आधुनिक भारतइतिहासविश्व का इतिहास

जर्मनी का एकीकरण

जर्मनी का एकीकरण

जर्मनी का एकीकरण (1815-1870)

18 वीं सदी के अंत में जर्मनी 300 से अधिक छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था। यद्यपि नेपोलियन ने जर्मनी की शक्ति को नष्ट करना चाहा, किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से उसने जर्मनी के एकीकरण की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। नेपोलियन बोनापार्ट ने जर्मनी के 300 से अधिक स्वतंत्र राज्यों के स्थान पर 39 राज्यों का एक संघ बनाकर जर्मनी की राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके परिणामस्वरूप जर्मनी में एकता की भावना उत्पन्न हुई।

वस्तुतः नेपोलियन के कार्यों के द्वारा जर्मनी के राज्यों में स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न हुई। वस्तुतः नेपोलियन के कार्यों के द्वारा जर्मनी के राज्यों में स्वतंत्रता की भीवना का विकास हुआ था।

जर्मनी का एकीकरण

वियना कांग्रेस ने 39 राज्यों का एक विशाल परिसंघ बनाया। आस्ट्रिया का सम्राट इस परिसंघ का अध्यक्ष बना। इस परिसंघ की एक राष्ट्रसभा या डाइट बनाई गई, जिसमें जर्मन रियासतों के शासकों द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। यद्यपि इस राष्ट्रसभा को बहुत से अधिकार दिये गये थे, किन्तु इस पर आस्ट्रिया का पूर्ण प्रभाव तथा आस्ट्रिया और प्रशा की पारस्परिक ईर्ष्या के कारण यह कोई निर्णायक कार्यवाही नहीं कर सकती थी।

इसके अलावा जर्मनी के विभिन्न राज्य अपने अधिकारों में कमी भी नहीं होने देना चाहते थे। वस्तुतः 1815 से 1850 तक जर्मनी में आस्ट्रिया की ही प्रधानता रही।

1815 से 1862 तक जर्मनी के एकीकरण के मार्ग में अनेक बाधाएँ उत्पन्न होती गयी, अतः इस अवधि में जर्मनी एकीकरण के मार्ग की ओर अत्यन्त ही मंद गति से बढा। 1862 में बिस्मार्क प्रशा का चान्सलर बना जिसके कुशल नेतृत्व में जर्मनी एकीकरण के मार्ग की ओर बङी ही तीव्र गति से बढा तथा उसी के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण पूरा हुआ, अतः जर्मनी के एकीकरण के अध्ययन को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं।

प्रथम तो बिस्मार्क के पहले जबकि एकीकरण की गति बङी मंद रही तथा द्वितीय बिस्मार्क के चान्सलर बनने के बाद जबकि एकीकरम की गति तीव्र हो गयी।

बिस्मार्क के पूर्व जर्मनी का एकीकरण (1815-60)

फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप जर्मनी में राष्ट्रीयता एवं उदारवाद की विचारधारा फैल रही थी, किन्तु उसकी गति अत्यन्त ही मंद थी। प्रोफेसर लिप्सन ने इस मंद गति के निम्नलिखित कराण बताए हैं।

जर्मनी का एकीकरण

मानसिक थकान

नेपोलियन के युद्धों के कारण जर्मनी की जनता सैनिक शांति स्थापना के इच्छुक थे, क्योंकि दीर्घकालीन युद्धों के कारण सैनिक और जनता न केवल शारीरिक थकान ही महसूस कर रही थी बल्कि मानसिक थकान भी अनुभव कर रही थी। मानसिक थकान को दूर करने के लिये वे विश्राम चाहते थे। ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रीयता एवं उदारवाद की विचारधारा तीव्र गति से विकसित न हो सकी।

सुधारवादियों में मतभेद

जर्मनी में जो भी सुधारवादी थे, उनमें मैतक्य का अभाव था। वे जर्मनी में वे सुधारों के लिये अनेक प्रकार की योजनाएँ बनाते थे, किन्तु अपने कार्यक्रम के संबंध में वे एकमत नहीं थे। कुछ सुधारवादी दल आस्ट्रिया के परंपरागत गौरव की अवहेलना करना ही नहीं चाहते थे तो कुछ प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी की शक्ति को संगठित करना चाहते थे। कुछ सुधारवादी जर्मनी के सभी राज्यों को हटाकर एक गणराज्य की स्थापना का स्वप्न देख रहे थे। इसके अलावा जर्नी के राजनैतिक दलों के नेतोओं में अनुभव का भी अभाव था।

जर्मनी की जनता में भी सम्मान रूप से राष्ट्रीय जागृति विकसित नहीं हो पाई थी, इसलिये जर्मनी की संपूर्ण जनता संयुक्त जर्मनी की आवश्यकता ही अनुभव नहीं कर रही थी। केवल शिक्षित वर्ग और कुछ उच्च कुल के लोगों में ही राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान थी। जर्मनी के विभिन्न राज्य भी अपनी-अपनी डफली से अपना-अपना राग अलापते थे।

कुछ राज्य प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण के पक्ष में थे तो कुछ राज्य सामंतवादी विचारों के प्रबल पोषक थे। जर्मनी की आंतरिक समस्या बङी विकट थी। कुछ राजनैतिक दल फ्रांसीसी क्रांति से प्रभावित थे, तो कुछ क्रांतिकारी विचारों के घोर शत्रु थे। इन परिस्थितियों के कारण जर्मनी में राष्ट्रीय एकीकरण की भीवना का विकास अत्यन्त ही मंद रहा।

प्रतिक्रियावादी शासन

वियना कांग्रेस के निर्णय द्वारा जर्मनी पर आस्ट्रिया का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित किया गया था, अतः मेटरनिख ने जो आस्ट्रिया का चान्सलर था, नवीन विचारधारा को कुचलने का निश्चय कर लिया था। उसने जर्मनी को पूर्ण नियंत्रण में रखने के लिए घोर प्रतिक्रियावदी नीति का अवलंबन किया। उसने कार्ल्सबाद के आदेशों के द्वारा जर्मनी में पूर्ण रूप से प्रतिक्रियावादी व्यवस्था स्थापित कर दी।

इन आदेशों के अनुसार प्रत्येक राज्य से शासक का एक विशेष प्रतिनिधि प्रत्येक विश्वविद्यालय में नियुक्त किया जाता था, जो इस बात का ध्यान रखता था कि वहाँ सरकार की इच्छानुसार कार्य संपादन हो रहा है या नहीं ? वह शिक्षकों और छात्रों पर कठोर निगाह रखता था। उदार एवं राष्ट्रीय विचारों के शिक्षकों को पदच्युत करने की व्यवस्था की गयी।

गुप्त समितियों तथा समाचार पत्रों पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये। इसके अलावा एक जाँच आयोग स्थापित किया गया, जो क्रांतिकारी समितियों का पता लगाता था। प्रशा भी इस काम में मेटरनिख की नीतियों का समर्थक बना रहा तथा जर्मनी के छोटे-छोटे राज्य भी मेटरनिख की इच्छानुसार शासन चलाते थे।

1848 तक मेटरनिख के प्रभाव के कारण जर्मनी में प्रगतिशील विचारों को विकसित होने का अवसर ही नहीं मिला। फ्रांस की 1830 की क्रांति के फलस्वरूप जर्मनी की कुछ रियासतों में क्रांति का प्रसार हुआ, किन्तु आस्ट्रिया, प्रशा और रूस के सम्मिलित प्रयासों से क्रांतिकारियों को कुचलकर पुनः प्रतिक्रियावादी सत्ता स्थापित कर दी गयी। उसके बाद 1833 से 1847 के बीच जर्मनी में कोई सुधारवादी आंदोलन नहीं हुआ।

आस्ट्रिया और प्रशा का द्वेष

आस्ट्रिया और प्रशा में पारस्परिक द्वेष भी था। इन दोनों में पारस्परिक द्वेष इस बात को लेकर था, कि जर्मनी का नेतृत्व किसके हाथ में रहे। आस्ट्रिया जर्मनी का नेतृत्व इसलिये करना चाहता था कि जर्मनी में राष्ट्रीय भावनाओं को कुचला जा सके, क्योंकि उसे भय था, कि यदि जर्मनी राष्ट्रीयता के सिद्धांत के आधार पर एक हो गया तो यह महामारी आस्ट्रिया के साम्राज्य में भी फैल जाएगी।

इसलिये मेटरनिख चाहता था, कि जर्मनी को इतना कमजोर रखा जाये कि वहां उदारवाद की विचारधारा उत्पन्न न हो और यह तभी संभव था, जबकि जर्मनी के विभिन्न राज्य विभाजित रहें। इसके विपरीत प्रशा चाहता था, कि राष्ट्रीयता के सिद्धांत के आधार पर जर्मनी को संगठित किया जाय औैर इस संगठित जर्मनी का नेतृत्व प्रशा करे।

उपर्युक्त कारणों से जर्मनी के एकीकरण की गति धीमी रही, किन्तु इस काम में कुछ ऐसी प्रवृत्तियों का विकास भी हो गया था, जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को गतिशील बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीयता और एकीकरण की विचारधारा के प्रसार में निम्नलिखित तत्व प्रमुख रूप से सहायक रहे-

बौद्धिक जागृति

जर्मनी के साहित्यकारों और लेखकों ने जर्मन राष्ट्रीयता की भावनाओं को जागृत किया। जर्मनी के कवियों, दार्शनिकों तथा इतिहासकारों ने जर्मनी के प्राचीन गौरव पर प्रकाश डालकर राष्ट्रीय एकता की भीवना को गति प्रदान की। फिक्टे ने अपने एड्रेसेज टू द जर्मन पीपुल के द्वारा जर्मन जाति को प्रभावित किया । हीगल ने शक्ति पर आधारित राज्य पर अपने विचार प्रकट किए।

डालमेन, राके, बोमर आदि इतिहासकारों ने प्राचीन इतिहास की छानबीन करके जर्मन इतिहास को एक नए रूप में प्रस्तुत किया। हेनरिक हाइन व अर्नड्ट जैसे कवियों ने राष्ट्रियता के गीत गाकर जनता में जोश भरा। बर्लिन, बॉन, लिप्जिग तथा कुछ अन्य विश्वविद्यालय राष्ट्रीय जागृति के प्रमुख केन्द्र बन गये। इससे जर्मन जनता की राष्ट्रीय भावना को नवीन प्रेरणा प्राप्त हुई।

आर्थिक क्षेत्र में सहयोग

जर्मनी के सभी राज्यों की चुँगी चौकियाँ अलग-अलग थी और व्यापारियों को जगह-जगह चुँगी देनी पङती थी। इससे वाणिज्य और व्यापार में बङी असुविधा होती थी। यद्यपि प्रशा ने 1819 में श्वासबर्ग के छोटे-से राज्य से सीमा शुल्क संबंधी संधि की थी तथा ऐसी ही संधि के लिये अन्य राज्यों को भी प्रोत्साहित किया था, किन्तु उनके पारस्परिक मतभेदों के कारण 1834 से पूर्व प्रशा का कोई प्रयत्न सफल नहीं हुआ।

धीरे-धीरे उनके मतभेद समाप्त हो गये तथा 1834 से पूर्व प्रशा का कोई प्रयत्न सफल नहीं हुआ। धीरे-धीरे उनके मतभेद समाप्त हो गये तथा 1834 में 18 जर्मन राज्यों को मिलाकर जालवरिन नामक एक आर्थिक संघ की स्थापना की गयी । यह आर्थिक संघ भी प्रशा के नेतृत्व में स्थापित हुआ।

इस संघ में सम्मिलित होने वाले राज्यों ने यह निश्चय किया कि संघ के सदस्य राज्य माल का स्वतंत्र व्यापार करेंगे तथा एक दूसरे के माल पर चुँगी नहीं लेंगे। 1850 तक संपूर्ण जर्मनी के राज्य इस आर्थिक संघ में सम्मिलित हो गये। आरंभ में मेटरनिख ने इस संघ के परिणामों को नहीं समझा, किन्तु जब उसे इस बात का आभास होने लगा कि इस आर्थिक सहयोग से जर्मनी की एकता का मार्ग प्रशस्त हो रहा है तब उसने इस आर्थिक संघ को विरोध किया, किन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली।

जर्मनी के एकीकरण के इतिहास में जालवरिन की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण कदम था। आर्थिक दृष्टि से जर्मनी एक हो गया। अब एक राज्य के लोग दूसरे राज्य में आने-जाने लगे तथा देशभक्तों के विचारों का आदान-प्रदान होने से राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला।

जालवरिन की स्थापना से अब प्रशा, जर्मन राज्यों का नेता बन गया। प्रसिद्ध विद्वान फाइफ ने लिखा है, कि इस संघ को यद्यपि किसी प्रकार का राजनैतिक रूप नहीं दिया गया था, किन्तु परस्पर आर्थिक हितों की रक्षा के लिये इसमें राजनैतिक एकता का बीजारोपण हो चुका था। इसी प्रकार केटलबी ने लिखा है, जालवरिन की स्थापना ने भविष्य में प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के राजनैतिक एकीकरण का मार्ग तैयार कर दिया। वस्तुतः जर्मनीकरण की ओर यह प्रथम कदम था, जिससे व्यापारिक हितों की आधारशिलाओं पर राष्ट्रीयता का भव्य महल खङा किया गया। अब प्रशा भी जर्मनी के संगठन का कार्य सम्पन्न करने में सक्षम हो गया था।

1848 की क्रांति का प्रभाव

1848 की फ्रांसीसी क्रांति तथा वियना से मेटरनिख के पलायन की सूचना प्राप्त होते ही जर्मनी की विभिन्न रियासतों में विद्रोह उठ खङे हुये तथा इन राज्यों में राष्ट्रीयता के समर्थकों ने निरंकुश एवं प्रतिक्रियावादी शासकों के विरुद्ध संघर्ष आरंभ कर दिया। प्रारंभ में विद्रोहियों को सफलता मिली।

अधिकांश जर्मन राज्यों में वैध राजसत्ता स्थापित हो गयी तथा उदार मंत्रिमंडलों की नियुक्तियाँ हुई। वैधानिक शासन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मान्यता प्राप्त हुई। प्रशा में विद्रोह का स्वरूप अधिक उग्र था। प्रशा के शासक फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ को भी उदार संविधान स्वीकार करना पङा, किन्तु कुछ समय बाद फ्रेडरिक विलियम ने पुनः निरंकुशता की नीति अपनाई।

1848 के आरंभ में जर्मनी के राष्ट्रवादियों ने जर्मनी का एक संघ बनाने के उद्देश्य से एक राष्ट्रीयता संसद आमंत्रित की, जिसका अधिवेशन फ्रेंकफर्ट में हुआ। इस संसद में जर्मनी के राज्यों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए तथा जर्मन संघ का संविधान तैयार करने लगे। वस्तुतः यह राष्ट्रीय संसद जर्मन एकता की प्रतीक थी तथा जर्मन जनता के स्वप्न को साकार कर सकती थी, किन्तु इस संसद के समक्ष अनेक कठिनाइयाँ एवं समस्याएँ भी थी।

संघ की रूपरेखा तथा उसके अधिकारों के विषय में विभिन्न राज्यों में मतभेद थे, अतः संविधान बनाने में काफी समय लग गया, इस बीच ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, जर्मनी में क्रांति का प्रभाव कम होता गया। 1848 तक आस्ट्रिया व प्रशा क्रांति को कुचलने में सफल हो गये।

आस्ट्रिया ने इस राष्ट्रीय संसद के कार्यों में बाधाएँ उपस्थित करना प्रारंभ कर दिया, फिर भी मार्च, 1849 में राष्ट्रीय संसद ने संघ का संविधान तैयार कर लिया तथा प्रशा के सम्राट को जर्मनी का सम्राट बनाने का निर्णय लिया, किन्तु आल्मुल्स नामक स्थान पर आस्ट्रियन सम्राट ने प्रशा के सम्राट से मुलाकात की और उसको जर्मन संघ का राजमुकुट स्वीकार न करने की चेतावनी दी।

फलस्वरूप 3 अप्रैल, 1849 को विलियम चतुर्थ ने नवीन जर्मन संघ का राजमुकुट अस्वीकार कर दिया। उसके बाद संसद इस दिशा में कोई प्रभावी कार्य नहीं कर सकी। इसके बाद प्रशा के मंत्री जोसफ वान रिडोविस्स ने हेनोवर तथा सेक्सनी के साथ मिलकर प्रशा के नेतृत्व में संघ बनाने की योजना तैयार की, किन्तु आस्ट्रिया ने हस्तक्षेप के कारण यह योजना भी कार्यान्वित न हो सकी। इस प्रकार, 1848 की क्रांति के फलस्वरूप जो राष्ट्रीयता की लहर उत्पन्न हुई थी, उसका दमन कर दिया गया।

जर्मनी में औद्योगिक विकास

1834 में जालवरिन की स्थापना से जर्मनी के व्यापार और उद्योग के विकास का मार्ग खुल गया। 1850 से 1860 के मध्य जर्मनी का तीव्र गति से औद्योगीकरण हुआ। इस काल में प्रशा के रूर क्षेत्र में कोयला एवं लोहा मिल जाने से कोयला और लोहे के उत्पादन में वृद्धि हुई। रेलों का विस्तार हुआ तथा 1850 तक जर्मनी के सभी प्रमुख नगरों को रेलों द्वारा जोङ दिया गया। इस प्रकार 1860 तक जर्मनी की गणना यूरोप के औद्योगिक राज्यों में की जाने लगी। इस औद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप प्रशा की आर्थिक स्थिति सुदृढ हो गयी।

इस औद्योगीकरण का जर्मनी के राजनैतिक जीवन पर भी प्रभाव पङा। औद्योगिक विकास के फलस्वरूप जर्मनी में एक नए पूँजीपति वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। धीरे-धीरे इस वर्ग ने जर्मनी की राजनीति में सक्रिय भाग लेना प्रारंभ कर दिया और यह वर्ग बहुत ही प्रभावशाली हो गया। जर्मनी के पूँजीपति अपने आर्थिक हितों के कारण संयुक्त जर्मनी के समर्थक थे। पूँजीपति वर्ग का सहयोग प्राप्त हो जाने से एकीकरण आंदोलन को नई गति प्राप्त हो गयी।

इस प्रकार, 1860 तक आते-आते जर्मनी को स्वाधीन कर उसे एकता के सूत्र में बाँधने के प्रयासों ने जोर पकङ लिया था, किन्तु प्रशा के सम्राट एवं मंत्री इतने साहसी नहीं थे कि आस्ट्रिया के विरुद्ध खङे हो सकें। 1861 में परिस्थितियाँ बदल गयी। फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ की मृत्यु हो गयी तथा उसका भाई विलियम प्रथम प्रशा का सम्राट बना। विलियम प्रथम का दृढ विश्वास था, कि जर्मनी का एकीकरण प्रशा के नेतृत्व में ही हो सकता है। 1862 में उसने बिस्मार्क को अपना चान्सलर बनाया। इसके बाद एकीकरण की प्रगति में तीव्रता आ गयी।

विलियम प्रथम (1861-1888)

प्रशा का नया सम्राट विलियम प्रथम सैनिक गुणों से युक्त एवं व्यवहारकुशल व्यक्ति था। उसका दृढ विश्वास था, कि प्रशा का भविष्य उसकी सैन्य शक्ति पर निर्भर करता है। यद्यपि वह उदारवाद का प्रबल शत्रु था, किन्तु प्रशा के हितों में वह उदारवादियों से भी सहयोग करने को तैयार था। वॉन सिबेल के अनुसार – उसमें ऐसी अनोखी प्रतिभा थी, जिससे वह तुरंत समझ लेता था, कि कौनसी चीज प्राप्त है और कौनसी अप्राप्य ?

उसके विचार एवं लक्ष्य स्पष्ट थे। उसमें योग्य व्यक्तियों को परखने की भी शक्ति थी। अतः वह इस बात को अच्छी तरह जानता था कि जब तक आस्ट्रिया को जर्मन संघ से नहीं निकाल दिया जाता तब तक जर्मनी का एकीकरण संभव नहीं हो सकता। आस्ट्रिया को जर्मनी से निकालने का एकमात्र तरीका यह था, कि उसे युद्ध में पराजित किया जाय और उसे युद्ध में पराजित करने के लिये प्रशा सैनिक शक्ति प्रबल होनी चाहिये। इसलिये उसने प्रशा की सैनिक शक्ति को बढाने का निश्चय किया।

अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये विलियम प्रथम ने प्रशा की सैन्य शक्ति को दुगुना करने की योजना बनाई। उसकी योजना थी कि शांतिकाल में प्रशा की सेना दो लाख तथा युद्धकाल में लगभग 4 लाख होनी चाहिये। उसके युद्ध मंत्री वॉन रून तथा प्रधान सेनापति वॉन माल्टके दोनों ने विलियम प्रथम की इस योजना का समर्थन किया। इस योजना को कार्यान्वित करने के अलावा धनराशि की आवश्यकता थी और उसके लिये प्रशा के निम्न सदन की स्वीकृति की आवश्यकता थी। निम्न सदन में उदारवादियों का बहुमत था, जो इस सैनिक सुधारों को प्रतिक्रियावादी समझता था।

संसद ने इस योजना में कुछ संशोधन करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु युद्ध मंत्री वॉन रून किसी प्रकार का संशोधन स्वीकार करने को तैयार नहीं था, अतः संसद ने बजट पास करने से इन्कार कर दिया। इस प्रकालर सम्राट और संसद के बीच झगङा उत्पन्न हो गया। मार्च, 1862 में सम्राट ने संसद को भंग कर नए चुनाव कराए, किन्तु नए चुनावों में पुनः उदारवादियों को बहुमत प्राप्त हो गया। इसलिये सैनिक व्यय की स्वीकृति नहीं मिल सकी।

सम्राट द्वारा नियुक्त अनुदार मंत्रिमंडल ने भी त्याग पत्र दे दिया। ऐसे समय में वॉन रून ने संसद सम्राट को सलाह दी कि वह बिस्मार्क को अपना चान्सलर (प्रधानमंत्री) नियुक्त करे जो इस समय फ्रांस में प्रशा का राजदूत था। इस समय बिस्मार्क ही ऐसा व्यक्ति था, जो संसद के विरुद्ध सम्राट का साथ देने की योग्यता रखता था, अतः सम्राट ने तार देकर बिस्मार्क को बर्लिन बुलाया। 23 सितंबर, 1862 को सम्राट ने उसे अपना चान्सलर नियुक्त किया। इस अवसर पर बिस्मार्क ने सम्राट को आश्वासन दिाय कि, श्रीमान के साथ नष्ट हो जाऊँगा, किन्तु संसद के साथ संघर्ष में आपका साथ नहीं छोङूँगा।

बिस्मार्क का उदय

बिस्मार्क का जन्म 1 अप्रैल, 1815 को ब्रेडनबर्ग के एक कुलीन परिवार में हुआ था। उसकी शिक्षा गर्टिजन और बर्लिन विश्वविद्यालयों में हुई, किन्तु उसने कोई विशेष प्रतिभा का परिचय नहीं दिया। शिक्षा समाप्त कर उसने प्रशा के न्याय विभाग में नौकरी कर ली, किन्तु 1839 में उसने इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया तथा अगले 8 वर्ष उसने अपनी जागीर के प्रबंध करने तथा उसमें सुधार करने में व्यतीत किए।

इस काल में उसने कृषि संबंधी ज्ञान प्राप्त किया, विदेशों की यात्रा की तथा राजनीति में भाग लेना आरंभ किया। इसी समय उसका संबंध ट्रीगलाफ नामक एक समिति से हो गया, जिसका संबंध बर्लिन के अनुदार दल से था। इसी समय से वह रूढिवादी तथा निरंकुश शासन का समर्थक बन गया…अधिक जानकारी

श्लेसविग-हालस्टीन समस्या और डेनमार्क से युद्ध

श्लेसविग तथा हालस्टीन की दोनों डचियों का प्रश्न यूरोपीय राज्यों के लिये एक समस्या बना हुआ था। ये दोनों डचियाँ डेनमार्क और जर्मनी के बीच में स्थित थी। श्लेसविग में आधे लोग जर्मन जाति के थे तथा आधे लोग डेन जाति के थे। हालस्टीन की लगभग संपूर्ण जनता जर्मन जाति की थी। इन डचियों पर डेनमार्क के शासक का अधिकार था। किन्तु ये दोनों डेनमार्क से पृथक थी तथा उनका शासन प्रबंध भी डेनमार्क से पृथक था। जेनमार्क की जनता और शासक इन डचियों को डेनमार्क के राज्य में मिलाना चाहते थे, किन्तु डचियों की जर्मन जनता चाहती थी, कि इन डचियों को जर्मन संघ में सम्मिलित कर लिया जाय।

1852 में लंदन में इन डचियों के विषय में एक समझौता किया गया, जिसके अनुसार इन डचियों पर डेनमार्क के शासक का अधिकार मान लिया गया, किन्तु इन डचियों को डेनमार्क के राज्य में न मिलाने का आदेश दिया गया। 1863 में पोलैण्ड के विद्रोह का लाभ उठाकर फ्रेडरिक सप्तम ने मार्च, 1863 में पुनः एक नया संविधान लागू कर दिया, जिससे श्लेविग को डेनमार्क राज्य का एक अंग मान लिया गया तथा हालस्टीन को भी कुछ सीमा तक डेनमार्क से संबद्ध कर दिया गया।

इस प्रकार डेनमार्क के शासक ने लंदन समझौते का उल्लंघन किया तथा श्लेसविग और हालस्टीन के परंपरागत संबंधों को भी विच्छेद कर दिया। नवम्बर, 1863 में डेनमार्क के शासक फ्रेडरिक सप्तम की मृत्यु हो गयी तथा क्रिश्चियन नवम् गद्दी पर बैठा। उसने भी डेनमार्क की जनता को संतुष्ट करने के लिये 1863 के विधान की पुष्टि कर दी। डेनमार्क के शासक ने इसकी विधिवत घोषणा भी कर दी। इस घोषणा से जर्मनी के सभी भागों में डेनमार्क के विरुद्ध आक्रोश उत्पन्न हो गयी। जर्मन डायट ने डेनमार्क से माँग की कि वह 1863 के विधान को वापस ले ले, किन्तु डेनमार्क ने इसे अस्वीकार कर दिया।

इस पर जर्मन डायट ने श्लेसविग में सेना भेजने का निर्णय लिया, किन्तु बिस्मार्क वहाँ सेना भेजने के लिये तैयार नहीं हुआ। वह तो एक तीर से दो शिकार करना चाहता था। इन दोनों डचियों की भौगोलिक स्थिति सामरिक दृष्टि से अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण थी, अतः बिस्मार्क उस पर अधिकार करना चाहता था, किन्तु वह जानता था, कि यदि प्रशा अकेला इन डचियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा तो उसे अन्य यूरोपीय राज्यों के विरोध का सामाना करना पङेगा, अतः उसने आस्ट्रिया के सहयोग से श्लेसविग और हालस्टीन के मामले में हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया।

16 जनवरी, 1864 को आस्ट्रिया व प्रशा के बीच एक समझौता हो गया। इस संधि के बाद आस्ट्रिया व प्रशा, दोनों ने मिलकर डेनमार्क के शासक को अल्टीमेटम दिया कि वह 48 घंटे के अंदर नवंबर, 1863 के संविधान को समाप्त कर दे। डेनमार्क को इंग्लैण्ड से सहायता मिलने की आशा थी, अतः उसने अल्टीमेटम की कोई परवाह नहीं की। वस्तुतः यह बिस्मार्क की चाल थी, जिससे युद्ध अनिवार्य हो गया।

अब आस्ट्रिया व प्रशा की सम्मिलित सेनाओं ने फरवरी, 1864 में डेनमार्क पर हमला कर दिया। 15 दिन के अंदर डेनमार्क को श्लेसविग खाली करना पङा। उसके बाद दोनों राज्यों की सेमाएँ डेनमार्क के राज्य में प्रविष्ट हुई। डेनमार्क को किसी ओर से सहायता नहीं मिल सकी, अतः उसने विवश होकर 1 अगस्त, 1864 को आस्ट्रिया, प्रशा और डेनमार्क के बीच वियना की संधि हो गयी, जिसके अनुसार डेनमार्क ने श्लेसविग, हालस्टीन तथा लायनबुर्ग पर से अपना अधिकार त्याग दिया तथा उन्हें आस्ट्रिया व प्रशा को हस्तान्तरित कर दिया।

इन डचियों को प्राप्त करने के बाद उनके भविष्य के बारे में आस्ट्रिया व प्रशा के बीच मतभेद उत्पन्न हो गये। आस्ट्रिया चाहता था, कि दोनों डचियों पर ड्यूक ऑफ आगस्टनबर्ग का अधिकार रहे, किन्तु बिस्मार्क इन दोनों पर प्रशा का अधिकार चाहता था। अंत में, आस्ट्रिया के सम्राट फ्रांसिस जोसेफ तथा प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम ने 14 अगस्त, 1865 को गेस्टाइन नामक स्थान पर एक समझौता कर लिया। इस संधि के अनुसार

  • श्लेसविग पर प्रशा का अधिकार मान लिया गया।
  • हालस्टीन पर आस्ट्रिया का अधिकार मान लिया गया।
  • कील के बंदरगाह पर आस्ट्रिया व प्रशा का संयुक्त अधिकार रहा, किन्तु प्रशा को वहाँ किलेबंदी करने तथा समुद्र तक नहर खोदने का भी अधिकार दिया गया।
  • लायनबुर्ग को प्रशा ने खरीद लिया तथा उसकी कीमत आस्ट्रिया को अदा कर दी।

आस्ट्रिया से युद्ध

गेस्टाइन के समझौते के बाद आस्ट्रिया व प्रशा के संबंध बिगङते गये। बिस्मार्क तो आस्ट्रिया से युद्ध करने का अवसर ढूँढ ही रहा था, क्योंकि जर्मनी के एकीकरण के लिये आस्ट्रिया से युद्ध अनिवार्य था, अतः बिस्मार्क ने श्लेसविग और हाल्स्टीन की समस्या को इस तरह उलझा दिाय कि युद्ध अनिवार्य हो गया। बिस्मार्क चाहता था, कि प्रशा और आस्ट्रिया के युद्ध में आस्ट्रिया को किसी यूरोपीय शक्ति की सहायता न मिल सके।

उसने पोलैण्ड में रूस का समर्थन करके रूस को अपना मित्र बना लिया था। वैसे स्वयं बिस्मार्क रूस के जार का व्यक्तिगत मित्र था, अतः रूस की ओर से वह निश्चित था। इंग्लैण्ड की ओर से हस्तक्षेप की संभावना नहीं थी, क्योंकि वह अपनी आंतरिक समस्याओं में उलझा हुआ था। बिस्मार्क फ्रांस से भी तटस्थता का आश्वासन प्राप्त कर चुका था। बियारित्ज नामक स्थान पर बिस्मार्क और नेपोलियन तृतीय की भेंट हुई था, जिसमें नेपोलियन ने स्वीकार कर लिया था, कि यदि आस्ट्रिया व प्रशा का युद्ध होगा तो फ्रांस तटस्थ रहेगा।

इसके बदले में बिस्मार्क ने फ्रांस को बेल्जियम अथवा राइन के क्षेत्र के कुछ प्रदेश दिलाने की इच्छा व्यक्त की, किन्तु निश्चित आश्वासन नहीं दिया था। फ्रांस से तटस्थता का आश्वासन प्राप्त कर बिस्मार्क ने इटली से मित्रता करने का प्रयत्न किया। 8 अप्रैल, 1866 को इटली व प्रशा के बीच संधि हो गयी, जिसके अनुसार यदि तीन माह के अंदर प्रशा व आस्ट्रिया का युद्ध होता है तो इटली प्रशा का साथ देगा। इसके बदले में बिस्मार्क इटली को वेनेशिया दिलवा देगा।

इस प्रकार सारी तैयारियों के बाद बिस्मार्क, आस्ट्रिया से युद्ध करने का बहाना ढूँढने लगा। इधर आस्ट्रिया कील में ड्यूक ऑफ आगस्टनवर्ग के पक्ष में चल रहे आंदोलन को प्रोत्साहन कर रहा था, अतः प्रशा ने आस्ट्रिया को एक कङा विरोध पत्र भेजा कि आंदोलन को तुरंत समाप्त कर दे। इस पर आस्ट्रिया ने लिखा कि 1864 की प्रशा व आस्ट्रिया की संधि को समाप्त समझा जाय, अतः दोनों के बीच वही स्थिति पैदा हो गयी जो डेनार्क युद्ध के पूर्व थी।

दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ आरंभ हो गयी तथा दोनों के बीच युद्ध निकट आता जा रहा था। नेपोलियन ने श्लेसविग और हालस्टीन की समस्या सुलझाने के लिये यूरोपीय राज्यों का एक सम्मेलन आमंत्रित करने का प्रस्ताव किया। रूस एवं ब्रिटेन इसके लिये तैयार हो गये तथा बिस्मार्क ने भी अपनी स्वीकृति दे दी, किन्तु आस्ट्रिया ने सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिये ऐसी शर्त रखी, जिसको स्वीकार करने पर सम्मेलन आमंत्रित करने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता था। विवश होकर नेपोलियन ने सम्मेलन आमंत्रित करने का प्रयत्न वापस ले लिया। इस प्रकार युद्ध रोकने के सभी प्रयत्न विफल हो गये। बिस्मार्क खुशी से चिल्ला उठा, अब तो युद्ध होगा, राजा चिरंजीवी हो।

1जून 1866 को आस्ट्रिया ने जर्मनी के संघीय डायट को आमंत्रित किया तथा श्लेसविग और हालस्टीन पर निर्णय करने को कहा। आस्ट्रिया के संकेत पर संघीय डायट ने निर्णय दिया कि श्लेसविग, हालस्टीन और लायनबुर्ग, ड्यूक आगस्टनबर्ग को दे दिये जायँ। बिस्मार्क ने इसका विरोध करते हुये कहा कि आस्ट्रिया द्वारा गेस्टाइन का समझौता भंग किये जाने से प्रशा भी इससे मुक्त है। उसके बाद 6 जून को प्रशा ने हालस्टीन पर आक्रमण कर दिया।

आस्ट्रिया की सेना बिना संघर्ष के पीछे हट गयी। 11 जून को आस्ट्रिया ने संघीय डायट में प्रस्ताव रखा कि संघ प्रशा के विरुद्ध सेना भेजने का आदेश दे, क्योंकि प्रशा ने एक दूसरे सदस्य (आस्ट्रिया)के विरुद्ध सेना भेजी है। बिस्मार्क के विरोध के बावजूद 14 जून को आस्ट्रिया का प्रस्ताव पास हो गया। बिस्मार्क ने संघीय डायट के इस निर्णय को अवैध ठहराते हुए जर्मन परिसंघ को समाप्त करने की माँग की और आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध युद्ध की घोषणा भी कर दी।

आस्ट्रिया व प्रशा का युद्ध केवल सात सप्ताह तक चला, इसलिये इस युद्ध को सात सप्ताह का युद्ध कहते हैं। युद्ध का प्रमुख व निर्णायक संघर्ष सेडोवा नामक स्थान पर हुआ। इस दिन दोपहर के दो बजे तक आस्ट्रिया की जीत निश्चित दिखाई दे रही थी, किन्तु इसी समय प्रशा का राजकुमार अपनी सेना लेकर आ धमका तथा आस्ट्रिया की सेना पर टूट पङा। प्रशा की शानदार विजय हुई तथा आस्ट्रिया की निर्णायक पराजय हुई। इस युद्ध में जर्मनी के बवेरिया, ब्यूटेनबर्ग, सैक्सनी, हनोवर, हेसकैसल, बेडन आदि राज्यों ने आस्ट्रिया का साथ दिया था, किन्तु तीन दिने के भीतर ही प्रशा की फौजों ने इन सभी राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया।

युद्ध में पराजित आस्ट्रिया की हालत इतनी खराब हो गयी कि प्रशा का सम्राट तो आस्ट्रिया की राजधानी वियना पर अधिकार करना चाहता था, किन्तु बिस्मार्क ने कहा, युद्ध का निर्णय हो गया, अब हमें पुनः आस्ट्रिया की पुरानी मित्रता प्राप्त करनी है। बिस्मार्क जानता था कि आस्ट्रिया के साथ उदारतापूर्ण संधि करना ही प्रशा के हित में था। बिस्मार्क का लक्ष्य आस्ट्रिया को जर्मनी से निकालना था, न कि आस्ट्रिया को जीतना। बिस्मार्क यह भी जानता था, कि यदि वियना पर अधिकार कर लिया तो इससे आस्ट्रिया का घोर अपमान होगा, जिसे वह कभी नहीं भूल सकेगा। इसके अलावा अन्य यूरोपीय राज्यों के भी हस्तक्षेप की संभावना थी, जिससे जर्मनी के एकीकरण का मार्ग अवरुद्ध हो जायेगा।

प्राग की संधि

26 जुलाई को नेपोलियन द्वारा स्वीकृत शर्तों के आधार पर प्रशा व आस्ट्रिया के बीच निकोल्सनबर्ग की अस्थायी संधि हो गयी, किन्तु इससे फ्रांस को कुछ नहीं मिला। नेपोलियन ने बिस्मार्क से राइन अथवा बेल्जियम के क्षेत्र में कुछ प्रदेशों की माँग की, किन्तु बिस्मार्क ने कुछ भी देने से इन्कार कर दिया। वस्तुतः बिस्मार्क के कूटनीतिक चातुर्य के समक्ष नेपोलियन पूर्णतः पराजित हुआ।निकोल्सनबर्ग की अस्थायी संधि के बाद 23 अगस्त, 1866 को प्राग की स्थायी संधि हुई। इस स्थिति में निम्नलिखित बातें तय की गयी

वियना कांग्रेस द्वारा निर्मित जर्मन परिसंघ समाप्त कर दिया गया तथा आस्ट्रिया ने जर्मनी से अलग रहना स्वीकार कर लिया। आस्ट्रिया को 30 लाख पौण्ड युद्ध का हर्जाना देना पङा।

श्लेसविग, हालस्टीन, हेसकेसल, नासा, हेस डार्म्सटेट का उत्तरी भाग तथा फ्रेंकफर्ट नगर प्रशा में सम्मिलित कर लिए गए।

आस्ट्रिया ने स्वीकार कर लिया कि मेन नदी के उत्तर में स्थित राज्यों का एक नया संघ उत्तरी जर्मन परिसंघ, प्रशा के नेतृत्व में बनाया जा सकता है। इस नए संघ में आस्ट्रिया का कोई स्थान नहीं था।

मेन नदी के दक्षिण में स्थित राज्यों – बुर्टमबर्ग, बवेरिया और बादेन की स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की गयी तथा उन्हें अपनी इच्छानुसार अलग संघ बनाने का भी अधिकार प्रदान किया गया।

वेनेशिया इटली को दे दिया गया।

प्राग की संधि द्वारा जर्मनी में आस्ट्रिया का नेतृत्व सदा के लिये समाप्त हो गया तथा प्रशा के नेतृत्व में उत्तरी जर्मन संघ की स्थापना हुई। अब प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण का मार्ग स्पष्ट हो गया। इस संधि के बाद प्रशा को यूरोप का शक्तिशाली राष्ट्र तथा बिस्मार्क को यूरोप का सबसे शक्तिशाली राजनीतिज्ञ समझा जाने लगा। इससे आस्ट्रिया की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा तथा उसके साम्राज्य पर भी उसका प्रभाव कम हो गया तथा बिस्मार्क की स्थिति सुदृढ हो गयी। जुलाई, 1866 को प्रशा की डायट के चुनाव में उन लोगों को बहुत कम मत प्राप्त हुए, जिन्होंने युद्ध का विरोध किया था।

उत्तरी जर्मन संघ का निर्माण

बिस्मार्क सभी जर्मन राज्यों को मिलाकर जर्मन संघ का निर्माण करना चाहता था, किन्तु इस समय बिस्मार्क के लिये ऐसा करना संभव नहीं था, क्योंकि दक्षिण जर्मनी के राज्यों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें संघ में सम्मिलित नहीं किया जा सकता था। अतः बिस्मार्क ने शोष 21 राज्यों को मिलाकर प्रशा के नेतृत्व में उत्तरी जर्मन संघ का निर्माण किया। 1867 में इस नए जर्मन राज्य संघ का संविधान बनाया गया।

संघ के लिये दो संसदीय संसद की व्यवस्था की गयी। प्रथम लोकसभा या राइचस्टेग थी, जिसके सदस्य वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित होते थे तथा दूसरी, संघीय परिषद या बुन्देस्नाट थी, जिसमें विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। संघीय परिषद में 43 सदस्य थे, जिसमें 17 सदस्य प्रशा के थे। प्रशा का शासक वंशानुगत क्रम से संघ का अध्यक्ष नियुक्त हुआ तथा यह भी निश्चित किया गया कि संघ का प्रथम चांसलर प्रशा का प्रधानमंत्री बिस्मार्क ही हो। चान्सलर संघीय परिषद का अध्यक्ष होता था, किन्तु संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं था।

चान्सलर अपनी सहायता के लिये मंत्रियों की नियुक्ति करता था। संघ के अन्तर्गत सभी राज्यों को अपने आंतरिक शासन का अधिकार पूर्ववत बना रहा।इस राज्य संघ के निर्माण से उत्तरी जर्मनी का एकीकरण पूर्ण हो गया, किन्तु जर्मनी का एकीकरण पूर्ण होने के लिये दक्षिण जर्मनी के राज्यों का इस नए संघ में सम्मिलित होना आवश्यक था, अतः इस कार्य को पूरा करने के लिये बिस्मार्क को पुनः युद्ध लङना पङा।

फ्रांस और प्रशा का युद्ध

प्राग की संधि के बाद फ्रांस और प्रशा के संबंध निरंतर बिगङते गये। आस्ट्रिया और प्रशा के युद्ध में नेपोलियन तृतीय इसलिये तटस्थ रहा था कि प्रथम तो उसे बेल्जियम अथवा राइन के क्षेत्र में कुछ प्रदेश प्राप्त होने की आशा थी, दूसरा उसको विश्वास था, कि आस्ट्रिया व प्रशा का संघर्ष इतना लंबा होगा कि दोनों पक्ष उसे पंच बनाने को तैयार हो जाएँगे, किन्तु बिस्मार्क इस तथ्य से भली भाँति परिचित था कि जब तक फ्रांस की शक्ति बनी रहेगी तब तक दक्षिणी जर्मन राज्यों को जर्मन संघ में सम्मिलित करना संभव नहीं होगा। बिस्मार्क ने अपने संस्मरणों में लिखा था कि, जर्मनी का एकीकरण पूर्ण करने के लिये फ्रांस और प्रशा का युद्ध अनिवार्य रूप से होगा।

वस्तुतः सेडोवा के युद्ध के बाद फ्रांस और प्रशा के संबंधों में निरंतर तनाव आता गया। फ्रांस और प्रशा के बिगङते हुए संबंधों के निम्नलिखित कारण थे-

  • प्रशा की विजय से फ्रांस के राजनीतिज्ञों को ऐसा प्रतीत हुआ कि इससे न केवल फ्रांस की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा है वरन् अब फ्रांस की सुरक्षा को भी खतरा उत्पन्न हो गया है, इसलिए फ्रांस के राजनीतिज्ञ सेडोवा का प्रतिशोध लेने की माँग कर रहे थे। फ्रांस की यह नीति थी कि जर्मनी सदैव निर्बल रहे तथा जर्मन राज्यों में परस्पर झगङा चलता रहे ताकि जर्मनी का संगठन न हो सके, किन्तु आस्ट्रिया की पराजय के बाद प्रशा यूरोप की महान शक्ति बन गया। इस स्थिति को फ्रांस सहन करने को तैयार नहीं था।
  • वियारित्ज में नेपोलियन और बिस्मार्क की भेंट के बाद नेपोलियन को आशा थी कि फ्रांस की सीमा का विस्तार राइन नदी तक हो जाएगा। युद्ध की समाप्ति के बाद नेपोलियन ने इसके लिये प्रयत्न भी किया, किन्तु बिस्मार्क ने अपने दिये हुए आश्वासन की उपेक्षा की जिससे नेपोलियन क्रुद्ध हो उठा। उसकी समस्त आशाओं पर पानी फिर गया तथा उसकी प्रतिष्ठा गिर गई। ऐसी स्थिति में वह प्रशा को सबक सिखाना चाहता था।
  • अमेरिका में चल रहे गृह युद्ध का लाभ उठाकर फ्रांस ने मेक्सिको में हस्तक्षेप किया। वह मेक्सिको में प्रजातंत्र को समाप्त कर वहाँ अपना राज्य स्थापित करना चाहता था, किन्तु वह असफल रहा। मेक्सिको के शासक मेक्समिलियन की हत्या का उत्तरदायित्व भी फ्रांस पर डाला गया, इससे फ्रांस की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा गिर गयी। अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिये नेपोलियन के समक्ष युद्ध के अलावा कोई मार्ग ही नहीं था।
  • नेपोलियन तृतीय ने 1867 में हालैण्ड के शासक से लक्सेमबर्ग खरीदना चाहा। हालैण्ड का शासक इसके लिए तैयार भी हो गया, किन्तु बिस्मार्क के हस्तक्षेप के कारण नेपोलियन को लक्सेमबर्ग भी प्राप्त नहीं हो सका। बिस्मार्क की इस कुटिल नीति के कारण फ्रांस की जनता क्षुब्ध हो उठी थी।
  • क्रीमिया युद्ध के कारण रूस व फ्रांस की शत्रुता थी। पोलैण्ड के विद्रोह में प्रशा ने रूस की नीति का समर्थन कर रूस की मित्रता प्राप्त कर ली, इससे फ्रांस में खलबली मच गई। इधर बिस्मार्क ने अपनी कुशल कूटनीति द्वारा इटली को भी अपने पक्ष में मिला लिया। उसने इटली को वेनेशिया दिलवाकर फ्रांस से पृथक कर दिया। इससे फ्रांस और भी अधिक घबरा उठा। अब युद्ध के अलावा उसके समक्ष कोई अन्य उपाय नहीं रह गया था।
  • इधर जर्मनी के लोग भी फ्रांस से नाराज थे। जर्मन लोगों का यह कहना था, कि वास्तव में फ्रांस ही जर्मन के एकीकरण में बाधक है। इधर फ्रांस को भी जर्मनी के विरुद्ध शिकायतें थी। दोनों राज्यों के समाचार पत्रों ने एक दूसरे के प्रति जहर उगलना शुरू कर दिया। जिससे दोनों राज्यों में उत्तेजना बढने लगी तथा युद्ध की आशंका को बल प्राप्त हुआ।
  • दक्षिण जर्मनी के चार राज्य बवेरिया, बुर्टमबर्ग, बेडेन तथा हेस्से अब भी जर्मन संघ की उपेक्षा कर रहे थे। इन राज्यों पर फ्रांस का प्रभाव था। नेपोलियन इन राज्यों को जन संघर्ष के विरुद्ध भङका रहा था। बिस्मार्क इन राज्यों को जर्मन संघ में मिलाकर जर्मनी का एकीकरण पूर्ण करना चाहता था। अतः बिस्मार्क इन राज्यों को जीतने के लिये कटिबद्ध था।
  • फ्रांस और प्रशा के तनावपूर्ण संबंधों के मध्य स्पेन के उत्तराधिकार का प्रश्न उत्पन्न हुआ, जिससे दोनों राज्यों के संबंध अत्यधिक बिगङ गए और युद्ध आरंभ हो गया। 1868 में स्पेन में क्रांति हुई तथा महारानी इजाबेला द्वितीय को स्पेन से निर्वासित कर दिया गया। इसके बाद स्पेन के सिंहासन के लिये प्रशा के शासक के संबंधी राजकुमार लियोपॉल्ड को शासक बनाने के लिये आमंत्रित किया गया। आरंभ में तो लियोपॉल्ड कुछ हिचकिचाया, परंतु बाद में अपनी स्वीकृति दे दी। लियोपॉल्ड का नाम प्रस्तावित कराने में बिस्मार्क का हाथ था। 3 जुलाई, 1870 को इसकी सूचना पेरिस पहुँची तो फ्रांस में बङी उत्तेजना उत्पन्न हो गयी।
    नेपोलियन एवं फ्रांस के राजनीतिज्ञों की यह निश्चित धारणा थी कि लियोपॉल्ड को स्पेन की गद्दी प्राप्त हो जाने से प्रशा की शक्ति में और अधिक वृद्धि हो जाएगी, जिससे फ्रांस की सुरक्षा ही खतरे में पङ जाएगी। फ्रांस के मंत्रियों ने स्पष्ट घोषणा की कि फ्रांस, लियोपॉल्ड को कभी भी स्पेन का शासक स्वीकार नहीं करेगा। फ्रांस के विदेश मंत्री ग्रेमा ने अपना एक दूत प्रशा के सम्राट विलियम के पास भेजा, जिसने फ्रांस की सरकार का विरोध प्रकट किया। सम्राट ने लियोपॉल्ड को सलाह दी कि वह स्पेन के सिंहासन के लिये अपनी स्वीकृति वापस ले ले और इसके साथ ही लियोपॉल्ड के पिता ने घोषणा की कि उसका पुत्र स्पेन के सिंहासन का प्रत्याशी नहीं रहा है। 12 जुलाई, 1870 को लियोपॉल्ड ने अपनी स्वीकृति वापस ले ली।
    ऐसी स्थिति में समस्या नहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी, किन्तु नेपोलियन, उसका विदेश मंत्री ग्रेमा तथा कुछ अन्य व्यक्ति इससे संतुष्ट नहीं हुए क्योंकि वे फ्रांस की कूटनीतिक पराजयों के अपमान का बदला लेना चाहते थे, अतः फ्रांस की ओर से बेनेदिती को सम्राट विलियम के पास भेजकर माँग की गई कि भविष्य में भी लियोपॉल्ड या उसके राजवंश के किसी व्यक्ति को स्पेन के उत्तराधिकार के लिये वह समर्थन नहीं देगा।बेनेदिती ने सम्राट से एम्स नगर में बातचीत की। सम्राट ने कहा कि लियोपॉल्ड ने स्पेन के सिंहासन के लिये अपनी स्वीकृति वापस ले ली, इसके आगे वह कुछ नहीं कहना चाहता । इस बातचीत का विवरण तार द्वारा बिस्मार्क के पास भेजा गया।
    13 जुलाई, 1870 की रात को यह तार बिस्मार्क को मिला। बिस्मार्क बहुत ही निराश था, क्योंकि स्पेन का नियंत्रण प्राप्त करने की उसकी योजना सम्राट विलियम की कायरता के कारण असफल हो गई थी, किन्तु एम्स के तार को पढकर उसने एक युक्ति खोज निकाली।
    बिस्मार्क ने उस तार की संक्षिप्त इबारत प्रकाशित करवा दी (14 जुलाई, 1870)। तार के प्रकाशित होने का वही प्रभाव पङा, जिसकी बिस्मार्क को आशा थी। तार के संक्षिप्त रूप को पढकर फ्रांसीसियों ने सोचा कि सम्राट विलियम ने फ्रांसीसी राजदूत बेनेदिती का अपमान किया है। पेरिस में प्रशा के विरुद्ध युद्ध की माँग की जाने लगी। यद्यपि ब्रिटेन ने दोनों राज्यों में समझौता कराने का प्रयत्न किया, किन्तु वह असफल रहा। 15 जुलाई, 1870 को फ्रांस ने प्रशा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
  • फ्रांस अभी युद्ध के लिये पूर्ण तैयार नहीं था, जबकि प्रशा की सेना पूर्ण रूप से तैयार थी। फ्रांस को विश्वास था, कि दक्षिणी जर्मनी के राज्य प्रशा का साथ नहीं देंगे, किन्तु दक्षिणी जर्मनी के राज्यों ने उत्साह से प्रशा का साथ दिया। इससे जर्मनी की सैनिक शक्ति में वृद्धि हो गयी। फ्रांस ने आस्ट्रिया व इटली की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया, किन्तु असफल रहा। उसे अकेले ही संगठित जर्मनी का सामना करना पङा। जर्मनी का सामना करना पङा। जर्मनी की सेनाओं ने तीन ओर से फ्रांस पर आक्रमण किया।
    अगस्त, 1870 के आरंभ में बीसेनबर्ग में फ्रांसीसी सेना पराजित हुई तथा जर्मनी की सेना एल्सेस प्रांत तक पहुँच गई। उसके बाद ग्रेवलार के युद्ध में पुनः फ्रांसीसी सेना पराजित हुई (18 अगस्त, 1870) तथा प्रशा की सेना आगे बढती गयी। सितंबर, 1870 को फ्रांसीसी सेना सीडान में घिर गुई तथा नेपोलियन को अपने 83 हजार सैनिकों सहित आत्म समर्पण करना पङा। इसकी सूचना प्राप्त होते ही पेरिस में क्रांति हो गयी तथा 4 सितंबर, 1870 में फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना की गयी तथा एक राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार संगठित की गयी, जिसने युद्ध जारी रखने का निश्चय किया। जर्मन सेनाएँ आगे बढती गयी और पेरिस तक पहुँच गई अतः फ्रांस ने युद्ध स्थगित कर संधि की बातचीत आरंभ कर दी।

जर्मन साम्राज्य की स्थापना

बिस्मार्क तो संधि होने के पूर्व ही एकीकरण के महायज्ञ को पूर्ण करना चाहता था। दक्षिण जर्मनी के चारों राज्य पहले ही जर्मन संघ में सम्मिलित हो चुके थे, अतः बिस्मार्क ने 18 जनवरी, 1871 को वर्साय के प्रसिद्ध शीशमहल में एक भव्य दरबार का आयोजन किया, जिसमें जर्मन राज्यों के सभी शासक तथा उनके सेनानायक उपस्थित हुए। इस भव्य दरबार में एक सुसज्जित ऊँचे मंच पर प्रशा के सम्राट विलियम को बैठाया गया। दरबार में सम्राट विलियम को एकीकृत जर्मन साम्राज्य का सम्राट घोषित किया गया तथा बिस्मार्क ने जर्मनी के सम्राट विलियम प्रथम का राज्याभिषेक किया। इस प्रकार जर्मनी का राष्ट्रीय एकीकरण पूर्ण हुआ।

फ्रेंकफर्ट की संधि

28 जनवरी, 1871 को पेरिस के पतन के साथ ही फ्रांस-प्रशा युद्ध समाप्त हो गया। 26 फरवरी को फ्रांस और प्रशा के बीच शांति संधि की प्रारंभिक शर्तों पर हस्ताक्षर हुए तथा 10 मई, 1871 को फ्रेंकफर्ट में दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने संधि पर हस्ताक्षर किये। इस संधि के अनुसार-

  • फ्रांस को मेज तथा स्ट्रासबर्ग सहित एल्सस एवं लारेन का भाग जर्मनी को देना पङा। केवल बेलफोर्ट का किला फ्रांस के अधिकार में रह गया।
  • फ्रांस को युद्ध हर्जाने के रूप में 70 करोङ पौण्ड जर्मनी को देना स्वीकार करना पङा। पूरी रकम का भुगतान होने तक जर्मनी की सेना का फ्रांस में रहना भी निश्चित किया गया।
  • अप्रैल, 1871 में जर्मनी के नए विधान की घोषणा की गयी, जिसके अनुसार दक्षिणी जर्मनी के समस्त राज्य जर्मन संघ में सम्मिलित कर लिये गये। इस प्रकार प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का राजनैतिक एकीकरण पूर्ण हुआ। बिस्मार्क को इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये तीन युद्ध लङने पङे। जर्मनी के इस एकीकरण के लिये क्रांतिकारियों के अलावा लेखकों, विचारकों, इतिहासकारों एवं दार्शनिकों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य किया। इस एकीकरण से बिस्मार्क ने केवल जर्मनी का वरन् यूरोप का सर्वाधिक में प्रभावशाली राजनीतिज्ञ बन गया। अतः यूरोप इतिहास 1871 से 1890 तक के काल को बिस्मार्क युग की संज्ञा दी जाती है।

फ्रांस और प्रशा के युद्ध का परिणाम

फ्रांस और प्रशा के युद्ध का मुख्य परिणाम तो जर्मनी का एकीकरण है। दक्षिण जर्मनी के राज्यों का जर्मन संघ में विलय हो जाने से एक शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य की स्थापना हुई। एल्सस और लारेन लोहे व कोयले के प्रमुख केन्द्र थे, जो अब जर्मनी के अधिकार में आ गये। फ्रांस में द्वितीय साम्राज्य का अंत हो गया तथा तृतीय गणराज्य की स्थापना हुई। फ्रेंकफर्ट की संधि फ्रांस के लिये अत्यन्त ही अपमानजनक थी, फलतः वहाँ गृह युद्ध आरंभ हो गया।

इसके अलावा फ्रांस-प्रशा युद्ध के कारण इटली का एकीकरण पूरा हो गया। नेपोलियन के पतन के कुछ ही दिनों पहले रोम से फ्रांसीसी सेना बुला ली गयी। इटली ने इस स्थिति का लाभ उठाकर रोम पर अधिकार कर लिया तथा उसे इटली की राजधानी घोषित कर ली। इस युद्ध से लाभ उठाकर रूस ने काले सागर पर अधिकार कर लिया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
Wikipedia : जर्मनी का एकीकरण

Related Articles

error: Content is protected !!