भागवत धर्म को वैष्णव धर्म के रूप में भी जाना जाता है। इस धर्म का उद्भव मौर्योत्तर काल में हुआ। इस धर्म के संस्थापक वासुदेव कृष्ण थे, जो वृष्णि वंशीय यादव कुल के सम्माननीय थे। ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकाण्ड एवं यज्ञीय व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप उदय होने वाला प्रथम सम्प्रदाय भागवत सम्प्रदाय था। वासुदेव कृष्ण को वैदिक देव विष्णु का अवतार माना गया है।
भागवत सम्प्रदाय में वेदान्त, सांख्य और योग के दार्शनिक तत्वों व विचारधाराओं का समावेश है।
वायु पुराण के अनुसार भगवान वासुदेव के पिता वसुदेव ने घोर तपस्या की थी, जिसके परिणामस्वरूप देवकी के गर्भ से चतुर्बाहु वाले दिव्य रूपी भगवान ने अवतार लिया।
छान्दोग्य उपनिषद के एक अवतरण में ऋषि घोर इंगिरस के शिष्य तथा देवकी पुत्र श्रीकृष्ण का वर्णन मिलता है। वासुदेव जो श्रीकृष्ण का प्रारंभिक नाम था, पाणिनी के समय में प्रचलित था। भागवत काल में वासुदेव की भक्ति पूजा करने वाले वासुदेवक कहे जाते थे।
पाणिनी के समय में वासुदेव का पूजन तथा भागवत धर्म का प्रसार-प्रचार तेज गति से प्रारंभ हो गया था।
श्री कृष्ण के अनुसार ज्ञान, कर्म और भक्ति से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
विष्णु एवं नारायण का एकीकरण भी इसी युग में हुआ। वासुदेव कृष्ण उसी अंश के माने जाने लगे।
बेसनगर के द्वितीय ई.पू. के एक अभिलेख से पता चलता है, कि यूनानी दूत तक्षशिला निवासी होलियोडोरस ने वासुदेव के स्मरण में गरुङध्वज स्थापित कराया था। उसने स्वयं को भागवत घोषित किया था। मत्स्य, वायु, पुराण, ब्राह्मण पुराणों में नारायण को विष्णु का स्वरूप माना है।
