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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल ब्रह्मगिरि

आधुनिक कर्नाटक प्राप्त (प्राचीन मैसूर) के चित्तलदुर्ग जिले में यह पुरास्थल स्थित है। यहाँ अशोक का लघु शिलालेख मिलता है। इसी के समीप सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर तथा मास्की से भी ये लेख मिलते है। इन लेखों की प्राप्ति-स्थानों से इस बात की सूचना मिलती है कि अशोक का साम्राज्य दक्षिण की ओर वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक फैला हुआ था।

ब्रह्मगिरि लेख से पता चलता है कि दक्षिण प्राप्त का केन्द्र सुवर्णगिरि था, जहाँ एक कुमार रहता था। इसे अशोक के धर्म प्रचार का भी ज्ञान होता है। इस लेख में वह दावा करता है, कि उसने धर्म-प्रचार के कारण सारे जम्बूद्वीप के निवासी देवताओं से मिला दिये गये।

सर्वप्रथम 1942 ई. में एम. एच. कृष्णन् द्वारा इस स्थल की खुदाई करा कर इसके पुरातात्विक महत्व की ओर संकेत किया गया था। किन्तु विधिवत् उत्खनन 1947 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन महानिदेशक एच. एम. ह्रीलर द्वारा करवाकर इस स्थल की विविध संस्कृतियों का विवरण प्रकाशित किया गया।
ब्रह्मगिरि की खुदाई में तीन संस्कृतियों के अवशेष मिलते है।

प्रथम संस्कृति

यह नवपाषाणकाल से संबंधित है तथा यहाँ की सबसे प्राचीन संस्कृति है। इस स्तर से पॅालिशदार पत्थर, कुल्हाड़ी, सलेटी तथा काले रंग के मृद्भाण्ड तथा हड्डियों के बने कुछ उपकरण मिलते है। इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे तथा मिट्टी और सरकन्डे की सहायता से वे अपने निवास के लिए गोलाकार तथा चौकोर घर बनाते थे। अपने मृतकों को वे घरों की फर्श के नीचे दफन करते थे। उनके द्वारा उत्पादित प्रमुख फसलें कुथली, रागी, चना, मूंग तथा प्रमुख पालतू पशु गाय, बैल, भेड़, बकरी, भैंस, सुअर आदि थे। इस संस्कृति की संभावित तिथि ई. पू. 2500-1000 के मध्य निर्धारित की जाती है।

द्वितीय संस्कृति

यह वृहत् अथवा महापाषाण काल से सम्बन्धित है। इसकी प्रमुख विशेषता है कि लौह उपकरणों एवं काले-लाल मृद्भाण्डों का प्रयोग। लौह निर्मित चाकू, भाले, तलवारें, बाणाग्र आदि बड़ी संख्या में मिलते है। बर्तनों का निर्माण चाक पर किया गया लगता है। अनेक आकार-प्रकार के कटोरे मिले है जिनमें से कुछ पर चित्रकारियाँ है। इस संस्कतिक स्तर से महापाषाणिक समाधियों के भी साक्ष्य मिले है जो प्रधानतः संगोरा एवं डाल्मेन प्रकार की है। इस संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व 200-50 ई. के बीच निर्धारित की जाती है।

तृतीय संस्कृति

यह आन्ध्र-सातवाहन काल से सम्बन्धित है। इस स्तर के भूरे रंग अथवा गेरूए रंग में पते मृद्भाण्डों के टुकड़े मिलते है। कुछ टुकड़ो पर सफेद एवं पीले रंग में चित्रण किया गया है। कुछ चक्रांकित (एरेटाइन) भाण्ड भी है जिन्हें अरिकामेडु से प्राप्त भाण्डों की समानता के आधार पर रोमन मूल का माना जाता है। प्रमुख भाण्ड तश्तरियाँ है।

ब्रह्मगिरि की तृतीय संस्कृति का काल पहली से तीसरी शती के बीच माना गया है। इस प्रकार ब्रह्मगिरि पुरातात्विक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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