इतिहासरूसी क्रांतियाँविश्व का इतिहास

1917 की रूसी क्रांति के कारण

1917 की रूसी क्रांति के कारण

1917 की रूसी क्रांति की पृष्ठभूमि – 1789 ई. की क्रांति के बाद 1917 की रूसी क्रांति विश्व इतिहास की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की भावना का संदेश दिया और रूसी क्रांति ने सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में भी समानता का संदेश दिया।

1917 ई. में रूसी क्रांति ऐसी परिस्थितियों में हुई थी जबकि प्रथम विश्व युद्ध में रूसी सेनाएँ निरंतर पराजित होती जा रही थी। यद्यपि यह क्रांति रूस की सैनिक पराजय का परिणाम नहीं थी, फिर भी युद्ध ने क्रांति की प्रक्रिया को तीव्र बना दिया था। 1905 ई. की रूसी क्रांति में 1917 ई. की क्रांति के सभी लक्षण प्रकट हो गए थे, किन्तु जार निकोलस द्वितीय ने अपने स्वेच्छाचारी शासन के अन्तर्गत समृद्ध हो रहे भ्रष्टाचार एवं विघटनकारी प्रवृत्तियों को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।

फलस्वरूप 1917 ई. की क्रांति ने रूस की निरंकुश जारशाही को समाप्त कर दिया और रूस को सदा के लिये एक साम्यवादी देश बना दिया।

1917 ई. में दो क्रांतियाँ हुई थी

  1. प्रथम मार्च, 1917 ई. में तथा
  2. द्वितीय नवंबर, 1917 में ।

लिप्सन महोदय का कहना है, कि क्रांति तो एक ही थी, किन्तु इसके अध्याय दो थे। क्रांति का राजनैतिक अध्याय मार्च की क्रांति कहलाती है, जिसमें निरंकुश जार को सिंहासन छोङना पङा। क्रांति का दूसरा अध्याय नवंबर की क्रांति कहलाती है, जिसे बोल्शेविक क्रांति भी कहते हैं, जिसके फलस्वरूप रूस में जनतंत्र का उदय हुआ।

1917 की रूसी क्रांति के कारण

जारशाही की निरंकुशता

रूस में जार का निरंकुश शासन था. जार अलेक्जेण्डर प्रथम के समय से ही रूस के जार स्वेच्छाचारी शासन एवं सम्राट के दैवी सिद्धांत में विश्वास करते थे। शासन की संपूर्ण शक्ति सम्राट में निहित थी। जार निकोलस द्वितीय ने भी कठोर और दमनकारी नीति का अवलंबन किया, अतः उस के काल में 1905 की क्रांति हुई तथा उसे ड्यूमा के निर्वाचन की घोषणा करनी पङी किन्तु ड्यूमा के हाथ में कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी।

वह सम्राट के प्रति उत्तरदायी थी तथा उसका एकमात्र कार्य सम्राट को सलाह देना था। सम्राट को अधिकार था कि ड्यूमा की सलाह को स्वीकार करे या ठुकारी दे। सम्राट स्वयं अपने कर्मचारियों की नियुक्ति करता था और वही उन्हें पदमुक्त कर सकता था। सम्राट ही जल और थल सेना का सेनापति होता था। रूस के नागरिकों को किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी। समाचार-पत्रों पर कठोर प्रतिबंध लगे हुए थे। ऐसे जन-विरोधी शासन के नीचे जनता कराह रही थी।

प्रथम विश्व युद्ध में रूस को भारी क्षति उठानी पङ रही थी और इन पराजयों के परिणामस्वरूप रूस के अयोग्य व भ्रष्ट शासन का पर्दाफाश हो गया। जनता स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन की विरोधी हो गई। जनता का यह असंतोष अंत में क्रांति का कारण बना।

सामाजिक असमानता

1789 के पूर्व जिस प्रकार फ्रांस में सामाजिक असमानता की स्थिति थी, ठीक वैसी ही उस समय रूस में विद्यमान थी। रूसी समाज को दो भागों में विभाजित किया गया था। प्रथम तो अधिकारयुक्त वर्ग और दूसरा अधिकारविहीन वर्ग। अधिकारयुक्त वर्ग में सम्राट का कृपापात्र कुलीन वर्ग था, जो सम्राट को स्वेच्छाचारी एवं निरंकुशता को आवश्यक मानता था।

यह वर्ग सम्पन्न व्यक्तियों का तथा शासन के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर और अधिकांश भूमि पर इसी वर्ग का अधिकार था। अधिकारविहीन वर्ग में किसान और मजदूर थे जिनकी स्थिति दयनीय थी।

किसानों की दयनीय स्थिति

1917 की रूसी क्रांति के कारण

19वीं शताब्दी के अंतिम दशक तक यूरोप के प्रमुख राज्यों में औद्योगिक विकास हो चुका था, किन्तु रूस अभी तक पिछङा हुआ कृषि प्रधान देश था, जहाँ किसानों की बङी दयनीय स्थिति थी। कृषक दासों की मुक्ति के बाद भी किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ था, क्योंकि इसके बाद भी लगभग एक-तिहाई किसान भूमिहीन बने रहे। जिन किसानों को भूमि प्राप्त हुई थी वहाँ पैदावार कम होती थी तथा उन पर अनेकों कर लगे हुए थे।

फलतः अधिकांश किसानों को गरीबी का जीवन व्यतीत करना पङता और जमींदार मनमाने ढंग से उनका शोषण करते थे। इसके अलावा किसानों पर अनेक प्रतिबंध लगे हुए थे। कोई भी किसान पुलिस की अमुमति के बिना गाँव छोङकर नहीं जा सकता था, अतः उनमें शासन के विरुद्ध असंतोष बढता रहा। 1905 में अनेक स्थानों पर किसानों के दंगे हुए। किसानों ने जमींदारों की स्थिति सुधारने का प्रयत्न किया गया, किन्तु भूमिहीनों की समस्या का समाधान नहीं हुआ।

ड्यूमा में केडेट दल ने भूमि का विसम्पत्तिकरण करने का सुझाव दिया, किन्तु शासन ने इस सुझाव को अस्वीकृत कर दिया, अतः किसानों के पास शासन के विरुद्ध उठ खङे होने के अलावा कोई चारा नहीं था। कुछ समय तक जो जार की दमनकारी नीति के भय के कारण उनमें विद्रोह करने की साहस नहीं हुआ, किन्तु युद्ध में रूस की दयनीय स्थिति का लाभ उठाते हुये उन्होंने विद्रोह कर दिया।

मजदूर वर्ग में आसंतोष

रूस में जार अलेक्जेण्डर के समय से व्यावसायिक क्रांति होने के कारण अनेक कल-कारखाने स्थापित हुए। इन कारखानों में काम करने के लिये लाखों मजदूर गाँव छोङकर शहरों में आ बसे थे तथा उनकी संख्या निरंतर बढती जा रही थी। ये मजदूर अधिकांशतः भूमिहीन किसान थे, अतः कारखानों के मालिकों ने उनकी असहाय एवं दयनीय स्थिति का लाभ उठाया और उन्हें कम से कम मजदूरी देकर अधिक से अधिक काम लिया।

मजदूरी इतनी कम थी कि उसका जीवन निर्वाह भी नहीं हो पाता था और फिर उन्हें रहने के लिये गंदी बस्तियों में तंग कोठरियाँ दी, जहाँ साधारण व्यक्ति का तो दम घुटने लग जाय। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिये वे अपने मालिकों से कुछ भी नहीं कह सकते थे और न मजदूर संघ ही बना सकते थे। शासन सदैव उद्योगपतियों का पक्ष लेता था, अतः समाजवादी दल ने मजदूरों को पूँजीपतियों के विरुद्ध संगठित होने की प्रेरणा दी।

मजदूर इस दल से अत्यधिक प्रभावित हुए तथा वे संघर्ष के लिये तैयार हो गये। 1902-3 से ही मजदूरों की हङतालें आरंभ हो गयी। 1905 के बाद सरकार ने मजदूरों की स्थिति में सुधार करने का प्रयत्न किया, किन्तु मजदूरों में असंतोष समाप्त नहीं हो सका। वस्तुतः मजदूरों पर समाजवादी दल का अत्यधिक प्रभाव ता और मजदूरों का आंदोलन जो प्रारंभ में आर्थिक सुधारों के लिये था, अब वह राजनैतिक सुधारों की माँग में परिवर्तित हो गया।

मजदूर, रूस में जारशाही की निरंकुशता एवं पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर सर्वहारा वर्ग का शासन स्थापित करना चाहते थे।

जार की रूसीकरण की नीति

रूस में अनेक अल्पसंख्यक जातियाँ रहती थी और रूसी साम्राज्य के अधीन वे पराधीनता का अनुभव करती थी। 1863 में पोलैण्ड ने रूसी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सम्राट अलेक्जेण्डर द्वितीय ने इस विद्रोह का दमन करने के लिये कठोर एवं दमनकारी नीति अपनाई और विद्रोह का दमन कर दिया। विद्रोह का दमन करने के बाद सम्राट ने पोलैण्ड में रूसीकरण की नीति अपनाई और उनकी राष्ट्रीय भावना का दमन करने का प्रयत्न किया गया।

शिक्षा का माध्यम रूसी भाषा कर दिया गया तथा सभी उच्च पदों पर रूसी अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इसी प्रकार आर्मेनियनों का भी दमन किया गया। यहूदियों की सामूहिक हत्या की गई। इस प्रकार रूस के प्रशासन ने ज्यों-ज्यों इन अल्पसंख्यक जातियों की राष्ट्रीय भावनाओं का दमन करने का प्रयास किया, उनके ह्रदय में राष्ट्रीयता की भावना उतनी उग्र होती गयी और रूसी प्रशासन के विरुद्ध असंतोष बढने लगा और 19 वीं शताब्दी के अंत में कुछ अल्पसंख्यक जातियों ने विद्रोह कर दिया। 1905 में जार्जिया, पोलैण्ड और बाल्टिक सागर में भयानक विद्रोह हुए।

जार निकोलस द्वितीय ने जिस प्रकार इन विद्रोहों को कुचलने के लिये इन पर अमानुषिक अत्याचार किए, उससे उनका विद्रोही बनना स्वाभाविक ही था। जार की रूसीकरण की नीति ने सभी अल्पसंख्यक (गैर रूसी) जातियों को शासन विरोधी बना दिया और इन्होंने भी जार के विरुद्ध आंदोलन में सक्रिय भाग लिया।

जार निकोलस की अयोग्यता

जार निकोलस द्वितीय आकर्षक व्यक्तिगत एवं मिलनसार स्वभाव का शासक था, किन्तु उसकी बौद्धिक क्षमता सीमित थी। कोई भी व्यक्ति उसे सरलता से प्रभावित कर सकता था। उस पर उसकी पत्नी, महारानी अलेक्जेण्ड्रा का बहुत अधिक प्रभाव था। महारानी अलेक्जेण्ड्रा स्वयं निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन में विश्वास रखती थी और साथ ही वह एक महत्वाकांक्षीणी स्त्री थी। सम्राट में दृढता का अभाव एवं चारित्रिक दुर्बलताएँ थी।

जार निकोलस द्वितीय के राज्यकाल के अंतिम वर्षों में सम्राट और महारानी पर रासपुतिन नामक एक कुख्यात साधु का प्रभाव हो गया, जिसके परिणामस्वरूप प्रशासन में रासपुतिन का प्रभाव सर्वोपरि हो गया। अब दरबार में रासपुतिन की हत्या कर दी । यदि जार निकोलस द्वितीय में थोङी बहुत भी शासन करने की योग्यता होती तो वह राजदरबार एवं शासन की व्यवस्था पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता था, जिससे संभव है 1917 की क्रांति या तो होती नहीं या कुछ समय के लिये टल जाती, किन्तु निकोलस द्वितीय ने अपनी मूर्खता से क्रांति को अनिवार्य बना दिया।

रूस में बौद्धिक क्रांति

फ्रांस की भाँति रूस में भी 1917 की क्रांति से पूर्व एक बौद्धिक क्रांति हुई थी। रूस में पश्चिमी यूरोप के उदारवादी विचारों का प्रवेश होने लगा। जार ने इन विचारों के आगमन पर रोक लगाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। रूस का मध्यम वर्ग पश्चिमी विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुआ। टॉल्सटाय, तुर्गनेव तथा दोस्तोविस्की के उपन्यासों ने रूस की शिक्षित जनता को बहुत प्रभावित किया। इसी प्रकार मार्क्स, मैक्सिगोर्की और बाकुनिन के समाजवादी विचारों ने रूसी समाज में भारी बौद्धिक क्रांति उत्पन्न कर दी। रूस की इस बौद्धिक क्रांति ने 1917 की राजनैतिक क्रांति को प्रोत्साहन दिया।

समजावाद का विकास

1860 के बाद किसानों की दयनीय स्थिति से प्रभावित होकर कुछ बुद्धिजीवियों ने समाजवादी विचारधारा को आधार बनाकर एक आंदोलन आरंभ किया। इस आंदोलन के समर्थकों को नारोदनिकी कहा जाता था। वे चाहते थे कि किसानों को भूमि का स्वामी स्वीकार किया जाय। कुछ नारोदनिकी लोगों ने आतंकवादी उपायों से अपने उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयत्न किया। 1883 में रूस में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव बढने लगा। कुछ समय बाद समाजवादी दो दलों में विभाजित हो गये – एक क्रांतिकारी समाजवादी दल और दूसरा, समाजवादी लोकतंत्र दल।

1903 में समाजवादी लोकतंत्र दल भी दो भागों में विभाजित हो गया – बोल्शेविक और मेन्शेविक। बोल्शेविक दल का नेता लेनिन था, जो रूस में सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तंत्र स्थापित करना चाहता था। मेन्शेविक दल मजदूर वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों के सहयोग से रूस में जनतंत्र स्थापित करना चाहता था। मेन्शेविक दल मजदूर वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों के सहयोग से रूस में जनतंत्र स्थापित करना चाहता था।

सम्राट ने समाजवादी विचारों के प्रसार को रोकने के लिये अनेक समाजवादी नेताओं को बंदी बनाया, किन्तु किसानों और मजदूरों में बढते हुए असंतोष के कारण रूस में समाजवादी विचारों का बङी तीव्र गति से प्रसार हुआ। समाजवादी विचारधारा ने क्रांति को अवश्यम्भावी बना दिया।

रूसी नौकरशाही की अयोग्यता

पीटर महान (1683-1721)ने शासन संचालन के लिये विशाल नौकरशाही का निर्माण किया था। नौकरशाही के उच्च पदाधिकारी कुलीन वर्ग के व्यक्ति थे, जो स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन में विश्वास करते थे। निकोलस द्वितीय में योग्य व्यक्तियों के चुनाव करने की क्षमता नहीं थी, अतः उसके समय में कई अयोग्य व्यक्तियों को शासन की नीति को प्रभावित करने का अवसर मिल गया।

वे अयोग्य व्यक्ति मनमाने ढँग से शासन करते थे तथा जनता का शोषण करते थे। रूसी नैकरशाही के उच्च पदों पर जर्मन पदाधिकारी भी नियुक्त थे, जिन्हें रूसी जनता के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। नौकरशाही ने केवल अयोग्य ही थी वरन् पूर्णतः भ्रष्ट भी थी। प्रथम विश्व युद्ध में इस भ्रष्ट नौकरशाही ने सेना की आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं किया। रसद तथा युद्ध सामग्री के अभाव में रूसी सैनिक बेमौत मारे जाने लगे।

युद्ध के लिये एकत्र की जाने वाली धनराशि का वे दुरुपयोग करने लगे। फलस्वरूप युद्ध में रूसी सेना को भारी क्षति उठानी पङी और रूस की प्रतिष्ठा को भारी आघात लगा। इससे जनता के असंतोष में बहुत वृद्धि हुई तथा सर्वत्र क्रांति के चिह्न दिखाई देने लगे।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wisdomras : रूस में 1917 की क्रांति के कारण

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