इतिहासमध्यकालीन भारतविजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कैसी थी?| Vijayanagar saamraajy kee arthavyavastha

विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था –

भू-धारण पद्धति सिंचाई एवं कृषि

मध्यकालीन भारत के अन्य प्रदेशों की भाँति विजयनगर साम्राज्य में अधिकांश जनसंख्या कृषि पर आधारित थी। परंतु विजयनगर युग में ग्रामों की संख्या काफी बढ गयी और चोल युग की तुलना में विजयनगर युग में कृषिजन्य अर्थव्यवस्था में भारी मात्रा में परिवर्तन हुए। उदाहरणार्थ भू-धारण पद्धति में व्यापक परिवर्तन आए। इनमें पहला प्रमुख परिवर्तन यह था कि चोल युग का नाडु घटकर ग्राम के रूप में अब एक छोटी इकाई मात्र रह गया। दूसरा प्रमुख परिवर्तन यह हुआ कि दक्षिण भारत के अधिकांश ग्रामीण भागों में तेलगू और दूसरे बाहरी लोगों का भू-स्वामित्व पर विस्तार हुआ और कृषि उत्पादन के विकास में सहयोग देने या कृषि उत्पादन की वृद्धि में योगदान प्रदान करने वाले व्यक्तियों को अतिरिक्त उत्पादन में हिस्सा दिया गया। कृषि अर्थव्यवस्था के विकास में मंदिरों की भूमिका में भी वृद्धि हुई। भूमि पर प्रभावशाली कृषक समूहों का अधिकार था और कृषकों को सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। विजयनगर युग में कृषि योग्य भूमि का खूब विस्तार हुआ। शासन संस्थाएँ और व्यक्ति विशेष कृषि योग्य भूमि के विस्तार में खूब रुचि लेते थे। संपूर्ण विजयनगर युग में हमें बंजर और जंगली भूमि को कृषि योग्य बनाने के पर्याप्त दृष्टांत मिलते हैं।

विजयनगर कालीन भू धारण पद्धति बङी व्यापक थी। जिन ग्रामों की भूमि राज्य के सीधे नियंत्रण में थी, ऐसे ग्रामों को भंडारवाद ग्राम कहा जाता था। इन ग्रामों के किसान राज्य को कर देते थे। इसके अलावा राज्य विशेष धार्मिक पद्धति ब्रह्मदेय, देवदेय और मठापुर भूमि कहलाती थी। इस प्रकार की भूमि कर मुक्त भी होती थी। परंतु विजयनगर काल में सबसे महत्त्वपूर्ण भू धारण पद्धति नायंकार व्यवस्था थी । इस व्यवस्था के अंतर्गत विजयनगर नरेश सैनिक एवं असैनिक अधिकारियों को उनकी विशेष सेवाओं के बदले भू क्षेत्र विशेष प्रदान कर देते थे। इस प्रकार की भूमि अमरम् कहलाती थी और इसके ग्रहणकर्त्ता अमर नायक कहलाते थे। प्रारंभ में नायंकार व्यवस्था केवल सेवा की शर्तों पर आधारित थी, परंतु बाद में यह आनुवांशिक हो गयी। यह नायंकार व्यवस्था मध्यकाल के सामंतवाद से बहुत मिलती-जुलती थी। इस अमरम् भूमि के नायकों को उक्त भूमि की आय का एक अंश राज्य को भी देना पङता था। ग्राम में कुछ विशेष सेवाओं के बदले (जिन्हें लगानमुक्त भूमि दी जाती थी) ऐसी भू धारण पद्धति को उबलि कहा जाता था। युद्ध में शौर्य प्रदर्शित करने वालों या युद्ध में अनुचित रूप से मृत लोगों के परिवार को दी गई भूमि रत्त (खत्त) कोङगे कहलाती थी। विजयनगर युग में ब्राह्मण, मंदिर और बङे भू-स्वामी, जो स्वयं खेती नहीं कर सकते थे, वे खेती के लिये किसानों को पट्टे पर भूमि दे दिया करते थे। ऐसी पट्टे पर ली गयी भूमि को कुट्टगि कहा जाता था। कुट्टगि वस्तुतः नकद या जिन्स के रूप में उपज का अंश था, जिसे किसान भू स्वामी को प्रदान करता था। यदि पट्टीदार पट्टे की निश्चित शर्तों को पूरा करता रहता था, तो उसे भूमि से हटाया नहीं जा सकता था। परंतु पट्टीदार, भू-स्वामी की इच्छानुसार ही फसलें उगा सकता था। भू-स्वामी एवं पट्टेदार के मध्य उपज की हिस्सेदारी को वारम व्यवस्था कहते थे। विजयनगर युग में दूरवासी भू-स्वामित्व में पर्याप्त वृद्धि हुई। राज्य भूमि पर व्यक्तिगत भूमि स्वामित्व का सम्मान करता था। यदि राज्य व्यक्तिगत भूमि को ब्राह्मणों या मंदिरों को दान में देना चाहता था तो राज्य भू स्वामी को उसका मूल्य अदा करता था। अभिलेखों में विभिन्न प्रदेशों में भूमि की कीमत, भूमि को दहेज में देने और गिरवी आदि रखने के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। परंतु इस काल में बङे-बङे भू-स्वामियों का भू-स्वामित्व बढ रहा था और ये बङे-बङे भू-स्वामी सामंत और सरकारी अधिकारी रैयत का प्रायः शोषण करते थे। इस प्रकार के शोषण एवं दमन का हम अभिलेखों तथा विदेशी वृत्तांतों में प्रायः उल्लेख पाते हैं। पर राज्य इस प्रकार के दमन एवं शोषण से रैयत की रक्षा करने का प्रयास करता था। इस काल में हम खेती में लगे कृषक मजदूरों का भी बार-बार उल्लेख पाते हैं। इस प्रकार के कृषक मजदूर कुदि कहलाते हैं। भूमि के क्रय-विक्रय के साथ उक्त कृषक मजदूर भी हस्तांतरित हो जाते थे परंतु उन्हें मनमाने ढंग से सेवामुक्त नहीं किया जा सकता था।

विजयनगर प्रशासन में सिंचाई का कोई विभाग नहीं था। केवल व्यक्तिगत प्रयासों के द्वारा सिंचाई साधनों का विकास किया जाता था। सिंचाई के साधनों के विस्तार में मंदिरों, मठों, व्यक्तियों और संस्थाओं ने समान रूप से योगदान दिया। सिंचाई के साधनों का विस्तार पुण्य कर्म माना जाता था और सिंचाई के साधनों के विकास या सुधार करने वालों को राज्य करमुक्त भूमि प्रदान कर देता था। विजयनगर युग में तडागों, बाँधों और नहरों का मुख्यतया सिंचाई के लिये उपयोग किया जाता था। नदी पर बाँध बनाकर नहरें निकाली जाती थी। इस प्रकार की नहरों के उपयोग का सबसे अच्छा दृष्टांत हम साम्राज्य की राजधानी विजयनगर में पाते हैं। इसी प्रकार साम्राज्य के विभिन्न भागों में बङे-बङे तालाबों का भी निर्माण कराया गया था। अभिलेखों में पुराने तालाबों के विस्तार, उनकी मरम्मत एवं नवीन तालाबों के निर्माण के सैकङों प्रमाण मिलते हैं। सिंचाई के इन साधनों की रक्षा और व्यवस्था भी सामुदायिक प्रयासों के द्वारा की जाती थी। सिंचाई के साधन की देखभाल करने वाले भृत्यों को करमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। यदि किसी व्यक्ति की बिना किसी वारिस के मृत्यु हो जाती थी तो ऐसे व्यक्ति की संपत्ति का उपयोग सिंचाई के साधनों आदि की मरम्मत के लिये किया जाता था। परंतु सिंचाई के विनाश के कारण यदि रैयत गाँव छोङकर चली जाती थी तो राज्य उन ग्रामों को फिर से बसाने के लिये स्वयं अपने प्रयासों से सिंचाई के ध्वस्त या विनष्ट साधनों की मरम्मत कराता था। कभी-कभी सिंचाई के साधनों के पुनर्निर्माण के लिये राज्य स्थानीय करों को भी माफ कर देता था। कुछ अभिलेखों में सिंचाई के साधनों की व्यवस्था के लिये ग्रामवासियों द्वारा वार्षिक रूप से निश्चित मात्रा में अनाज-संग्रह का भी उल्लेख है। यदि सिंचाई के जल के उपयोग के संबंध में कोई विवाद पैदा होता था, तो ग्राम-सभा या स्थानीय अधिकारी उक्त विवाद में मध्यस्थता करते थे।

खेतों की नियमित पैमाइश की जाती थी और उनके सीमांकन के लिये पत्थर लगाए जाते थे। सामान्यतः भूमि के दो वर्गीकरण थे – 1.) सिंचाई की सुविधायुक्त भूमि 2.) सिंचाई की सुविधाविहीन या शुष्क-भूमि। प्रथम श्रेणी की भूमि से दो या तीन फसलें तक उगाई जाती थी। अनाज में चावल, दालें, चना, जौ और तिलहन व्यापक रूप से उगाए जाते थे। सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में अन्न भी उगाया जाता था।नील और कपास की खेती भी व्यापक रूप से की जाती थी। पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों में व्यापक रूप से मसाले उगाए जाते थे। पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों में काली मिर्च और अदरक का उत्पादक होता था, जिनका विश्व के विभिन्न भागों में निर्यात किया जाता था। कर्नाटक के क्षेत्र में इलायची का खूब उत्पादन होता था। विजयनगर युग में उपवनों का भी खूब विकास हुआ। नारियल का तो सारे तटवर्ती क्षेत्रों में उत्पादन होता था। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि इस युग में सिंचाई तथा कृषि व्यवस्था काफी सुधारात्मक ढंग का संकेत देती है।

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