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सराय-ए-अदल किसे कहते थे

सराय-ए-अदल – सराय-ए-अदल (अर्थात न्याय का स्थान) निर्मित वस्तुओं तथा बाहर के प्रदेशों, अधीनस्थ राज्यों तथा विदेशों से आने वाले माल का बाजार था विशेष रूप से यह सरकारी धन से सहायता प्राप्त बाजार था। यहाँ पर आने वाली वस्तुएँ थी – कपङा, शक्कर, जङी-बूटियाँ, मेवा और दीपक जलाने का तेल। बदायूँ द्वार के पास एक बङे मैदान में सराय-ए-अदल का निर्माण किया गया। सुल्तान ने आदेश दिए कि प्रत्येक वस्तु जो व्यापारी लाएँ – चाहे वह अपने धन से खरीदी गयी हो या सरकारी धन से, सराय-ए-अदल में ही लाई जाए और किसी निजी मकान या अन्य बाजार में न लाई जाए। एक टंके से लेकर दस हजार टंके मूल्य की प्रत्येक वस्तु केवल सराय-ए-अदल में ही लाई जाती थी। जो इन नियमों का उल्लंघन करता था उसे कठोर दंड दिया जाता था और उसकी वस्तुएँ जब्त कर ली जाती थी।

बरनी रेशमी व सूती कपङों की लंबी सूची देता है जिनकी कीमतें निश्चित कर दी गयी थी। किंतु इसके आधार पर आज हमारे लिए उस समय की कीमत निश्चित करना कठिन है। परंतु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कपङा सस्ता नहीं था जब कि गेहूँ 7.5 जीतल प्रति मन के हिसाब से बिकता था और साधारण आकार की चादर 10 जीतल में मिलती थी। बीस गज का अच्छी श्रेणी का लट्ठा एक टंका में बिकता था।यही वस्तु है जिसकी माप बरनी देता है। रेशमी कपङा बहुत कीमती था। बरनी द्वारा निम्नलिखित प्रकार के कपङे और उनकी नियंत्रित कीमतें दी गयी हैं-

दिल्ली खज्ज रेशम – 6 टंका।
नारंगी रंग का कच्चा रेशम – 6 टंका।
आधा रेशम, बाल मिश्रित – 3 टंका।
शीर्री बाफ्ता बढिया – 5 टंका।
शीर्री बाफ्ता साधारण – 3 टंका।
शीर्री बाफ्ता मोटा – 2 टंका।
सिलहटी उत्तम – 6 टंका।
सिलहटी साधारण – 4 टंका।
सिलहटी मोटा – 2 टंका।
लालधारी वाले कपङे – 6 जीतल।
साधारण कपङे – 3.50 जीतल।
नागौर का लाल अस्तर – 24 जीतल।
मोटा अस्तर – 12 जीतल।
लंबा कपङा (लट्ठा) उत्तम – 1 टंका में 20 गज।
लंबा कपङा (लट्टा) मोटा – 1 टंका में 40 गज।
चादर – 10 जीतल।

कपङे की कीमतों के निर्धारण से व्यापारी दिल्ली में माल बेचने के इच्छुक नहीं थे। इसका प्रधान कारण यही था कि उन्हें अधिक लाभ नहीं होता था। वे दिल्ली के बाहर कपङा खरीदते थे, उसे दिल्ली लाने में धन व्यय करते थे और उसे दिल्ली में सुल्तान द्वारा निर्धारित कीमतों पर बेचना पङता था। दोआब व अन्य प्रदेशों से कम कीमत पर व्यापारियों को खाद्यान्न दिलाने में अलाउद्दीन सफल हुआ था। परंतु वह देवगिरि या मुल्तान जैसे सुदूर स्थानों के उत्पादकों को निश्चित दरों पर व्यापारियों को सामान बेचने के लिये बाध्य न कर सका। अतः अलाउद्दीन ने कपङा व्यापारियों को खाद्यान्नों के व्यापारियों की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ प्रदान की थी। दिल्ली में व्यापार करने वाले प्रत्येक व्यापारी को, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, दीवान-ए-रसालात में अपना नाम दर्ज कराने का आदेश दिया गया। उसे एक करारनामे पर हस्ताक्षर भी करने पङते थे कि वह निश्चित मात्रा में नगर में माल लाएगा और उसे नियंत्रित दरों पर बेचेगा। सुल्तान ने राजकीय कोष से मुल्तानी व्यापारियों को धन अग्रिम रूप में दिया, जिससे वे अन्यत्र राशि के रूप में लगभग बीस लाख टंके दिए। बरनी यह नहीं बताता कि व्यापारियों को वह धन राजकीय कोषागार में लौटाना पङता था या नहीं। इब्न बतूता का कथन इस पर अधिक प्रकाश डालता है। वह कहता है कि सुल्तान ने व्यापारिक माल पर समस्त कर समाप्त कर दिए, व्यापारियों को अग्रिम धन दिया और कहा, इस धन से बैल और भेङें खरीदो और उन्हें बेचो, उनसे जो धन प्राप्त होगा वह कोषागार में चुका दिया जाना चाहिए और बेचने के उपलक्ष्य में तुम्हें भत्ता मिलेगा। इससे प्रतीत होता है कि मुल्तानी व्यापारी तथा अन्य व्यापारी जिन्हें दिल्ली में व्यापार करने के लिये लगाया गया था, वास्तविक अर्थ में व्यापारी नहीं थे। वे मुनाफे की दरों पर माल ही नहीं बेचते थे, बल्कि वे वास्तव में शासन के एजेंट थे, उन्हें बाहर से माल खरीदकर दिल्ली में बेचने के लिये अग्रिम धन दिया जाता था, और वे इस कार्य के लिये पारिश्रमिक पाते थे। संभवतः इस लेन-देन से राज्य को कुछ हानि उठानी पङती थी।

अंतिम अधिनियम परवानानवीस (परमिट देने वाले अधिकारी) की नियुक्ति और अधिकार से संबंधित था। अलाउद्दीन ने आदेश दिया कि बहुमूल्य वस्त्र जैसे तस्बीह, तबरेज, कंज माबरी, सुनहरी जरी, देवगिरि रेशम, खुज्जे दिल्ली (दिल्ली में बना रेशमी कपङा), कमरबाद तब तक नहीं बेचे जा सकते जब तक कि परवानानवीस से परवाना लेने वाले अमीरों, मलिकों और अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों के परिचय पत्र से वह संतुष्ट न हो और उनकी आय के आधार पर परमिट न दे। खरीददार को खरीदी हुई वस्तु की प्राप्ति स्वीकृति के रूप में एक लिखित रसीद देनी पङती थी। ऐसा काला बाजारी रोकने के लिये किया गया था जिससे कोई साधारण व्यक्ति उत्तम श्रेणी का कपङा सराय अदल से सस्ते भाव पर खरीदकर प्रांतों में उसको चौगुने मूल्य पर न बेच सके।

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