देवगिरि पर अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण
देवगिरि पर अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण – समकालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार अलाउद्दीन अपनी सास तथा पत्नी से मनमुटाव हो जाने के कारण दुखी होकर अपने लिए उचित स्थान ढूँढ निकालने के उद्देश्य से उधर जाने को बाध्य हो गया था। निजामुद्दीन और बदायूनी ने भी इसी विचारधारा पर जोर दिया है। यह भी स्वीकार किया गया है कि अलाउद्दीन खिलजी राजपूत दुर्ग चंदेरी की विजय के लिए जा रहा है। वह बङी सावधानी और तीव्रता के साथ विंध्य पर्वत तथा नदियों को पार करता हुआ एलिचपुर पहुँचा। एलिचपुर से घाटी लजौंरा की ओर गया जो देवगिरि से 12 मील दूर है। फुतुह-अस-सलातीन के लेखक इसामी के अनुसार इस घाटी में युद्धकला में निपुण दो उच्च कुल की महिलाएँ रहती थी जिन्होंने डटकर शत्रु का सामना किया।
अलाउद्दीन ने युद्ध तो जीत लिया पर साथ ही उसे दक्षिणवासियों के साहस का पूरा अनुमान हो गया। इस युद्ध से देवगिरि का राजा और उस प्रदेश के निवासी अत्यंत भयभीत हो गए। देवगिरि में सेना न थी क्योंकि रामचंद्र का पुत्र सिंघण देव अपनी सेना दक्षिण अभियान के लिये ले गया था। फरिश्ता का यह कहना कि सिंघण उस समय तीर्थयात्रा के लिये गया था, विश्वसनीय नहीं लगता क्योंकि इस उद्देश्य के लिये राज्य के श्रेष्ठ सैनिकों को ले जाने का कोई कारण नहीं बनता। रामचंद्र इस अकस्मात आक्रमण से चिंतित हो गया और अपनी रही-सही सेना के साथ किले के अंदर चला गया। देवगिरि का किला एक चिकनी ढालू चट्टान की चोटी पर स्थित था। आकार और निर्माण में यह मध्यकालीन भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली किला था। इसके चारों ओर बङी दीवार, गुंबद और पचास फुट गहरी खाई थी। फरिश्ता के कथन से यह जानकारी प्राप्त होती है कि यादव राजा अपनी शक्ति के घमंड में इस खाई को पानी से भरने की आवश्यकता नहीं समझते थे। राजा किले के अंदर बंद था पर तलहटी के नगर और उसके निवासियों की रक्षा की उसने कुछ भी परवाह न की थी। अलाउद्दीन ने जनता को जी भरकर लूटा और हजारों घोङे तथा हाथी पकङ लिए तथा यह अफवाह भी फैला दी कि उसके पीछे बहुत बङी सेना मदद के लिये आ रही है। रामचंद्र ने अपनी रक्षा का कोई उपाय न देखकर संधि करने के लिये दूत भेजे और सिंघण के पास तुरंत लौट आने की सूचना पहुँचाई।
अलाउद्दीन ने संधि कर लेना ही नीतिसंगत समझा और क्षतिपूर्ति के लिये बहुत सा धन लेकर वापस लौट जाने का वचन दिया। किंतु वह चलने की तैयारी ही कर रहा था कि सिंघण लौट आया। रामचंद्र ने अलाउद्दीन को परामर्श दिया कि आक्रमणकारी से लङना उचित न होगा। पर सिंघण युद्ध पर उतारू था। अतः अलाउद्दीन नुसरत खाँ को किले की देखभाल के लिए छोङ कर सिंघण के विरुद्ध लङने के लिए सेना सहित बढा। पीछे से नुसरत खाँ भी स्वामी को संकट में देखकर सहायता के लिये चल पङा जिसे देखकर देवगिरि की सेना ने सोचा कि दिल्ली का सुल्तान विशाल सेना के साथ आ पहुँचा है। वे भयभीत होकर रणक्षेत्र से भाग खङे हुए। अलाउद्दीन ने शहर के लोगों और व्यापारियों को निर्दयता से लूटा। इस संकट में रामचंद्र हिंदू राजाओं से सहायता माँगने पर विवश हुआ। समय बीतने पर किले के अंदर खाद्य पदार्थों का अभाव हो गया, इसीलिए उसने संधि की पुनः प्रार्थना की। इस बार अलाउद्दीन की शर्तें अत्यंत कठोर फरिश्ता के अनुसार इन शर्तों में, छह सौ मन सोना, सात मन मोती, दो मन लाल, नीलम, हीरे, पन्ना, एक हजार मन चाँदी और चार हजार थान रेशम और अन्य वस्तुएँ सम्मिलित थी।
बरनी का कहना है कि दक्षिण से इतना धन लाया गया कि अलाउद्दीन के उत्तराधिकारियों के द्वारा व्यय किए जाने पर भी उसका बहुत सा अंश फिरोज तुगलक के समय तक रहा। समकालीन लेखक और अमीर खुसरो ने भी इस कोष का वर्णन किया है। बिना आँकङे दिए हुए रामचंद्र ने वार्षिक राज कर भी देने का वचन दिया।