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धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम

धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम

धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम (results of religious reform movement)

धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम निम्नलिखित थे

प्रोटेस्टेन्ट धर्म मत का प्रसार

धर्म सुधार आंदोलन ने संपूर्ण यूरोप में एकमात्र रोमन कैथोलिक चर्च की प्रभुसत्ता को समाप्त कर दिया। मार्टिन लूथर ने जिस लूथरवादी प्रोटेस्टेन्टवाद को जर्मनी में लोकप्रिय बनाया, धीरे-धीरे उसका प्रसार यूरोप के सभी देशों में हुआ। सर्वत्र प्रोटेस्टेन्टवाद से प्रभावित परिष्कृत ईसाई चर्चों की स्थापना होने लगी । धर्म में शताब्दियों से व्याप्त कुरीतियों का अंत हुआ। विशुद्ध रूप से सात्विकता और मौलिकता पर आधारित ईसाई धर्म का प्रसार होने लगा। धर्म सुधार आंदोलन का अर्थ

मनुष्य के मानसिक चिन्तन के विभिन्न अवरोध समाप्त हो गए। जन्म से मृत्यु पर्यन्त धर्म का दास रह कर चर्च के चक्रव्यूह में फंसे मनुष्य के मोक्ष की कुंजी अभी तक पोप के पास थी। सुधारवादियों ने स्वयं मनुष्य को स्वतंत्र चिन्तन और धर्मपालन की सुविधा प्रदान कर दी। पूर्ण विश्वास, श्रद्धा और नैतिकता को धर्म में स्थान मिला। कर्मकाण्डों के स्थान पर प्रभु यीशु की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित हुई। अतः धर्म सुधार आंदोलन एक युगान्तकारी घटना सिद्ध हुई।

प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन

प्रोटेस्टेन्ट आंदोलन और अन्य सुधारवादी आंदोलनों की सफलता और लोकप्रियता ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि रोमन कैथोलिक धर्म को बचाना है तो उसके रूढिवादी, पारस्परिक स्वरूप में व्यापक सुधार करने होंगे। यह धर्म सुधार आंदोलन का ही परिणाम था, कि कैथोलिक धर्मावलंबियों ने भी सुधार आंदोलन को अपनाया, इसी को प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन कहा जाता है। इसका उद्देश्य था अपने ही चर्च के संगठन और धार्मिक सिद्धांतों में व्याप्त दोषों को दूर करना।

विभिन्न प्रयास

पोप पॉल तृतीय (1534-49ई.) ने कैथोलिक धर्म में सुधार की नीति अपनाई। भ्रष्ट व धन लोलुप पादरियों के स्थान पर विद्वान व धर्मनिष्ठ पादरी नियुक्त किए जाने लगे। अतः संत जीवन से परिपूर्ण पादरियों के ज्ञान एवं जीवन के प्रति पुनः लोग आकृष्ट होने लगे। कैथोलिक धर्मावलंबियों का डगमगाता विश्वास पुनः स्थायी होने लगा।

इटली व जर्मनी की सीमा पर स्थित ट्रेन्ट नामक नगर में कैथोलिक धर्म सभा का आयोजन किया गया, जिसमें ऐसे अनेक सुधारवादी विद्वान चिन्तकों को आमंत्रित किया गया, जो कैथोलिक धर्म सिद्धांतों की सात्विक व्याख्या कर सकें। 18 वर्षों तक निरंतर विचार एवं चिंतन मनन के बाद पोप, संत पादरियों, धर्म के मौलिक सिद्धांतों धर्म स्थलों और सप्त संस्कारों के प्रति पुनः आस्था व्यक्त की गयी। पादरियों को कठोर, सरल एवं सात्विक जीवन यापन का निर्देश दिया गया। लेटिन भाषा के साथ जन भाषाओं में भी धर्म साहित्य लेखन की छूट दी गयी। धार्मिक संस्कारों को शुल्क मुक्त कर दिया गया।

पाप-मोचन पत्रों की बिक्री का निषेध कर दिया गया। अनैतिक एवं भ्रष्ट पादिरयों के लिये धर्म न्यायालय में दंड की व्यवस्था की गयी। परिणाम स्वरूप कैथोलिक चर्च की प्रतिष्ठा में पुनः वृद्धि होने लगी।

जेसुइट संघ की स्थापना 1534 में की गयी। इग्नेशियस लोयोला, सोसाइटी ऑफ जीसस का संस्थापक था, जो स्वयं सैनिक से पादरी बना था। इस संघ के सदस्यों को प्रेरित किया गया कि वे अनुशासनबद्ध रहकर कैथोलिक धर्म की निस्वार्थ सेवा करें। यूरोप एवं विश्व के अन्य देशों में इसके सदस्यों को धर्म प्रचास हेतु भेजा गया। शिक्षण संस्थायें खोली गयी। जेसुइट जहां भी जाते थे अपने सादगी पूर्ण नैतिक जीवन से लोगों को प्रभावित करते थे। इन्होंने भारत, चीन, अमेरिका आदि देशों में कैथोलिक ईसाई मत का प्रचार प्रसार किया।

इन्क्वीजिशन न्यायालय की स्थापना करने से भी प्रोटेस्टेन्टवाद की प्रगति पर रोक लगाने में सहायता मिली। नास्तिकों, धर्म विरोधियों, विद्रोही धर्मप्रचारकों को कठोरतम दंड दिये जाने का प्रावधान इन न्यायालयों के माध्यम से किया गया। इन न्यायालयों ने कैथोलिक धर्म विरोधियों को कठोरतम दंड दिये।

राज्यों की शक्ति का अभ्युदय

धर्म सुधार आंदोलन की निरंतर सफलता ने राज्यों को अपना धर्म चुनने की स्वतंत्रता प्रदान की, जिससे रोमन कैथोलिक पोप का आधिपत्य समाप्त हुआ। जर्मनी में लूथरवाद, इंग्लैण्ड में एंग्लीकनवाद, स्वीडन में काल्विनवाद को स्वीकार किया गया। राजतंत्रात्मक शासन की निरंकुश राजशक्ति पर धर्म का अवरोध समाप्त हो गया। प्रोटेस्टेन्टवाद के मानववादी दृष्टिकोण ने प्रजातंत्रात्मक भावना का भी विकास किया।

प्रतिवादी धर्म सुधार के पश्चात कैथोलिक पोप ने भी राष्ट्रीय चर्च के धार्मिक अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार राजाओं को दे दिया। अतः राज्यों की शक्ति में निरंतर अभिवृद्धि हुई और लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का भी पर्याप्त विकास हुआ।

धर्माधारित गृह युद्धों का प्रारंभ

धर्म सुधार आंदोलन ने यूरोप के ईसाई धर्म को दो भागों में विभाजित कर दिया। यह धर्म विभाजन राज्यों में परस्पर गुटबंदी का भी कारण बना। वे आपस में लङने लगे। धर्म के नाम पर इनमें संघर्ष प्रारंभ हो गए। हॉलैण्ड में धार्मिक युद्ध हुए। फ्रांस में ज्विंगली के समर्थक (ह्यूजोनोट्स) ने धार्मिक स्वतंत्रता हेतु युद्ध किया। जर्मनी के राज्यों में भी धर्म के नाम पर युद्ध हुए। इन धार्मिक युद्धों से परेशान होकर शांति प्रिय लोग स्वदेश छोङ कर अन्य देशों में जाकर बसने लगे। अमेरिका में अधिकांश लोग धर्म कलह से दुःखी होकर ही गए थे।

नगरीय संस्कृति का विकास

धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम स्वरूप नव धनाढ्य व्यापारियों को पूंजी निवेश एवं ब्याज के लेन देन की छूट मिल गयी। धार्मिक प्रतिबंधों के हट जाने से वाणिज्य व व्यापार में प्रगति हुई। समृद्ध लोगों ने उद्योगों में पूंजी निवेश किया। अनेक लोगों को रोजगार मिला। लोग जीविकोपार्जन हेतु उद्योगों में काम करने लगे जिससे नगरीय संस्कृति का विकास हुआ। राष्ट्रीय संपत्ति में भी वृद्धि होने लगी। नगरों में उद्योगपतियों ने सुन्दर भवन, स्मारक व मूर्तियां आदि बनवाई। औद्योगिक नगर बसे। नगरीय संस्कृति का उदय हुआ।

शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में विकास

धर्म सुधार आंदोलन के कारण शिक्षा पर रूढिवादी धर्म परंपराओं का प्रभाव हट गया। प्रगतिशील एवं अनेक नवीन तर्क आधारित विषय पाठ्यक्रमों में शामिल किए गए। धर्म सुधारकों ने अनेक साहित्यिक ग्रंथों की रचना की। जनभाषाओं में धर्मशास्त्र एवं नीतिशास्त्र लिखे गए। यूरोप के जन सामान्य में नवीन विवेकयुक्त शिक्षा के प्रति आकर्षण बढा। चर्च के स्थान पर अन्य सामाजिक संस्थाओं अथवा शासन ने विद्यालय खोलना प्रारंभ किया। बाइबिल का अनुवाद अनेक भाषाओं में हुआ। चर्च के प्रभाव से मुक्त होकर मनुष्य की चिन्तन शक्ति स्वतंत्र सृजन में लगने लगी। शिक्षा का स्वरूप प्रगतिशील, तार्किक एवं विवेकशील होने लगा।

आर्थिक स्मृद्धि

चर्च की अथाह चल-अचल संपत्ति जिसका राज्य के विकास में कोई उपयोग नहीं हो पा रहा था, धर्मसुधार आंदोलन के बाद चर्च की भूमि का भूमिहीन कृषकों में वितरण किया गया, जिससे राज्य को राजस्व की प्राप्ति होने लगी। धर्म बंधन से मुक्त होकर व्यापारी पूंजी निवेश द्वारा व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग धंधों का विकास करने लगे। राष्ट्रीय पूंजी में अभिवृद्धि होने लगी। श्रम की महत्ता स्थापित हुई जिसका राष्ट्र के औद्योगिक विकास में उपयोग हुआ।

व्यक्ति की महत्ता स्थापित

धर्म के रूढिवादी आवरण से आवृत समाज में व्यक्ति का कोई व्यक्तिगत महत्त्व नहीं था। धर्म बंधन मुक्त होकर उसने स्वतंत्र होकर आत्मचिन्तन करना शुरु किया। व्यक्तिवादी विचारधारा का उदय हुआ। चर्च व पादरी की मध्यस्थता को अस्वीकृत किया जाने लगा। स्वयं व्यक्ति ही अपने पाप या पुण्य का निर्णायक हुआ। धर्म की महत्ता के स्थान पर व्यक्ति की महत्ता स्थापित हुई। व्यक्ति साध्य बना, राज्य व धर्म उसके साधक हुए।

नैतिक गुणों का विकास

धर्म सुधार आंदोलन के संबंध में सेबाइन ने लिखा है कि राष्ट्रीयता का जन्म इसी विद्रोह से हुआ था। प्रोटेस्टेंट संप्रदाय अनेक प्रकार से राष्ट्रीयता का जनक सिद्ध हुआ। व्यापार से प्रतिबंध हटे, ब्याज लेना उचित व्यापार बन गया। बाइबिल के विचारों के विपरीत संपत्ति प्रभु का आशीर्वाद समझी जाने लगी।

धर्म सुधार के साथ ही यूरोप में मध्य युग का अंत और आधुनिक युग का आगमन हुआ। धर्म सिद्धांतों में परिवर्तन कल्याणकारी सिद्ध हुए। राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। लोकतांत्रिक सिद्धांतों का विकास हुआ। कला, विज्ञान, साहित्य में अत्यन्त प्रगति हुई।

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