इतिहासराजस्थान का इतिहास

बूंदी के साथ कुम्भा के संबंध कैसे थे

बूंदी के साथ कुम्भा के संबंध

बूंदी के साथ कुम्भा के संबंध – दिल्ली, मालवा और मेवाङ के मध्य में स्थित हाङौती क्षेत्र, शूरवीर हाङा राजपूतों की भूमि रही है। हाङाओं के कारण ही इस क्षेत्र को हाङौती कहा जाता था। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण हाङौती क्षेत्र को लंबे समय तक तीनों तरफ से अतिक्रमण का दबाव सहन करना पङा।

अपने सीमित साधनों के उपरांत भी हाङा लोग अपने क्षेत्र की स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये हर समय सजग रहते थे और जब शत्रु को अधिक बलवान अनुभव करते तो उसे सोना-चाँदी देकर विदा करने का प्रयास भी करते थे।

मेवाङ के ख्यातकारों के अनुसार बूँदी के शासक पहले मेवाङ के सामंत थे परंतु बाद में अवसर पाकर स्वतंत्र शासक बन बैठे। बूँदी के राजा बैरीसाल (1413-1458ई.) के समय में बूँदी-मेवाङ संबंधों में काफी तनाव आ गया। इसका मुख्य कारण बैरीसाल द्वारा मालवा के सुल्तान होशंगशाह को गागरोण जीतने में सहयोग देना था।

मेवाङ के राणा उसके इस कृत्य को कभी न भुला सके। उनके हिसाब से इस सहयोग का सीधा-साधा अर्थ था – बूँदी द्वारा मेवाङ की प्रभुसत्ता के स्थान पर मालवा की प्रभुसत्ता को स्वीकार करना।

महाराणा कुम्भा के शासन के प्रारंभिक वर्षों में रणमल ने बूँदी पर आक्रमण करके माण्डलगढ को जीत लिया और बूँदी के शासक को मेवाङ की प्रभुसत्ता मानने के लिये विवश किया। इससे मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को अत्यधिक असंतोष हुआ।

परंतु चूँकि वह इस समय अपने राज्य की आंतरिक समस्याओं में फँसा हुआ था, अतः वह उस समय कोई प्रभावकारी कदम नहीं उठा पाया। 1442 ई. में उसने हाङौती क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। उसके इस आक्रमण का क्या परिणाम निकला, इस बारे में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है, परंतु महाराणा कुम्भा को संदेह अवश्य हो गया कि बूँदी का शासक मालवा के साथ मिला हुआ है।

अतः महमूद खिलजी के वापिस लौटते ही कुम्भा ने हाङौती पर सैनिक अभियान किया और इस क्षेत्र पर पुनः अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली।

1446 ई. में महमूद खिलजी ने पुनः हाङौती पर आक्रमण किया। कुम्भा ने इस बार भी महमूद के आक्रमण के विरुद्ध हाङाओं को किसी प्रकार की सैनिक सहायता न दी। उधर महमूद ने हाङाओं में फूट डालकर लाभ उठाने की सोची। हुआ यह कि बैरीसाल ने अपने बङे पुत्र भाणदेव की इच्छा के विरुद्ध कोटा का राज्य अपने छोटे पुत्र सांडा को दे दिया।

सांडा गुप्त रूप से महाराणा कुम्भा से मिला हुआ था। अतः 1448-49 ई. के मध्य महमूद खिलजी ने कोटा पर आक्रमण करके सांडा को पदच्युत कर दिया और उसके स्थआन पर भाणदेव को कोटा का राज्य सौंप दिया। इस अवसर पर कुम्भा न तो सांडा की कोई सहायता कर पाया और न ही बैरीसाल की, जो दिखावे के तौर पर ही सही, अभी तक कुम्भा के पक्ष में बना हुआ था।

महमूद की वापसी के बाद बैरीसाल ने उसके द्वारा नियुक्त सीमान्त अधिकारियों पर हमला करके उन्हें खदेङ दिया। इससे महमूद खिलजी काफी क्रोधित हो उठा और 1457-58 ई. के मध्य उसने बूँदी राज्य पर जोरदार आक्रमण किया। बैरीसाल लङता हुआ मारा गया।

उसके दो पुत्रों को बलात मुसलमान बना दिया गया। भाणदेव (भाँडा)जो प्रारंभ से ही महमूद खिलजी के पक्ष में रहा था, को बूँदी का संपूर्ण राज्य सौंपकर महमूद खिलजी वापिस लौट गया। भाणदेव ने 1503 ई. तक बूँदी पर शासन किया। बूँदी के हाङाओं के संबंध में कुम्भा की नीति शुरू से ही दोषपूर्ण रही जिसके परिणामस्वरूप कुम्भा को न केवल माण्डलगढ से हाथ धोना पङा अपितु हाङाओं की स्वामिभक्ति से भी वंचित होना पङा।

इसके विपरीत डॉ.गोपीनाथ शर्मा का मानना है कि कुम्भा ने बूँदी के शासक को खिराज गुजार घोषित कर उसे अपने राज्य का स्वामी रहने दिया। मेवाङ के सीमान्त भाग में मित्र राज्य रखकर कुम्भा ने अपनी विचारधारा नीति का परिचय दिया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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