इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान का एकीकरण कैसे हुआ

राजस्थान का एकीकरण – भारतीय शहीदों के बलिदान से तथा भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सद्प्रयासों से, अंत में इंग्लैण्ड की संसद ने 16 जुलाई, 1947 ई. को भारतीय संवतंत्रता अधिनियम पारित कर दिया। फलस्वरूप 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत अँग्रेजों की दासता से मुक्त हो गया।

परंतु भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की धारा आठ ने भारतीय स्वतंत्रता को पुनः संकटग्रस्त कर दिया। क्योंकि अधिनियम की आठवीं धारा के अनुसार ब्रिटिश सरकार की भारतीय देशी रियासतों पर स्थापित सर्वोच्चता समाप्त कर दी गयी और यह सर्वोच्चता पुनः देशी रियासतों को हस्तांतरित कर दी गयी। इसका अर्थ यह था कि देशी रियासतें स्वयं इस बात का निर्णय करेंगी कि वह किस अधिराज्य में (भारत अथवा पाकिस्तान में) अपना अस्तित्व रखेंगी। यदि कोई रियासत किसी अधिराज्य में शामिल न हो तो वह स्वतंत्र राज्य के रूप में भी अपना अस्तित्व रख सकती थी।

यदि ऐसा होने दिया जाता तो भारत अनेक छोटे-छोटे टुकङों में बँट जाता और भारत की एकता नष्ट हो जाती। किन्तु भारत के लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने अपनी दूरदर्शिता व कूटनीति से इन रियासतों के मसले को हल कर दिया। भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा के बाद भारत सरकार का राजनैतिक विभाग, जो अब तक देशी रियासतों पर नियंत्रण रखता था, समाप्त कर दिया और 5 जुलाई, 1947 ई. को सरदार पटेल की अध्यक्षता में रियासती सचिवालय की स्थापना की गयी।

रियासती सचिवालय इन सभी छोटी-बङी रियासतों का विलीनीकरण या समूहीकरण चाहता था जो अपने सीमित साधनों से प्रगतिशील शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ थे। इन रियासतों का समूहीकरण इस प्रकार किया जाना था कि भाषा, संस्कृति और भौगोलिक सीमा की दृष्टि से एक संयुक्त राज्य में संगठित हो सकें।

राजस्थान का एकीकरण के प्रारंभिक प्रयास

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राजस्थान में 22 छोटी बङी रियासतें थी। इसके अलावा अजमेर-मेरवाङा का छोटा सा क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत था। इन सभी रियासतों तथा ब्रिटिश शासित क्षेत्र को मिलाकर एक इकाई के रूप में संगठित करने की अत्यन्त ही विकट समस्या थी।

वैसे, 1939 ई. में पहली बार राजस्थान की रियासतों के समूहीकरण का प्रश्न उठाया गया था, जबकि तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो के आदेश से राजस्थान की रियासतों में नियुक्त ब्रिटिश अधिकारियों व रियासतों के शासकों से इस संबंध में बातचीत की थी, किन्तु ये शासक इसके लिये सहमत नहीं हुए। तत्पश्चात् 10 जुलाई, 1945 ई. को जब इंग्लैण्ड में मजदूर दल की सरकार गठित हुई तब भारत की स्वाधीनता भी सुनिश्चित दिखाई देने लगी। अतः रियासतों में अपने भविष्य को लेकर खलबली मचना स्वाभाविक था।

इसी संदर्भ में सितंबर, 1946 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद भी यह निर्णय ले चुकी थी कि राजस्थान को एक ही ही इकाई के रूप में भारतीय संघ में सम्मिलित होना चाहिए। इस दिशा में राजस्थान में भी प्रयत्न शुरू किये परंतु उसे विशेष सफलता नहीं मिली। फिर भी, कोटा का महाराव भीमसिंह इस प्रकार के प्रयासों को निरंतर समर्थन देता रहा।

इसके बाद मेवाङ के महाराणा भूपालसिंह ने 7-8 नवंबर, 1946 ई. को राजस्थान, गुजरात और मालवा के अनेक शासकों व उनके प्रतिनिधियों का उदयपुर में एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें महाराणा ने सभी रियासतों को मिलाकर एक इकाई बनाने का प्रस्ताव रखा। उपस्थित शासकों ने प्रस्ताव पर विचार करने का वायदा किया। अतः महाराणा ने 23 मई, 1947 ई. को उदयपुर में दूसरा सम्मेलन आयोजित किया।

इसमें महाराणा ने उपस्थित नरेशों को चेतावनी देते हुये कहा कि हम लोगों ने मिलकर अपनी रियासतों की यूनियन नहीं बनवायी तो सभी रियासतें, जो प्रांतों के समकक्ष नहीं हैं, निश्चित रूप से समाप्त हो जायेंगी। तब जयपुर, जोधपुर और बीकानेर रियासतों को छोङकर शेष रियासतों ने सिद्धांततः एक राज्य के निर्माम का सिद्धांत स्वीकार कर लिया और संविधान निर्माण के लिये एक समिति भी गठित कर दी गयी, लेकिन इसका भी कोई सुपरिणाम नहीं निकला।

राजस्थान की छोटी रियासतों के विलय के संदर्भ में भारत सरकार के रियासती सचिवालय ने निर्णय लिया कि स्वतंत्र भारत में वे ही रियासतें अपना पृथक अस्तित्व रख सकेंगी जिनकी आय एक करोङ रुपये वार्षिक और जनसंख्या दस लाख या उससे अधिक हो। इस मापदंड के अनुसार राजस्थान में केवल जोधपुर, जयपुर और बीकानेर ही ऐसी रियासतें थी जो अपना पृथक अस्तित्व रख सकती थी।

अतः राजस्थान की छोटी रियासतें यह तो अनुभव कर रही थी कि स्वतंत्र भारत में आपस में मिलकर स्वावलंबी इकाइयाँ बनाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है, परंतु ऐतिहासिक तथा कुछ अन्य कारणों से शासकों में एक दूसरे के प्रति अविश्वास और ईर्ष्या भरी हुई थी। राजस्थान की बङी रियासतों की ओर से एकीकरण की दिशा में किये गये प्रयत्नों को छोटी रियासतों ने इस रूप में लिया कि बङी रियासतें, छोटी रियासतों को नगल जाना चाहती हैं। उनकी यह आशंका काफी अंशों तक उचित भी थी।

मेवाङ के महाराणा छोटी रियासतों का मेवाङ में विलय कर वृहत्तर मेवाङ का निर्माण चाहते थे और फिर जयपुर, जोधपुर और बीकानेर के साथ मिलकर ऐसा संघ बनाना चाहते थे जो भारतीय संघ में महत्त्वपूर्ण इकाई के रूप में अपनी भूमिका निभा सके। जयपुर का महाराजा तो अंत तक यही प्रयत्न करता रहा कि राजस्थान की रियासतों को तीन या चार इकाइयों में बाँट दिया जाय तथा करौली एवं अलवर को जयपुर में मिला दिया जाय। कोटा का महाराव भीमसिंह, कोटा, बूँदी व झालावाङ को मिलाकर एक संयुक्त संघ बनाना चाहता था।

इसी प्रकार डूँगरपुर का महारावल लक्ष्मणसिंह, डूँगरपुर, बाँसवाङा, कुशलगढ व प्रतापगढ को मिलाकर एक अलग इकाई बनाना चाहता था। जोधपुर के शासक हनुवंतसिंह तो पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना के कहने पर पाकिस्तान में जाने को तैयार थे। परंतु वी.पी.मेनन के प्रयासों तथा लार्ड माउण्टबेटन के समझाने पर जोधपुर शासक ने अपनी रियासत को पाकिस्तान में विलय करने का विचार त्याग दिया। राजस्थान की रियासतों के शासकों के विभिन्न दृष्टिकोण से स्पष्ट था कि प्रबल जनमत और शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता ही इन रियासतों को एकीकरण के लिये विवश कर सकती थी।

राजस्थान के विभिन्न राजनैतिक संगठन वृहत राजस्थान के निर्माण के लिये प्रयत्न कर रहे थे। अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की राजपूताना प्रान्तीय सभा इस संबंध में एक प्रस्ताव भी पारित कर चुकी थी। अतः प्रांतीय सभा के प्रस्ताव से एकीकृत राजस्थान बनाने की कल्पना उभर कर सामने आ चुकी थी। इसके बीच-बीच में रियासतों के प्रजा मंडल अथवा प्रजा परिषद भी राजस्थान के निर्माण की आवाज उठाते रहे।

मार्च, 1948 ई. में प्रांतीय सभा की कार्य समतिि ने स्पष्ट रूप से घोषणा कर दी थी कि राजस्थान की सभी रियासतों और अजमेर-मेरवाङा को मिलाकर वृहत राजस्थान बनाने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं है। इसी प्रकार श्री राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी दल भी अखिल भारतीय स्तर पर वृहत राजस्थान राज्य के निर्माण की माँग कर रहा था। अतः राजस्थान की जन प्रतिनिधि संस्थाओं ने एकीकृत राजस्थान के निर्माण के लिये प्रबल जनमत तैयार कर दिया।

फलस्वरूप भारत सरकार के रियासती सचिवालय ने सभी रियासतों को मिलाकर एकीकृत राजस्थान का निर्माण करने का निश्चय कर लिया। किन्तु यह अत्यन्त कठिन था, विशेषकर उन परिस्थितियों में जबकि रियासतों के शासकों के दृष्टिकोण में पारस्परिक विरोध था। अतः इस काम के लिये बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, संयम और कूटनीति की आवश्यकता थी और इसीलिए यह काम बङी सावधानी से धीरे-धीरे सम्पन्न किया गया। वस्तुतः एकीकृत राजस्थान का निर्माण पाँच चरणों में पूरा किया गया-

  • प्रथम चरण में मत्स्य संघ का निर्माण किया गया जिसमें अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली को शामिल किया गया ।
  • द्वितीय चरण में संयुक्त राजस्थान का निर्माण किया गया जिसमें कोटा, बूँदी, झालावाङ, डूँगरपुर, बाँसवाङा, प्रतापगढ, टोंक, किशिनगढ और शाहपुरा शामिल किये गये।
  • तृतीय चरण में उदयपुर को संयुक्त राजस्थान में शामिल किया गया।
  • चतुर्थ चरण में जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर राज्यों को संयुक्त राजस्थान में शामिल कर वृहत राजस्थान का निर्माण किया गया।
  • पाँचवें चरण मत्स्य संघ को वृहत राजस्थान में शामिल कर दिया गया।

राजतंत्र के अंतिम अवशेषों की समाप्ति

वृहत राजस्थान के निर्माण के बाद भी राजतंत्र के अंतिम अवशेष के रूप में राजप्रमुख के नवसृजित पद रह गये थे। भारतीय संविधान के अनुसार भारत में प्रथम श्रेणी में वे राज्य थे जो ब्रिटिशकाल में प्रान्त कहलाते थे, जैसे – बंबई, बिहार, उत्तर प्रदेश, मद्रास आदि। दूसरी श्रेणी में वे राज्य थे जो स्वतंत्रता के बाद छोटी-बङी देशी रियासतों के एकीकरण द्वारा बनाये गये थे, जैसे – राजस्थान, मध्य भारत, ट्रावनकोर-कोचीन आदि।

तीसरी श्रेणी में वे राज्य थे जिन्हें ब्रिटिश काल में चीफ कमिश्नर के प्रान्त कहा जाता था, जैसे – अजमेर, दिल्ली आदि। प्रथम श्रेणी के राज्यों के प्रमुख राज्यपाल (गवर्नर) कहलाते थे, जबकि दूसरी श्रेणी के प्रमुख राजप्रमुख कहलाते थे। राज्यपाल और राजप्रमुख, दोनों की नियुक्तियाँ राष्ट्रपति ही करते थे, किन्तु राजप्रमुख की नियुक्ति संबंधित राज्य में विलीन रियासतों के पूर्व शासकों में से ही की जाती थी।

दूसरी श्रेणी के राज्यों पर केन्द्र द्वारा विशेष नियंत्रण रखा जाता था। भारत की नवनिर्वाचित संसद ने संविधान के 7 वें संशोधन द्वारा 1 नवम्बर, 1956 ई. से प्रथम श्रेणी और द्वितीय श्रेणी के राज्यों का भेदभाव समाप्त कर दिया गया तथा सभी राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति होने लगी। इस संशोधन के द्वारा राजप्रमुख का पद समाप्त कर देने से राजतंत्र के अंतिम अवशेष भी राजस्थान में समाप्त हो गये।

इस प्रकार सरदार पटेल की चतुराई, बुद्धिमता और कुशल नीति से, राजस्थानी शासकों की अनिच्छाओं पर जनमत के प्रभावशाली दबाव से तथा राजस्थान के तपस्वी जन नेताओं के अथक प्रयासों से राजस्थानी लोगों का स्वप्न साकार हो गया। एकीकृत राजस्थान भारतीय संघ की एक सुदृढ इकाई बन जाने से राजस्थान की भावी आशाएँ अब एकमात्र दिल्ली पर ही केन्द्रित हो गयी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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