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संघ एवं राज्य में संबंध

संघ एवं राज्य में संबंध

संघ एवं राज्य में संबंध (union and state relations)

संघ एवं राज्य में संबंध – भारतीय गणराज्य की रचना में उसकी दोनों इकाइयों – केन्द्र तथा राज्यों के आपसी संबंधों का विशेष ध्यान रखा गया है। संविधान में दोनों की शक्तियों का बँटवारा कर दिया गया। केन्द्र-राज्य संबंधों को चार भागों में बाँटा जा सकता है-

1.) विधायी संबंध, 2.) प्रशासनिक संबंध, 3.) वित्तीय संबंध, 4.) न्यायिक संबंध

विधायी संबंध

संघ तथा इकाइयों के बीच विधायी शक्तियों अर्थात् कानून बनाने की शक्तियों का विभाजन तीन सूचियाँ बनाकर किया गया है – 1.) संघ सूची, 2.) राज्य सूची, 3.) समवर्ती सूची। संघ सूची में 97 विषय रखे गये हैं जो राष्ट्रीय महत्त्व के हैं जैसे – प्रतिरक्षा, परमाणुशक्ति, वैदेशिक संबंध, संधियाँ, रेल, समुद्री एवं जहाजी पथ, डाक-तार व टेलीफोन, मुद्रा,निर्माण, बाँटों व मापों की मान-स्थापना, बीमा इत्यादि। संघ-सूची के विषयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार केवल संसद के पास है। संघ-सूची के विषयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार केवल संसद के पास है।

राज्यों के विधान-मंडल इन विषयों के संबंध में कोई कानून नहीं बना सकते। राज्य-सूची में 66 विषय रखे गये हैं, जिनमें मुख्य हैं- शिक्षा, कृषि, पशु-पालन, सिंचाई, जेल, पुलिस, मनोरंजन कर, न्याय प्रशासन, स्थानीय स्वशासन, जंगल, राजस्व इत्यादि। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार सामान्यतः राज्य के विधान मंडलों को ही है और केन्द्र सरकार को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं पङती। संयोगवश जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है, तभी केन्द्र राज्य-सूची के विषयों के संबंध में कानून बनाता है।

समवर्ती सूची के अन्तर्गत 47 विषय रखे गये हैं जिनमें मुख्य हैं- विवाह तथा दिवालियापन, खाद्य पदार्थों में मिलावट, औषधि, मूल्य नियंत्रण, बिजली, व्यवहार प्रक्रिया, विधि, आर्थिक और सामाजिक आयोजन जन्म और मृत्यु का पंजीयन, समाचार-पत्र, पुस्तकें मुद्रणालय, कारखाने इत्यादि।

समवर्ती सूची के विषयों पर – संसद और राज्य-विधान सभाओं – दोनों को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हैं, परंतु यदि दोनों एक दूसरे के विरोधी कानून बना दें तो राज्य का कानून रद्द माना जायेगा। इससे स्पष्ट है कि विधायी शक्तियों के विभाजन में संघीय सर्वोच्चता को मान्यता दी गयी है अर्थात् राज्यों की तुलना में संघ को अधिक अधिकार दिये गये हैं। राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव संसद के नियंत्रण में रखे गये हैं तथा राज्य के मंडलों की जाँच भी केन्द्र का विषय है। इतना ही नहीं अपितु भारतीय संसद को किसी भी राज्य की समाप्ति अथवा सीमा-परिवर्तन और कोई भी नया राज्य बनाने का अधिकार भी प्राप्त है।

प्रशासनिक संबंध

प्रशासनिक क्षेत्र में भी केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। सामान्यतः केन्द्र की प्रशासकीय शक्ति उन विषयों तक सीमित है जिन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार, राज्य की प्रशासकीय शक्तियाँ उन विषयों तक सीमित हैं जिन पर राज्य विधान सभा को कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची के विषयों के संबंध में यद्यपि प्रशासकीय अधिकार साधारणतया राज्यों में निहित हैं परंतु इस अधिकार को संघ की प्रशासनिक शक्तियों द्वारा सीमित रखा गया है।

भारत के केन्द्रीय कानूनों को लागू करने के लिए तथा प्रशासन के लिए कोई पृथक संघ अभिकरण नहीं है। अतः यह उत्तरदायित्व राज्यों को सौंपा गया है और इसके लिए संघ सरकार को राज्यों को निर्देश देने का अधिकार भी दिया गया है।

वित्तीय संबंध

वित्तीय क्षेत्र में भी केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। संविधान के वित्तीय प्रावधानों की दो विशेषताएँ हैं – एक तो, संघ तथा राज्यों के मध्य कर-निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन और दूसरी, करों से प्राप्त आय का बँटवारा। जहाँ तक पहली विशेषता का सवाल है राज्यों की आमदनी को बढाया जा सकता है। जहाँ तक करों से प्राप्त आय के बँटवारे का सवाल है, संविधान में इसका विस्तृत ब्यौरा दिया गया है। इसके अलावा संघ राज्यों को अनेक प्रकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के लिे आवश्यक अनुदान भी देता रहता है। किसी भी राज्य के बजट के घाटे की पूर्ति के लिए भी केन्द्र अनुदान दे सकता है।

न्यायिक संबंध

राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय (सुप्रीमकोर्ट) में अपील की जा सकती है। राज्यों के आपसी झगङों का निपटारा भी उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को लागू करना राजकीय अधिकारियों का केन्द्र तथा राज्यों के संबंधों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राज्यों की अपेक्षा संघ को बहुत अधिक अधिकार दिये गये हैं। भारतीय गणराज्य के संविधान की रचना करते समय संविधान निर्माताओं ने गणराज्य की अखंडता, सुरक्षा तथा एकता पर अधिक ध्यान दिया और चूँकि इसका सीधा दायित्व बहुत कुछ केन्द्र पर निर्भर करता है अतः उसे शक्तिशाली बनाना आवश्यक था।

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