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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल कायथा

मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में चम्बल की सहायक नदी काली सिन्ध के दक्षिणी किनारे पर यह पुरातात्विक स्थल बसा हुआ है। सर्वप्रथम 1964 ई. वाकणकर महोदय ने इस स्थान की खुदाई करवायी थी। तत्पश्चात् उज्जैन तथा पूना विश्वविद्यालय द्वारा यहाँ खुदाई कार्य करवाया गया। यहाँ से प्राप्त सामग्रियाँ मध्य भारत की ताम्र-पाषाण युगीन सभ्यता पर अच्छा प्रकाश ड़ालती है।


प्रथम संस्कृति
कायथा के उत्खनन से पाँच संस्कृतियाँ के अवशेष मिलते है जिन्हें कायथा, आहाड़, मालवा आरम्भिक ऐतिहासिक युग तथा शुंगकुषाणगुप्त युग की संस्कृति कहा गया है। इनमें सबसे प्राचीन संस्कृति कायथा की है। इस सांस्कृतिक स्तर से हलके गुलाबी, पीले तथा भूरे रंग के मृद्भाण्ड प्राप्त होते है। प्रमुख पात्र घवड़े, कटोरे, तसले, मटके, लोटे, थालियाँ, नाँद आदि है। कुछ हाथ से बने हुए मिट्टी के बर्तन भी मिलते है। कुछ बर्तनों पर चित्रकारियाँ भी मिलती है। धातुओं में ताँबे तथा कांसे के उपकरण एवं आभूषण, जैसे – कुल्हाड़ी, छैनी, चूड़ी, मनकों के हार आदि प्राप्त हुए है। एक घड़े के भीतर लगभग चालीस हजार छोटे मनके मिले है। कुछ लघुपाषाणोकरण (माइक्रोलिथ) भी प्राप्त होते है। उत्खनन सामग्रियों से यह संकेत मिलता है कि इस संस्कृति के लोग लकड़ी के लट्ठों, बांस की बल्लियों, मिट्टी, घास-फूस आदि की सहायता से अपने मकानों का निर्माण करते थे। उनका जीवन खानाबदोश अथवा घूमक्कड़ नहीं था अपितु वे स्थायी रूप से इस क्षेत्र मे निवास करते थे। कायथा की संस्कृति का समय लगभग 2000 से 1800 ई. के मध्य निर्धारित किया गया है।


द्वितीय संस्कृति
कायथा की द्वितीय संस्कृति (आहाड़) के मृद्भाण्ड काले तथा लाल रंग के है जिनके ऊपर सफेद रंग की चित्रकारियाँ मिलती है। इनमें थालियाँ, कटोरे आदि है। बड़ी मात्रा में लघुपाषाणोकरण(माइक्रोलिथ) भी मिलते है। इनके अतिरिक्त मिट्टी की बनी हुई कुछ वृषभ मूर्तियाँ, संकों, की गुरियों के बने हार भी मिलते है। ज्ञात होता है कि इस संस्कृति के लोग अपने घर मिट्टी से बनाते थे। मकानों की फर्श कंकड़- पत्थर को कूटकर बनाई जाती थी। इस संस्कृति का समय ई. पू. 1700-1500 के बीच निर्धारित किया गया है।


तृतीय संस्कृति
कायथा की तृतीय संस्कृति (मालवा) के मृद्भाण्ड मुख्यत: हल्के लाल रंग तथा गुलाबी रंग के है जिन पर काले रंग से डिजाइनें बनी हुई है। प्रमुख भाड घड़े, कटोरे, थालियाँ आदि है। इस स्तर से भी मिट्टी की कुछ वृषभ मूर्तियाँ मिलती है। इसका समय 1500-1200 ई. पू. निर्धारित है।

ताम्रपाषाणिक बस्तियाँ


अन्तिम दों संस्कृतियाँ
कायथा की दो अन्तिम संस्कृतियाँ लौह युग की है। आरम्भिक ऐतिहासिक युग स्तर से लोहे के उपकरण प्राप्त होते है। यहाँ के प्रमुख मृद्भाण्ड काले चमकीले (एन. बी. पी.), काले तथा लाल(Black and Red Ware) तथा सादे धूसर(Plain Gray Ware) रंग के है। इस संस्कृति का समय ई. पू. 600-200 निर्धारित है। यहाँ की अन्तिम संस्कृति ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से छठीं शताब्दी ईस्वी के बीच की है। इस काल में उत्तर भारत में शुंग, कुषाण तथा गुप्त राजवंशों ने शासन किया। इस स्तर कई प्रकार के मृद्भाण्ड जैसे लाल, धूसर, काचित(Glazed Ware) आदि मिलते है। कुछ अन्य उपकरण जैसे दीपक, बैलगाड़ी के पहिये, चूड़ी, बाण, जाँता, थापी, चरखी आदि भी कायथा संस्कृति के अन्तिम स्तर से प्राप्त होते है।
इस प्रकार कायथा मध्य भारत का एक प्रमुख पुरास्थल है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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