सरदारों ने शेरशाह से घूस लेकर युद्ध के समय उसका साथ देने का आश्वासन दिया है।

एक अन्य साक्ष्य से पता चलता है, कि शेरशाह ने मालदेव के सरदारों की तरफ से अपने नाम के कुछ जाली पत्र तैयार करवाये जिनका आशय यह था कि शेरशाह को किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिये और युद्ध के दौरान हम लोग मालदेव को पकङकर आपकी सेवा में उपस्थित कर देंगे। इन पत्रों को मालदेव के डेरे के पास रखवा दिया गया, जो थोङे समय बाद ही मालदेव के हाथों में पहुँच गये।

शेरशाह ने चाहे जिस युक्ति से काम किया हो, मालदेव अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। उसका अपने सरदारों पर से विश्वास उठ गया और वह अपने प्रमुख सरदारों से सलाह लिये बिना ही अचानक रात्रि के अँधेरे में अपनी मुख्य सेना सहित युद्ध क्षेत्र से भाग निकला। परंतु कूँपा और जेता जिन पर विश्वास किया गया था, अपने सैनिक दस्तों के साथ वहीं डटे रहे। शेरशाह की इस कुटिल चाल के बारे में तत्कालीन स्रोत एकमत नहीं हैं।

राजस्थानी स्रोतों के अनुसार इस प्रकार की संपूर्ण योजना का श्रेय मेङता के वीरमदेव को है, जबकि फारसी तवारीखों में इसका श्रेय शेरशाह को दिया गया।

मालदेव के भाग जाने के बाद बचे हुये राजपूत सरदारों ने अपने सैनिकों के साथ शेरशाह की सेना पर जोरदार आक्रमण किया। शेरशाह को अपने गुप्तचरों के माध्यम से राजपूतों की आपसी फूट तथा मालदेव के पलायन की सूचना मिल चुकी थी और वह अपने शिविर को उखाङ कर सात मील पीछे हट गया था।

राठौङ राजपूतों का आक्रमण इतना जबरदस्त रहा कि शेरशाह की सेना के पैर उखङने लगे। परंतु उसके भाग्य से उसका एक सेनानायक जलालखाँ जुलानी ठीक समय पर नई सेना के साथ आ पहुँचा जिससे थके हुये राजपूत सैनिक चारों तरफ से घिर गये और उनमें से अधिकांश लङते हुये वीरगति को प्राप्त हुए। शेरशाह ने शुरू में तो युद्ध जीतने की आशा ही छोङ दी थी। वह युद्ध के दौरान ही नमाज पढने लगा और ईश्वर से अपनी सफलता के लिये दुआ माँगने लगा।

इससे उसका तथा उसके सैनिकों का नैतिक बल बढा। राठौङ सैनिकों के पराक्रम और त्याग को देखकर युद्ध के बाद शेरशाह के मुँह से अनायास ही ये शब्द निकल पङे – मैंने एक मुठ्ठी भर बाजरा के लिये करीब-करीब दिल्ली का राज्य खो दिया होता। वास्तव में यदि उसे मालदेव की संपूर्ण सेना से लङना पङा होता तो युद्ध के निर्णय के बारे में कहना कठिन होता। वह जीत भी जाता तो भी उसे प्राणघातक धक्का लग सकता था।

गिरि सुमेल का युद्ध जनवरी, 1544 ई. में लङा गया। इस युद्ध में राजपूतों की पराजय का मुख्य कारण तो मालदेव का अपनी मुख्य सेना सहित युद्ध के पूर्व ही पलायन कर जाना था। बचे हुए 12,000 अथवा 20,000 सैनिकों के लिये शेरशाह जैसे सुयोग्य सेनानायक के नेतृत्व में लङ रहे 80,000 सैनिकों को परास्त करना दुष्कर काम था।

इसके अलावा, राजपूतों के पास अफगानों के शक्तिशाली तोपखाने का कोई जबाव नहीं था। अफगानों की अश्वारोही सेना भी राजपूत घुङसवारों से श्रेष्ठ थी और राजपूतों ने घोङों से उतरकर पैदल युद्ध लङा था। इस पर भी उन्होंने अपने जोरदार आक्रमण से शेरशाह की सेना में खलबली मचा दी थी। यदि शेरशाह को ठीक समय पर जलालखाँ जुलानी की सहायता न मिली होती तो युद्ध का निर्णय बदल भी सकता था।

डॉ.कानूनगो ने इस युद्ध को मारवाङ के भाग्य के लिये एक निर्णायक युद्ध माना है। उनके अनुसार यह युद्ध मालदेव को बहुत महँगा पङा। जेता और कूँपा जैसे सुयोग्य एवं पराक्रमी सेनानायकों के साथ लगभग आठ-दस हजार राजपूत सैनिकों को खो देने से मालदेव की सैनिक शक्ति काफी कमजोर हो गयी।

डॉ.गोपीनाथ शर्मा के शब्दों में, इस युद्ध के बाद राजपूतों के वैभव और स्वतंत्रता का अध्याय समाप्त हो जाता है, जिसके पात्र पृथ्वीराज चौहान, हम्मीर चौहान, महाराणा कुम्भा, महाराणा साँगा और मालदेव थे। यहाँ से एक आश्रितों के इतिहास का आरंभ होता है, जिसके पात्र वीरमदेव, कल्याणमल, मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, अजीतसिंह आदि थे। शेरशाह सूरी और राजपूत राज्य का इतिहास

गिरि-सुमेल-युद्ध की सफलता के बाद, शेरशाह ने अपनी एक सेना मालदेव का पीछा करने के लिये भेज दी। वह स्वयं अजमेर की तरफ बढा और उस पर अपना अधिकार कायम करने के बाद मेङता आया और वीरमदेव को मेङता सौंप दिया। इसके बाद शेरशाह नागौर की तरफ बढा और वहाँ से बीकानेर गया।

कल्याणमल को बीकानेर का राज्य सौंपकर वह नागौर होता हुआ जोधपुर की तरफ बढा। उसके पूर्व मालदेव स्थिति को प्रतिकूल समझकर सिवाना के पर्वतीय भाग में चला गया। मामूली संघर्ष के बाद जोधपुर पर शेरशाह का अधिकार हो गया। शेरशाह ने जोधपुर राज्य का प्रबंध ख्वाजाखाँ और ईसाखाँ नियाजी को सौंपा और स्वयं चित्तौङ की तरफ बढ गया। उसके चित्तौङ पहुँचने के पूर्व ही चित्तौङ के राणा की तरफ से दुर्ग की चाबियाँ तथा अधीनता स्वीकार करने का संदेश शेरशाह को मिला। इससे संतुष्ट होकर शेरशाह वापिस लौट गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : गिरि सुमेल का युद्ध

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