बौद्ध धर्म की शाखाएँ – हीनयान एवं महायान
भगवान बुद्ध के निर्वाण के 100वर्षों बाद बौद्धों में मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे। वैशाली में संपन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद करने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया।
अलग हुए इन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग से संघ बना लिया तथा स्वंय को महासांघिक नाम दिया । तथा जिन्होंने निकाला था उन्हें हीनसांघिक नाम दिया गया। जो आगे चलकर महायान तथा हीनयान शाखाएँ कहलाई।
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बौद्ध धर्म की दो शाखाएँ थी ।
- हीनयान
- महायान
बौद्ध धर्म की प्राचीन शाखा हीनयान शाखा थी , जिसे थेरवाद शाखा भी कहा जाता है।
हीनयान शाखा-
हीनयान (निम्न वर्ग)। हीनयान एक व्यक्तिवादी धर्म था। इसका शाब्दिक अर्थ है निम्न मार्ग।
यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिये ही था। ये लोग परिवर्तन तथा सुधार के विरोधी थे।
इस शाखा के लोग बौद्ध धर्म के रिवाजों को ज्यों का त्यों बनाए रखना चाहते थे।
हीनयानी लोग बुद्ध की पूजा भगवान के रूप में न करके केवल महापुरुष के रूप में ही करना चाहते थे।
इन लोगों की साधना अत्यंत कठिन थी। ये लोग मानते थे कि निर्वाण (मोक्ष)के लिए स्वंय ही प्रयास करना होगा। और यदि रास्ता दिखाने वाला कोई दूसरा है तो वह है-गुरु , बुद्ध।
हीनयान का आदर्श है- आत्मदीपो भवः(बुद्ध)/ अर्हंत
अर्हंत का अर्थ है – जिन्होंने स्वयं के प्रयासों से मोक्ष प्राप्त किया।
हीनयान शाखा में पालि भाषा में लिखे गये ग्रंथ त्रिपिटकों के पालन पर बल दिया गया।
हीनयान शाखा का विस्तार श्रीलंका,बर्मा,श्रीलंकाआदि देशों में हुआ।
बाद में हीनयान दो शाखाओं में विभक्त हो गई- वैभाषिक एवं सर्वास्तिवादी ।
महायान शाखा-
महायान शाखा के लोग नवीनतावादी (समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार करने वाले) विचारधारा के थे।
महायान बौद्ध धर्म का विस्तार भारत से आरंभ होकर उत्तर की ओर बहुत से अन्य एशियाई देशों फैल गया जैसे कि चीन, जापान, कोरिया, ताइवान,तिब्बत, भूटान, मंगोलिया, सिंगापुर।
इसके अनुयायी कहते हैं कि अधिकतर मनुष्यों के लिए निर्वाण का मार्ग अकेले ढूंढना मुश्किल या असंभव है तथा उन्हें इस कार्य में सहायता मिलनी चाहिए। इन लोगों का मानना है कि जब तक ईश्वर की कृपा नहीं होगी तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं होगा।
महायान शाखा का आदर्श है – बोधिसत्व (गुणों का स्थानान्तरण) अर्थात् हम कह सकते हैं कि बुद्ध की कृपा से मोक्ष प्राप्त किया। उसके बाद दूसरे लोगों को भी मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देना ही बोधिसत्व है।
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एक अन्य गौण शाखा भी है जिसके बारे में हम पढते हैं- वज्रयान शाखा-
इस शाखा में तंत्र -मंत्र के माध्यम से बुद्ध व उनकी पत्नी की तारादेवी के रूप में पूजा होती है।
इस शाखा की उत्पत्ति 5, 6 शता. में हुई।
वज्रयान शाखा से संबंधित दो ग्रंथ हैं – मंजूश्रीमूलकल्प, गुह्म समाज।
Reference : https://www.indiaolddays.com/