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धर्म सुधार आंदोलन का अर्थ

धर्म सुधार आंदोलन का अर्थ

धर्म सुधार आंदोलन का अर्थ (Meaning of religious reform movement)

पुनर्जागरण काल से पूर्व मध्ययुगीन यूरोप का समाज पूर्णतः धर्मनियंत्रित था। मनुष्य के जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक ईसाई चर्च का प्रभाव था। जीवन का कोई भी क्रिया कलाप चर्च से बाहर संभव नहीं था। चर्च का संगठित तंत्र रोम से लेकर यूरोप के छोटे-छोटे गांवों तक फैला हुआ था।

चर्च के असीमित विशेषाधिकारों के विरोध की कल्पना करना भी, मध्ययुगीन राजा से रंक तक, किसी के लिये संभव नहीं था। पुनर्जागरण की नवीन चेतना जनित वैज्ञानिक दृष्टि ने मध्यकाल की यूरोपीय धार्मिक मान्यताओं को हिला दिया। छापेखाने की खोज और स्थानीय भाषाओं के प्रति उपजे अनुराग ने, विद्वान लेखकों की प्रबुद्ध लेखनी को गति प्रदान की। मानववादी साहित्यकारों ने धर्म एवं दर्शन की प्रचलित रूढिवादी मान्यताओं पर प्रहार किया। बौद्धिक चेतना से उत्पन्न नवीन विचारधारा ने धार्मिक अंधविश्वासों और कुप्रथाओं की नींव को जङ से हिला दिया।

धर्म सुधार आंदोलन का अर्थ

सेबाइन के अनुसार, धर्म सुधार आंदोलन ने सर्वव्यापी चर्च के एकाधिकार पर आक्रमण किया, जो मध्ययुग की सबसे बङी समस्याओं में से एक था। यह महान धार्मिक उफान केवल आने वाले धार्मिक परिवर्तनों की गवाही ही नहीं था, वरन एक युग के प्रातः काल की घोषणा करने वाला भी था।

डेविस के शब्दों में धर्म सुधार, पुनर्जागरण से निकट रूप से संबंधित वह महान धार्मिक आंदोलन है जो कि धर्म सुधार आंदोलन के नाम से विख्यात है।

वारनर और मार्टिन के अनुसार धर्म सुधार पोप की सांसारिकता और भ्रष्टाचार के विरुद्ध नैतिक विद्रोह था।

डब्ल्यू.एन.वीच. के शब्दों में यह धर्म सुधार आंदोलन ही था, जिसने ईसाई धर्म संगठन का आखिरी चिन्ह भी मिटा दिया और पुनर्जागरण का कार्य पूरा किया।

हेज ने लिखा है कि, विवेक की जागृति (पुनर्जागरण) के परिणाम स्वरूप बहुसंख्यक ईसाई, कैथोलिक चर्च के आडंबरों के कटु आलोचक हो गए थे, वे चर्च नामक संस्था में आमूल चूल परिवर्तन चाहते थे। इसी सुधारवादी प्रयास के परिणाम स्वरूप जो धार्मिक उथल पुथल हुई और जिसके कारण, ईसाई धर्म के नवीन धार्मिक सम्प्रदाय अस्तित्व में आए, इसी को धर्म सुधार आंदोलन कहते हैं।

सारांशतः धर्म सुधार आंदोलन से अभिप्राय, कैथोलिक चर्च में व्याप्त बुराइयों को दूर करना और मनुष्य के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्थापित पोप के प्राधान्य के विरुद्ध विद्रोह कर उसके अधिकारों को सीमित करना था। धर्म सुधार 16 वीं शताब्दी के यूरोप की अति महत्त्वपूर्ण घटना थी जिसने धर्म को राजनीति से पृथक कर दिया।

इस आंदोलन के दो प्रमुख उद्देश्य थे – 1.) यूरोप के ईसाईयों के आध्यात्मिक और नैतिक जीवन को उन्नत कर मौलिकता प्रदान करना 2.) रोम के कैथोलिक पोप में व्याप्त, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, सांसारिकता, विलासिता एवं असीमित अधिकारों के असात्विक उपयोग को नष्ट करना।

धर्म सुधार आंदोलन से पूर्व चर्च एवं पोप की स्थिति

यूरोप में बङे से बङे राजा से लेकर रंक तक सभी पोप के एक छत्र साम्राज्य के अधीन थे। राजा की राजनीतिक मान्यता पोप की इच्छा पर निर्भर थी। धर्म मनुष्य की स्वयं की इच्छा का विषय नहीं था।

जन्म लेते ही मनुष्य स्वतः ही चर्च के अधीन आ जाता था, जिसकी अवहेलना करना दंडनीय अपराध था। चर्च का राज्य असीमित था। मनुष्य आजीवन चर्च द्वारा संपादित, नामकरण, कन्फर्मेशन, पश्चाताप, स्थानान्तरण, पवित्र कार्य, विवाह, स्वास्थ्य लाभ या आत्म शांति आदि संस्कारों में बंधा रहता था। ये संस्कार पादरी द्वारा संपन्न कराये जाते थे।

शिक्षा चर्च के प्रभाव में चर्च द्वारा ही दी जाती थी। मनुष्य के नैतिक जीवन एवं मोक्ष प्राप्ति हेतु, चर्च अपरिहार्य था। मध्यकालीन चर्च अत्यधिक विकृत, धनलोलुप एवं भ्रष्ट हो गया था। सम्राट भी पोप के समक्ष नतमस्तक होने को बाध्य थे। पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट हेनरी, पोप ग्रेगोरी के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध करने का साहस करने लगा तो उस पर इतना भारी दबाव पङा कि उसे शीतकाल में नंगे पैर, आल्पस पर्वत पार करके पोप के समक्ष मांगने हेतु उपस्थित होना पङा।

पोप रोमन कैथोलिक धर्म का सर्वोच्च धर्माधिकारी एवं धर्म गुरु था तथा उसके आदेश सर्वत्र मान्य थे। पोप राज्यों के सीमा विवाद, उत्तराधिकार का प्रश्न, राजा के विवाह संबंधी निर्णय करता था। पोप का विरोध और अवहेलना करना अनैतिक एवं दंडनीय था। पोप के अधीन 12 कार्डिनल, भिन्न-भिन्न राज्यों के प्रमुख पुरोहित होते थे। ये ही पोप का चुनाव करते थे। प्रांतों में पोप द्वारा नियुक् पेट्रिऑर्क होते थे। छोटे प्रान्तों में आर्क बिशप, नगर (डायोसीज) या कस्बे के चर्च में बिशप, छोटे गांव (पेरिस) में पादरी होते थे। सहायक पादरी को डिकन कहा जाता था। गृहस्थ (सेक्यूलर) पादरी जन संपर्क में रहते थे और नियमित (रेग्यूलर) पादरी मठों में रहकर धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने में व्यस्त रहते थे।

चर्च के सात्विक ढाँचे में अनेक दोष व्याप्त हो गए थे। कार्डिनलों एवं पादरियों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया। इन धर्माधिकारियों का जीवन अनैतिक, भ्रष्ट एवं विलासिता पूर्ण हो गया। पोप स्वयं विलासी, चरित्रहीन एवं धन लोभी हो गए। पादरी वर्ग में नियुक्ति का आधार योग्यता न होकर धन हो गया। अविवाहित रहने की बाध्यता के बाद भी पादरी अनेक अवैध संतानों के पिता होते थे। इनके भ्रष्ट आचरण के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस करने वालों की आवाज दबा दी जाती थी। पुनर्जागरण काल में समाज में परिवर्तन का वातावरण निर्मित हुआ, जिसने धर्म सुधारों के प्रयत्नों को सफलता प्रदान की।

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