इतिहासराजस्थान का इतिहास

संत दादू और दादू पंथ

दादू – धर्म सुधार आंदोलन को बल प्रदान करने वालों में संत दादू दयाल का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इनका जन्म वि.सं.1601 में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को हुआ था। किन्तु ये कहाँ और किस जाति में जन्मे, इस विषय पर विद्वानों में बङा मतभेद है।

आचार्य क्षितिजमोहन सेन, डॉ. मोतीलाल मेनारिया फानी और विल्सन इन्हें धुनिया मुसलमान बताते हैं, लेकिन दादू-पंथी इनकी कुछ भी जाति न बताकर इन्हें लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण पोषित बताते हैं। इनके संबंध में यह भी प्रसिद्ध है कि साबरमती नदी में बहते हुए बालक को नागर ब्राह्मण लोदीराम ने बचा लिया और उसका पालन पोषण किया

और यही बालक आगे चलकर विख्यात संत दादू बना। सात वर्ष की आयु में इनका विवाह कर दिया गया और 11 वर्ष की आयु में इनकी भेंट ब्रह्मानंद (बुद्धानंद) नामक महात्मा से हुई जिन्होंने दादू को आध्यात्मिक ज्ञान दिया। इसके बाद दादू चिन्तन और साधना में लग गये। 18 वर्ष की आयु में वे आबू होते हुए नागौर के पास करडाला नामक गाँव में पहुँचे, जहाँ एक पहाङी पर उन्होंने 6 वर्ष तक कठोर साधना की।

दादू

1568 ई. में वे सांभर आकर धुनिया का कार्य करने लगे। यहीं पर उन्होंने लोगों को उपदेश देना आरंभ किया, जिनमें हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक अंधविश्वासों का खुलकर खंडन किया जाता था। फलस्वरूप दोनों सम्प्रदायों के कट्टरवादियों ने इनका विरोध किया और सांभर के काजी ने उन्हें अनेक कष्ट दिये। फिर भी दादू के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया।

सांभर में पाँच-छः वर्षों के निवास के दौरान उनके अनेक शिष्य हो गये और एक प्रकार से उनका पंथ आरंभ हो गया। 1575 ई. में वे अपने शिष्यों के साथ आमेर आये, जहाँ वे लगभग 14 वर्ष रहे। इस दौरान उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। 1585 ई. में फतेहपुर सीकरी में उनकी सम्राट अकबर से भेंट हुई।

वहाँ से पुनः आमेर आ गये। 1593 ई. से 1600 ई. तक वे आमेर तथा मारवाङ आदि राज्यों में घूमते रहे। अंत में 1602 ई. में आमेर के पास नरायणा गाँव में आ गये और यहीं 1603 ई. में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी शिष्य परंपरा में 152 शिष्य माने जाते हैं, लेकिन इनमें 52 शिष्य प्रमुख माने जाते हैं और वे दादू पंथ के बावन स्तंभ कहलाते हैं।

दादू दयाल मुगल शासक शाहजहाँ के समकालीन थे।

दादू अपने विचारों को कविता के माध्यम से व्यक्त करते थे। इन कविताओं को उनके शिष्यों ने संकलित किया, जिन्हें दादूजी की वाणी और दादूजी रा दूहा कहते हैं। इनके अध्ययन से दादू के भाव, विचार और सिद्धांतों की जानकारी मिलती है। उनके विचारों और सिद्धांतों का निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है-

दादू का दार्शनिक पक्ष

दादू ने अन्य संतों की भाँति ब्रह्म, जीव, जगत, मोक्ष आदि पर सरल भाषा में विचार व्यक्त किये। ईश्वर के विराट स्वरूप ब्रह्म के बारे में उनका कहना था कि वह परब्रह्म परम ज्योति रूप, सर्वशक्तिमान, माया से परे और सर्वव्यापी है। विश्व की प्रत्येक वस्तु ईश्वरीय शक्ति से ही गतिमान है। जीव ब्रह्म का रूप है, लेकिन वह माया से लिप्त होने के कारण ब्रह्म से दूर हो गया है।

जीव कर्म-बंधन में है, जबकि ब्रह्म कर्मरहित है। लेकिन जीव कर्म-बंधन से मुक्त होकर ईश्वर की ओर उन्मुख होता है तब जीव और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं रह जाता है और आत्मा व परमात्मा एक हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि आत्मा और परमात्मा को अलग रखने वाली शक्ति माया है। माया ही समस्त विकारों की जङ है। माया के कारण ही मन की चंचलता है, जो पतंग की भाँति उङता है। लेकिन यदि इसे ईश्वरीय प्रेम के जल में भिगो दिया जाय तो इसकी चंचलता समाप्त हो जाती है।

सृष्टि की रचना के संबंध में उनका कहना था कि ब्रह्म से ओंकार की उत्पत्ति हुई और ओंकार से पाँच तत्वों – पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि की उत्पत्ति हुई है। इन्हीं पाँच तत्वों से जीव (शरीर) का निर्माण हुआ है। इन पाँच तत्वों से बना जीव और जगत मिथ्या है। सत्य केवल ब्रह्म है और उसी को प्राप्त करने हेतु प्रयत्न करना चाहिए। दादू मरणोपरांत मोक्ष में विश्वास नहीं करते, बल्कि उनकी मान्यता थी कि मोक्ष जीवन में ही प्राप्त किया जा सकता है। उनका मत है

यदि मनुष्य निरंतर ईश्वरोपासना द्वारा मन और इन्द्रियों का निरोध करता हुआ अपनी इच्छाएँ और तृष्णा समाप्त कर दे तब उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती है और जब इस शुद्ध आत्मा को ईश्वरीय भक्ति में अविच्छिन रूप से लगा दिया जाय तब शाश्वत आनंद की अनुभूति होती है। यही स्थिति वास्तविक मोक्ष या मुक्ति है।

दादू, उस निराकार एवं सर्वव्यापी परब्रह्म को प्राप्त करने के लिये मार्गदर्शक के रूप में गुरु को अनिवार्य मानते हैं। उनके मतानुसार गुरु ही अपनी ज्ञान नौका से अपने शिष्य को भवसागर से पार उतारता है। गुरु का महत्त्व बताते हुए वे कहते हैं कि यदि सूर्य और चंद्रमा भी उदय हो जायँ तब भी बिना गुरु के प्रकाश नहीं हो सकता अर्थात् अज्ञानता का अंधकार दूर नहीं हो सकता। गुरु के पास असीमित शक्ति होती है

जिससे वह पशु से मनुष्य, मनुष्य से ज्ञानी और ज्ञानी से देवता बना सकता है। गुरु तो मनुष्य को ब्रह्म बनाने में भी सक्षम है। गुरु के उपदेश सभी धर्म ग्रन्थों से ऊपर हैं। गुरु के उपदेशों का अनुसरण कर वह ब्रह्म से साक्षात्कार कर सकता है। लेकिन गुरु भी ऐसा होना चाहिए जो ईश्वर भक्ति में डूबा हुआ रहता हो और अपने उपदेश से एक क्षण में भवसागर पार उतार कर ईश्वर के दर्शन करा सके। अतः शाश्वत आनंद की प्राप्ति के लिये सद्गुरु का हाोना अनिवार्य है। दादू के ही शब्दों में-

दादू सतगुरु ऐसा कीजिए, रामरस माता।
पार उतारे पलक में, दरसन का दाता।।

दादू का साधना पक्ष

दादू निर्गुण भक्ति के समर्थक थे। अतः उनकी साधना निर्गुण ब्रह्म की प्रधानता को लेकर है। उनका कहना है कि अहंकार का परित्याग, संयम, नियम, साधु संगति, हरि-स्मरण, अन्तर्ध्यान आदि उपासना के सच्चे साधन हैं। लक्ष्य प्राप्ति में, वे अहं को सबसे बङी बाधा मानते हैं, क्योंकि अहं के सात ईश्वर नहीं हो सकता। इस अहं का त्याग आवश्यक है,

जो मन के निग्रह के बिना संभव नहीं है। मन को विकार रहित एवं निर्मल रखने के लिये मन को विरह रूपी अग्नि में डालना चाहिए जिससे उसके समस्त विकार दूर हो जाते हैं और अहंकार नष्ट हो जाता है। फलस्वरूप मन उस ब्रह्म में लगा रहता है। मन को ब्रह्म में लगाने के लिये दादू साधु संगति को अनिवार्य मानते हैं, क्योंकि साधु संगति से ही ईश्वर के प्रति प्रेम भावना जाग्रत होती है। एक बार मन ईश्वर में लग जाने के बाद किसी कष्टप्रद मार्ग की आवश्यकता नहीं है।

बल्कि मन को अन्तर्मुखी बनाकर अपनी समस्त वृत्तियों को निरंतर आत्मा में लगाने से ही आत्म-साक्षात्कार होता है। उनका यह भी कहना है कि हरि-स्मरण केवल वाचिक नहीं बल्कि आंतरिक और मानसिक होना चाहिए। जब हरि स्मरण करते करते इष्ट का नाम शरीर के रोम-रोम में समा जाता है, तब वह सांसारिक विषयों की ओर कभी उन्मुख नहीं होता। ऐसी स्थिति आने पर ही समझना चाहिए कि साधक ने वास्तव में हरिनाम स्मरण कर लिया है। हरिनाम का जाप करते यदि हमारे प्राण भी निकल जायँ तब भी जप का तार नहीं टूटना चाहिए। हरि स्मरण के विभिन्न सोपान बताते हुए कहते हैं

कि नाम माहात्म्य सुनना स्मरण साधना साधना की प्रथम अवस्था है, इससे साधक जप में प्रवृत्त होता है। ऐसे जपना कि दूसरों को सुनाई न दे, यह दूसरी अवस्था है, चिन्तन करना तीसरी अवस्था है। जब रोम-रोम में चिन्तन होने लगता है तब चौथी और अंतिम अवस्था आती है जो जीव और ब्रह्म की एकता है। डॉ.पेमाराम के शब्दों में संत दादू ने बर्हिमुखी साधना के आडंबर का खंडन कर अन्तर्मुखी साधना पर बल दिया है।

दादू का सामाजिक पक्ष

दादू सच्चे धर्म सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में प्रचलित ढोंग, पाखंड, आडंबर और वर्ग भेद का निर्भीकता से खंडन किया। तीर्थ यात्रा को ढकोसला बताया और कहा कि जब प्रत्येक घट (मन) में ईश्वर रहता है तो फिर उसे ढूँढने के लिये तीर्थ स्थानों में भटकना व्यर्थ है।

उन्होंने यह भी कहा कि सिर मुँडाकर या जटा बढाकर नाना प्रकार के वेश धारण करने से परमात्मा नहीं मिलता। मस्जिद जाना, रोजे रखना और नमाज पढना भी व्यर्थ है, क्योंकि मंदिर व मस्जिद तो हमारे शरीर में ही हैं। अतः अन्तःकरण की उपासना करनी चाहिए। कबीर की भाँति दादू भी विविध पूजा पद्धतियों के विरोधी थे और कहते थे

कि ईश्वर एक है, जिसके दरबार में हिन्दू मुसलमानों का कोई भेदभाव नहीं है। हिन्दू और मुसलमान तो मानव के कल्पित वर्गभेद हैं, जिसमें कोई तथ्य नहीं है। सभी जीवात्माएँ एक ही ईश्वर से उत्पन्न होने के कारण दोनों एक ही परिवार की इकाइयाँ हैं तथा दोनों के शरीर में एक ही आत्मा है।

इसलिए दादू ने दोनों के बाह्य आडंबरों का खंडन कर दोनों को अन्तःकरण की शुद्धि का उपदेश दिया। जहाँ तक सरल जीवन के ऊपर बल देने का प्रशन् है, दादू और कबीर के विचारों में साम्यता दिखाई देती है। किन्तु कबीर की तरह उन्होंने खंडन मंडन प्रणाली को नहीं अपनाया। मूलतः कबीर और दादू दोनों के विचारों एवं उपदेशों में सुधारवादी भावना है, भेद केवल दृष्टिकोण और पद्धति का है।

कबीर के कहने में उग्रता झलकती है, जबकि दादू में विनम्रता का भाव दिखाई देता है। प्रेम भाव की मार्मिक व्यंजना दादू की अपनी विशेषता है। चूँकि दादू ने तत्कालीन वातावरण के अनुरूप सरल एवं सरस भाषा में उपदेश दिये, जिससे साधारण लोगों को आसानी से समझ में आने लगे और उनका पंथ लोकप्रिय होता गया।

दादू पंथ और उसका विभाजन

दादू के जीवन काल में उनके अनेक शिष्य बन गये थे। दादू के शिष्यों का उल्लेख दादू जन्म लीला परची, संत गुण सागर, नाम-माला और भक्त माल नामक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। उनके शिष्यों में 152 प्रधान शिष्य थे, इनमें से 100 तो वीतरागी थे, जिन्होंने अपना कोई शिष्य नहीं बनाया जिससे उनकी शिष्य श्रृंखला नहीं चली।

शेष 52 थांभों से ही दादू पंथ बना और उसका विकास हुआ। ये थांभे जयपुर, मारवाङ, अलवर, पंजाब आदि राज्यों में स्थित हैं। इनमें से 22 थांभे अब नहीं रहे, चार स्थान ऐसे हैं, जहाँ साधु तो हैं लेकिन थाम्भापति महंत नहीं हैं। शेष 25-26 स्थान अब भी विकसित हैं, जहाँ महंत भी हैं और सैकङों साधु भी वहाँ रहते हैं।

इन सभी थाम्भों के महंत व साधु, नरायणा के महंत को अपना मुख्य महंत मानते हैं। नरायणा की आचार्य परंपरा तो दादू के ब्रह्मलीन होने (जैसा कि दादू पंथी कहते हैं) के बाद से ही आरंभ हो गयी। दादू के बाद उनके पुत्र गरीबदास को महंत की गद्दी पर बैठाया गया था और उसकी आचार्य परंपरा अब तक चली आ रही है।

दादूपंथी साधु विवाह नहीं करते तथा दादू द्वारों में रहते हैं। वे किसी गृहस्थ लङके को अपना शिष्य बनाकर पंथ की श्रृंखला को आगे बढाते हैं। दादूपंथी तिलक नहीं लगाते, गले में माला नहीं पहनते, सिर पर चोटी नहीं रखते और किसी मंदिर में जाकर मूर्तिपूजा नहीं करते। दादू-द्वारों में दादूजी की वाणी रखते हैं और उसी का वाचन अर्चन करते हैं।

दादू पंथी साधु की मृत्यु के बाद उसके शव को न जलाया जाता है न दफनाया जाता है, बल्कि शव को चारपाई पर लेटा कर जंगल में छोङ दिया जाता है। ऐसा करने के पीछे मान्यता यह है कि अब उचित यही है कि जंगल के पशु पक्षी इससे अपना पेट भरें। स्वयं दादू के पार्थिव शरीर को नरायणा से 10 मील दूर मैराना की पहाङी की खोह में रख दिया गया था।

लगभग 1750 ई. तक यह संप्रदाय पूर्णतः संगठित रहा, लेकिन नरायणा के महंत जैतराम (1750-1789ई.) के समय में पंथ विभाजन की प्रक्रिया आरंभ हो गयी। फलस्वरूप आगे चलकर यह संप्रदाय खालसा, विरक्त, उत्तरादे, खाकी और नागा नामक पाँच शाखाओं में विभक्त हो गया। नरायणा की शिष्य परंपरा वाले खालसा कहलाते हैं।

घूम-घूम कर गृहस्थों को दादूजी की वाणी का उपदेश देने वाले विरक्त कहलाये। किन्तु 1843 ई. में जयपुर राज्य की ओर से जब इन विरक्त साधुओं को जमीन दी गयी तब से विरक्त साधु वहीं रहने लग गये। दादू के एक शिष्य बनवारी दास राजस्थान छोङकर राजस्थान से उत्तरी तरफ हरियाणा में रतिया (जिला हिसार) में जाकर रहने लगे जिससे वे उत्तरादे कहलाये। कुछ ऐसे दादूपंथी साधु जो शरीर पर भस्म लगाते हैं, सिर पर बङी-बङी जटाएँ रखते हैं

और छोटी-छोटी टुकङियों में घूमते रहते हैं वे खाकी दादू पंथी कहलाते हैं। दादू संप्रदाय के नागा वर्ग की स्थापना दादू के शिष्य सुन्दरदास ने की थी। प्रारंभ में ये विरक्त होने के कारण छोटी-छोटी मंडलियों में घूमते रहते थे जिसे जमात कहा जाता था। ये अपने साथ शस्र भी रखते थे।

अतः राजस्थान के कुछ शासकों ने अपने सामंतों का दमन करने तथा बाह्य आक्रमणों का सामना करने हेतु नागा दादू पंथी की सहायता ली, जिससे आगे चलकर यह वर्ग वेतनभोगी बन गया। अब इस वर्ग के कुछ लोग खेती और वाणिज्य व्यवसाय करने लग गये हैं।

इस प्रकार 16 वीं शताब्दी में दादू और उसके संप्रदाय ने राजस्थान में तत्कालीन सामाजिक बुराइयों और ब्राह्य आडंबरों का खंडन कर लोगों में नव जागृति उत्पन्न की। दादू की सबसे बङी विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने उपदेश स्थान विशेष की प्रचलित लोक भाषा में दिये। उन्होंने ढूँढाङी भाषा का प्रयोग विशेष रूप से किया था।

जनसाधारण में अपने विचार बोधगम्य बनाने के लिये पंजाबी, गुजराती और फारसी की मिश्रित भाषा को अपनाया। दादू पंथ में प्रेम एक ऐसा धागा है जिसमें गरीब और अमीर एक साथ बाँधे जा सकते हैं और जिसकी एकसूत्रता विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : दादू

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