इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्ग

राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्ग – राजस्थान की स्थापत्य कला का जनक राणा कुंभा को माना जाता है । मुगल काल में राजस्थान की स्थापत्य कला पर मुगल शैली का प्रभाव पडा । हिन्दू कारीगरों ने मुस्लिम आर्दशों के अनुरूप जो भवन बनाए, उन्हें सुप्रसिद्ध कला विशेषज्ञ फर्ग्युसन ने इंडो-सारसेनिक शैली की संज्ञा दी है ।

राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्ग

चित्तौङ का दुर्ग

चित्तौङ का दुर्ग – अजमेर-खंडवा रेलमार्ग पर स्थित चित्तौङगढ रेलवे स्टेशन से लगभग दो मील दूर ऊँची पहाङी पर मेवाङ राज्य का प्रसिद्ध दुर्ग बना हुआ है जिसे चित्रकूट अर्थात् चित्तौङगढ कहते हैं। यह दुर्ग मेवाङी वीरों और वीरांगनाओं के बलिदान की भावना का प्रतीक है, जो समुद्र की सतह से लगभग 1850 फुट ऊँचा, लगभग तीन मील लंबा और लगभग आधा मील चौङा है। इस दुर्ग में बस्तियाँ, मंदिर और महलों के भग्नावशेष दिखाई देते हैं।

राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्ग

इसमें जलाशय और खेती योग्य भूमि भी है ताकि शत्रु द्वारा दुर्ग को घेर लेने पर खाद्य सामग्री का अभाव न रहे। इस दुर्ग का निर्माता कौन था, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना निश्चित है कि 8 वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह दुर्ग मोरीवंशी राजा भीम के अधिकार में था। इस भीम का उत्तराधिकारी मान हुआ जिसे चित्रंगमोरी भी कहते हैं और इसी के नाम से यह दुर्ग चित्रकूट कहलाया। बाद में यह दुर्ग गुहिल राजवंश के अधिकार में आ गया था…अधिक जानकारी

रणथंभौर का दुर्ग

राजस्थान के प्राचीनतम ऐतिहासिक दुर्गों में रणथंभौर का दुर्ग भी सर्वाधिक प्रसिद्ध है। रणथंभौर का सुदृढ दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता था। यह दुर्ग दिल्ली-बम्बई रेल मार्ग पर स्थित सवाईमाधोपुर रेलवे जंक्शन से लगभग 13 किलोमीटर दूर, अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ एक पहाङी पर स्थित है। यद्यपि यह दुर्ग ऊँची पहाङी के पठार पर निर्मित किया गया है, लेकिन प्रकृति ने इसे अपनी गोद में इस तरह भर लिया कि दुर्ग के दर्शन मुख्य द्वार पर पहुँचने पर ही हो सकते हैं। लेकिन दुर्ग की ऊँची प्राचीरों से आक्रान्ताओं पर मीलों दूर से दृष्टि रखी जा सकती है। यह दुर्ग चारों ओर वनों से आच्छादित है। इस दुर्ग के निर्माता और निर्माण तिथि के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि इस दुर्ग का निर्माण 944 ई. में चौहान राजा रणथान देव ने बनवाया था और उसी के नामानुसार इसका नाम रणथम्भपुर रखा गया जो कालांतर में रणथंभौर हो गया। एक किंवदंती के अनुसार यह दुर्ग चंदेल राजपूत राव जेता ने बनवाया था। अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि 8 वीं शताब्दी के लगभग महेश्वर के शासक रंतिदेव ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था…अधिक जानकारी

कुम्भलगढ का दुर्ग

कुम्भलगढ का दुर्ग – उदयपुर से लगभग 60 मील दूर सादङी ग्राम के पास, मेवाङ और मारवाङ की सीमा पर कुम्भलगढ का दुर्ग स्थित है। इस दुर्ग को महाराणा कुम्भा ने सूत्रधार मंडन नामक शिल्पी के तत्त्वाधान में बनाया था। गिरि दुर्ग होने के कारण इसे कुम्भलमेरु या कुम्भलमेर भी कहते हैं। चारों ओर से पहाङियों एवं घाटियों से घिरा होने तथा मेवाङ और मारवाङ की सीमा पर स्थित होने के कारण इसका सामरिक महत्त्व भी अधिक था। शत्रु के आक्रमण के समय मेवाङ का राजपरिवार, प्रजा तथा राजकीय संपत्ति ने इसी दुर्ग में सुरक्षा प्राप्त की थी। महाराणा कुम्भा ने इसका निर्माण कार्य वि.सं. 1495 से वि.सं. 1505 के मध्य कभी करवाया था और यह चैत्र शुक्ला 13, वि.सं. 1515 में पूरी तरह बनकर तैयार हुआ था…अधिक जानकारी

लोहागढ किला

लोहागढ़ क़िला भरतपुर, राजस्थान में स्थित एक प्रसिद्ध किला है। राजस्थान शौर्य और वीरता की गाथाओं से भरा हुआ है। राजपूतों के शौर्य और वीरता के आगे मुगलों और ब्रिटिशों ने घुटने टेक दिए थे। राजस्थान के राजपूतों के इसी शौर्य को यहां के दुर्गों ने एक असीम ताकत दी। भरतपुर का लोहागढ़ दुर्ग भी ऐसा ही दुर्ग है, जिसने राजस्थान के जाट शासकों का वर्षों तक संरक्षण किया। छह बार इस दुर्ग को घेरा गया, लेकिन आखिर शत्रु को हारकर पीछे हटना पड़ा। लोहे जैसी मज़बूती के कारण ही इस दुर्ग को ‘लोहागढ़’ या ‘आयरन फ़ोर्ट’ कहा गया।

लोहागढ़ दुर्ग राजस्थान के प्रवेशद्वार भरतपुर में स्थित है। यह दुर्ग भरतपुर के जाट शासक सूरजमल द्वारा निर्मित कराया गया था। महाराजा सूरजमल एक शक्तिशाली और समृद्ध शासक थे। उन्होंने कई दुर्गों का निर्माण कराया। दुर्गों के इतिहास पर नजर डाली जाए तो लोहागढ़ सबसे मजबूत किला नजर आएगा। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने इस दुर्ग की चार बार घेराबंदी की, लेकिन हर बार उन्हें घेरा उठाना पड़ा।

सन 1805 ई. में ब्रिटिश जनरल लॉर्ड लेक ने बड़ी सेना लेकर इस दुर्ग पर हमला कर दिया था। यह उसका दूसरा प्रयास था, लेकिन फिर भी वह दुर्ग हासिल नहीं कर सका और उसे 3000 सैनिक खोने के बाद राजा से समझौता कर पीछे हटना पड़ा।

आमेर के राजप्रासाद

आमेर के राजप्रासाद – कछवाहों की प्राचीन राजधानी आमेर के स्थापत्य में दुर्ग स्थापत्य तथा राजप्रासादों के स्थापत्य का सुन्दर सम्मिश्रण मिलता है। आमेर के कछवाहा शासकों ने धीरे-धीरे अपनी आवश्यकता के अनुरूप यहाँ गढ, परकोटा, बुर्ज, मंदिर, जलाशय और राजप्रासादों का निर्माण करवाया। आमेर के राजप्रासाद स्थापत्य की दृष्टि से राजस्थान के सर्वाधिक सुन्दर राजप्रासादों में माने जाते हैं। इसका निर्माण कार्य राजा मानसिंह ने आरंभ करवाया था, जो मिर्जा राजा जयसिंह के काल में पूर्ण हुआ था। ऊँची पहाङी पर बने राजप्रासाद, चारों ओर से सुदृढ दीवारों से सुरक्षित किये गये हैं तथा दुर्ग के दोनों ओर पहाङियों की कतार आ जाने से यह और भी अधिक सुरक्षित हो गया है ऊपर के भाग को चारों ओर से बंद करके नीचे से आने वाले आक्रमणकारी का मुकाबला किया जा सकता था। नीचे का भाग इतना तंग है कि शत्रु ऊपर तक तोपें आदि नहीं ले जा सकता और ऊपर तक अपने शस्रों का प्रयोग नहीं कर सकता। इसके पूर्वी भाग में बने जलाशय के पास दलाराम बाग है, जिसमें बने फव्वारे, छतरियाँ व बँगले इसकी शोभा बढाते हैं। इसकी सजावट मुगल शैली की है, किन्तु भवनों के मेहराब और छज्जे बंगाली शैली के हैं। दुर्ग पर बना हुआ संपूर्ण ढाँचा हिन्दू शैली का है। मुख्य द्वार के आगे वाले चौक को जलेब चौक कहते हैं। इस चौक में हाथी, घोङे, फौज आदि का निरीक्षण किया जाता था और इसी चौक में घुङदौङ भी हुआ करती थी, जिसे ऊपर के दालान में बैठकर देखा जा सकता था। इसी शैली के चौक उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर व सिरोही के राजप्रासादों में देखे जा सकते हैं। चौक की समाप्ति पर दूसरा मुख्य द्वार आता है जो सिंहपोल कहलाती है। यह द्वार अत्यन्त ही भव्य और कलात्मक है, जिसके स्थापत्य में हिन्दू शैली दिखाई देती है, लेकिन बाहर की चित्रकला उत्तर मुगलकालीन प्रतीत होती है…अधिक जानकारी

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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