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राजस्थान में मराठों का प्रवेश के समय राजपूत राज्यों की स्थिति

राजस्थान में मराठों का प्रवेश के समय राजपूत राज्यों की स्थिति

राजस्थान में मराठों का प्रवेश (Entry of Marathas in Rajasthan)-

मुगल साम्राज्य के पतनोन्मुख होने के फलस्वरूप राजस्थान में भी भयंकर अराजकता व्याप्त हो गई। अब राजस्थान की राजनीतिक विभिन्न नरेशों के निजी स्वार्थ प्राप्ति के उद्देश्यों से प्रेरित हो चली। प्रांत के जातीय जीवन में सदाचार, विश्वास और सच्चाई के लिये कोई स्थान नहीं रह गया था।

आंतरिक फूट, पारस्परिक वैमनस्य और निन्नदनीय षड्यंत्रों ने मराठों को यहाँ की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया। फलस्वरूप प्रांत में अशांति की प्रलयंकारी आग और भङक उठी। मुगल सर्वोच्चता के काल में दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता राजस्थान के सभी राज्यों पर नियंत्रण रखती थी।

किन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद अब मुगल सम्राट केवल छाया मात्र रह गया और उसने अपने को हरमखाने तक सीमित कर विलासिता के रंग में डूब गया। तब राजपूत राज्यों पर अनुशासन रखने वाली शक्ति समाप्त होने लगी। अब ऐसी कोई सर्वोच्च शक्ति नहीं रही जो केन्द्रीय आदेशों का पालन करवा सकती और महत्त्वाकांक्षा एवं अनधिकार चेष्टाओं के लिये होने वाले पारस्परिक युद्धों को रोक सकती तथा एक ही राजवंश के राजकुमारों के पारस्परिक झगङों को सुलझा सकती।

अतः अब तक जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और रियासतों की आपसी प्रतिस्पर्द्धाएँ रुकी हुई थी, वे निर्बाध रूप से फूट पङी। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के शब्दों में, समस्त राजस्थान एक ऐसा अजायबघर बन गया जिसके पिंजङों के फाटक और रक्षक ही हटा दिये गये हों।

समस्त राजस्थान में अत्यन्त जघन्य पाशविक प्रवृत्तियाँ जागृत हो उठी। ऐसा कोई पाप नहीं था जिसे राजपूत नहीं कर सकता हो। पिता, पुत्र की हत्या कर देता था और पुत्र, पिता की। राजघराने की स्रियाँ अपने ही खून के संबंधियों एवं विश्वसनीय रिश्तेदारों को विष दे दिया करती थी।

शासक अपने स्वामिभक्त मंत्रियों की जान ले लेता था। प्रत्येक राजवंश में गृह कलह आरंभ हो गए और इन गृह कलहों में पङौसी रियासतें विरोधी पक्षों की सहायता के लिये युद्ध में शामिल होने लगी। इस अंधकार के युग में अनेक दुःखद घटनाएँ भी घटित हुई। मेवाङ की राजकुमारी कृष्णाकुमारी का विषपान उनमें से एक है, जो राजपूत इतिहास का सबसे बङा कलंक है। मुहम्मदशाह के अंतिम दिनों से लेकर उस दिन तक जबकि समस्त राजस्थान के राजपूत राज्यों ने ब्रिटिश सर्वोच्चता को स्वीकार किया, समस्त राजस्थान में अराजकता, लूट-खसोट, आर्थिक विनाश और नैतिक पतन का ताण्डव नृत्य अपनी समस्त विभीषिकाओं के साथ सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगा।

राजस्थान में मराठों का प्रवेश

मुगलों के आगमन काल से ही जनता की दृष्टि में, भारतीय हिन्दू नरेशों में मेवाङ के महाराणा का सर्वप्रथम स्थान था, किन्तु अब वह एकान्त और अंधकार में चला गया। यद्यपि समाज और राज्यों में मेवाङ के सिसोदिया वंश की पुरानी शान अभी भी बनी हुई थी, किन्तु 18 वीं शताब्दी के आरंभ से राजपूतों में महत्त्व और प्रधानता प्राप्त करने के लिये कछवाहों और राठौङों में होङ लगी रही।

आमेर के शासक पहले तीसरे दर्जे के माने जाते थे और राजस्थान की राजनीति में उनका कोई महत्त्व भी नहीं था, किन्तु डेढ सौ वर्षों तक उन्होंने जो मुगलों की महत्त्वपूर्ण सेवाएँ की, उससे उनको राजपूतों में प्रमुख स्थान प्राप्त हो गया। इस राजवंश की चार पीढियों ने कूटनीति तथा रणक्षेत्र में अपनी महान योग्यता का परिचय दिया।

अकबर के समय में राजा भगवानदास और मानसिंह ने, शाहजहाँ और औरंगजेब के समय मिर्जा राजा जयसिंह ने और औरंगजेब के बाद के मुगल बादशाहों के समय में सवाई जयसिंह ने अद्भुत वीरता एवं कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया, जिससे उसने मुगल दरबार की राजनीति में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया। राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रथम हस्तक्षेप भी सवाई जयसिंह के कारनामों का फल था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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