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मंडी अर्थात गल्ला बाजार व्यवस्था क्या थी

मंडी अर्थात गल्ला बाजार व्यवस्था -प्रथम और सबसे कठिन अधिनियम (जाब्ता) सभी प्रकार के गल्ले के भाव निश्चित करने से संबंधित था। खुसरो और बरनी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि निश्चित मूल्यों में कोई वृद्धि नहीं की जा सकती थी। निश्चित किए गए मूल्य निम्नलिखित थे –

गेहूँ –7.5 जीतल प्रति मन
जौ – 4 जीतल प्रति मन
चावल – 5 जीतल प्रति मन
मोठ – 3 जीतल प्रति मन
शक्कर-1.50 जीतल प्रति सेर
गुङ – 1/3 जीतल प्रति सेर
मक्खन या घी – 1 जीतल प्रति 3 सेर
नमक – जीतल प्रति 1/2 मन

इसके अलावा खाद्य सामग्रियों में, जैसे दालों और फलियों की, कीमतें भी इसी प्रकार निर्धारित की गयी होंगी। आज इन कीमतों का आधुनिक सिक्कों और बाटों में हिसाब करना अत्यंत कठिन है किंतु मोटे तौर से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अलाई टंके (जो भारत में अंग्रेजी राज्य के ऊपर के तौल का था किंतु जिसमें चाँदी अधिक थी) में दिल्ली का नागरिक 88 सेर गेहूँ, 98 सेर चना, चावल या दालें और 250 सेर से अधिक मोठ खरीद सकता था। ध्यान रहे इन अनुमानित आँकङों में 15 से 20 प्रतिशत मामूली भूल भी हो सकती है।

गल्ला मंडी में भाव की स्थिरता अलाउद्दीन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। जब तक वह जीवित रहा, इन मूल्यों में तनिक भी वृद्धि नहीं हुई। कीमतें कम या नीचे कर दी गयी थी। बरनी के मत से सहमत होना कठिन है कि ये उसके पूर्ववर्ती और परवर्ती शासकों के काल में विद्यमान कीमतों की तुलना में सबसे नीचे थी। बलबन के समय गेहूँ अधिक सस्ता था और फीरोज तुगलक के समय भी मूल्य अलाउद्दीन के समय के मूल्य स्तर पर आ गए थे। इब्राहीम लोदी के समय कीमतें लगभग उतनी ही थी। अलाउद्दीन के समय में कीमतों का सस्तापन उतने महत्व की बात नहीं है जितना कि बाजार में निश्चित कीमतों की स्थिरता है। इसे उसके राज्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। कीमतें निश्चित करके सुल्तान ने अनाज का बाजार और सरकारी अनाज विक्रयालय स्थापित किए। यहाँ से जनता व दुकानदार अन्न आदि खरीद सकते थे। अनाज-बाजार में दो प्रकार के व्यापारी थे। प्रथम वे जिनकी दिल्ली में स्थायी दुकानें थी। दूसरे काफिले वाले व्यापारी थे जो नगर में अनाज लाते थे और उसे दुकानदारों तथा जनता को बेचते थे। अलाउद्दीन के नवीन आदेशों के परिणामस्वरूप व्यापारियों को अधिक मुनाफाकोरी का अवसर नहीं मिलता था। उत्पादन मूल्य उत्पादकों की लागत से बहुत ज्यादा नहीं होता था। इससे उत्पादकों को उनकी लागत का उचित मूल्य भी मिलता था और व्यापारियों को अधिक मुनाफाकोरी का अवसर नहीं मिलता था। उत्पादन मूल्य उत्पादनों की लागत से बहुत ज्यादा उन्हें बाजार के शहना के पास अपने नाम दर्ज कराने पङते थे। अनाज व्यापार के शहना मलिक कबूल ने घुमक्कङ व्यापारियों (कारवाँ या बंजारा) के नेताओं को पकङ लिया और उन्हें दिल्ली के बाजार में नियमित रूप से अनाज लाकर निश्चित दरों पर बेचने के लिये राजी किया। उन्हें शहना के प्रत्यक्ष नियंत्रण में यमुना नदी के तट के ग्रामों में अपने परिवार सहित बसने का आदेश दिया गया। सामान्य समय में इन व्यापारियों ने बाजार में पूरा अनाज लाने के करारनामों पर सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर किए। इस काल में सरकारी गोदाम छूने की आवश्यकता नहीं पङती थी क्योंकि बाजार में अनाज मुक्त रूप से उपलब्ध था।

अलाउद्दीन ने घुमक्कङ व्यापारियों के हितों का ध्यान रखते हुए उन्हें आसानी से अनाज उपलब्ध कराने के लिए भी कदम उठाए। दोआब और दिल्ली के आसपास के प्रदेशों के समस्त दंडाधिकारियों तथा राजस्व इकट्ठा करने वाले अधिकारियों (शहनागान और मुतसर्रिफान) को आदेश दिया कि वे सुल्तान को इस आशय का लिखित करार दे कि वे कृषकों से उनकी उपज का 50 प्रतिशत भू-राजस्व वसूल करेंगे। इस प्रकार सारा उपलब्ध अनाज बाजार में आता था और उसे भंडारगृहों में रखा जाता था। सुल्तान ने काला बाजार और मुनाफाखोरी पर पूर्ण रोक लगा दी।

मौसम के आकस्मिक परिवर्तनों का सामना करने के लिए अलाउद्दीन ने शासकीय अन्न भंडार बनाए। ये पूरी तरह भरे रहते थे। बरनी कहता है, कि शायद ही कोई ऐसा मोहल्ला था, जहाँ खाद्यान्नों से भरे दो या तीन सरकारी भंडार नहीं थे। इन गोदामों का अनाज केवल आपातकालीन स्थितियों में निकाला जाता था। वर्ष की कमी या अन्य किसी कारण से यदि फसल नष्ट हो जाए या यातायात के किसी संकट के कारण राजधानी में अनाज न आ पाए तो इन गोदामों से अनाज निकालकर घुमक्कङ व्यापारियों को अनाज मंडी में बेचने के लिये दिया जाता था। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि अलाउद्दीन ने राशन व्यवस्था भी लागू की थी। अकाल के साथ प्रत्येक घर को आधा मन अनाज प्रतिदिन दिया जाता था। यह व्यवस्था केवल अकाल के समय लागू की जाती थी अन्यथा अनुकूल मौसम में लोग इच्छानुसार अनाज खरीद सकते थे। बरनी लिखता है कि अनावृष्टि के समय दरिद्र और असहाय लोग बाजारों में एकत्र हो जाते थे, और कभी-कभी कुचलकर मर भी जाते थे। किंतु ऐसा होने पर अधिकारी शहना को दंड दिया जाता था। इस प्रकार राशनिंग की पद्धति अलाउद्दीन की नई सूझ थी और बरनी कहता है कि वर्षा की अनियमितता होने पर भी दिल्ली में अकाल नहीं पङा। किंतु कोई राशन कार्ड आदि की व्यवस्था नहीं थी। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जो व्यक्ति बाजार जाता था उसे निर्धारित मात्रा में अनाज मिलता था।

अलाउद्दीन ने अपने बाजार नियंत्रण की सफलता के लिये कुशल कर्मचारी नियुक्त किए। उसने मलिक कबूल को शहना या बाजार का अधीक्षक नियुक्त किया। उसके कार्य में सहायता देने के लिये घुङसवारों और पैदल व्यक्तियों की विशाल टुकङी दी गयी। उसे विस्तृत अधिकार दिए गए। वह सारे व्यापारियों पर नियंत्रण रखता था और बाजार की कीमतों के उतार-चढाव तथा बाजार की सामान्य स्थिति की सूचना सुल्तान को देता था। शहना निरंतर सुल्तान से आतंकित रहता था क्योंकि उसके किसी भी दोष के लिये उसे दंड दिया जा सकता था। बाजार में अपनी ऊँची सत्ता के बावजूद मलिक कबूल सुल्तान के आदेशों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता था।

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