कुमारगुप्त प्रथम की उपलब्धियाँ
कुमारगुप्त प्रथम की सैनिक उपलब्धि के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। उसके कुछ सिक्कों पर व्याघ्रपराक्रमः अर्थात् व्याघ्र के समान बल एवं पराक्रम वाला की उपाधि अंकित मिलती है।
पुष्यमित्र जाति का आक्रमण-
कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से पता चलता है, कि उसके शासन के प्रारंभिक वर्ष शांतिपूर्वक रहे और वह व्यवस्थित ढंग से शासन करता था। कुमागुप्त प्रथम के शासन के अंतिम दिनों में पुष्यमित्र नामक जाति ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कंदगुप्त के भितरी लेख में इस आक्रमण का उल्लेख मिलता है। इस आक्रमण में कुमारगुप्त प्रथम की विजय हुई थी।
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अश्वमेघ यज्ञ-
कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों से पता चलता है, कि उसने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेघ प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञयूप में बँधे हुये घोङे की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर श्रीअश्वमेघमहेन्द्रः मुद्रालेख अंकित है। परंतु अपनी किस महत्त्वपू्र्ण उपलब्धि के उपलक्ष्य में कुमारगुप्त प्रथम ने इस यज्ञ का अनुष्ठान किया, इस बात का पता नहीं चल पाया है।
कुमारगुप्त प्रथम की शासन व्यवस्था-
प्रांतीय अधिकारी-
कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से उसके अनेक पदाधिकारियों के नाम ज्ञात होते हैं। प्रांत को भुक्ति कहा गया है। कुमारगुप्त प्रथम के लेखों से निम्नलिखित प्रांतीय शासकों के नाम ज्ञात होते हैं-
चिरादत्त–
इसके नाम का उल्लेख दामोदर के ताम्रपत्र में हुआ है। वह पुण्ड्रवर्धन भुक्ति (उत्तरी बंगाल) का राज्यपाल था।
घटोत्कचगुप्त–
वह एरम प्रदेश (पूर्वी मालवा) का शासक था। इसके अंतर्गत तुम्बवन भी शामिल था। तुमैन (मध्य प्रदेश के गुना जिले में स्थित) के लेख से उसके विषय में सूचना मिलती है।
बंधुवर्मा–
मंदसोर के लेख से उसके विषय में सूचना मिलती है। वह पश्चिमी मालवा क्षेत्र में स्थित दशपुर का राज्यपाल था।
पृथिवीषेण–
इसके नाम का उल्लेख करमदंडा लेख में हुआ है। वह सचिव, कुमारामात्य तथा महाबलाधिकृत के पदों पर कार्य कर चुका था। उसका कार्य-स्थल अवध का प्रदेश था।
प्रांतीय शासक को उपरिक महाराज कहा जाता था।
कुमारगुप्त प्रथम की धार्मिक नीति-
कुमारगुप्त अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय की भाँति वैष्णव था। गढवा लेख में उसे परमभागवत कहा गया है- परमभागवत – महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तराज्ये। इसके अलावा अन्य धर्मों के प्रति भी कुमारगुप्त प्रथम पूर्णरूपेण सहिष्णु था। मनकुँवर अभिलेख से पता चलता है,कि बुद्धमित्र नामक एक बौद्ध ने महात्मा बुद्ध की मूर्ति की स्थापना की।
करमदंडा लेख में भी उल्लेख किया गया है,कि उसका राज्यपाल पृथिवीषेण शैव मतानुयायी था। वह एक उदार शासक था तथा अनेक संस्थाओं को उसने दान दिया।
कुमारगुप्त प्रथम का साम्राज्य विस्तार-
उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाङी से पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था, को पूर्णतया सुरक्षित बनाये रखा।
कुमारगुप्त प्रथम का मूल्यांकन-
कुमारगुप्त प्रथम का शासन शांति और सुव्यवस्था का काल था। उसके समय में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर था। समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, उसे कुमारगुप्त प्रथम ने संगठित एवं सुशासित बनाये रखा।
उसके शासन काल के अंतिम दिनों में उसकी सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह से पराजित कर दिया था।
कुमारगुप्त प्रथम के स्वर्ण सिक्कों पर गुप्तकुलामलचंद्र तथा गुप्तकुलव्योमशशी उत्कीर्ण हैं।
Reference : https://www.indiaolddays.com