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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल तक्षशिला

वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिण्डी जिले में स्थित तक्षशिला प्राचीन समय में गान्धार राज्य की राजधानी थी। रामायण के अनुसार भरत में अपने पुत्र तक्ष के नाम पर इस नगर की स्थापना की थी। महाभारत से पता चलता है कि परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने इसे जीता था तथा यहीं अपना प्रसिद्ध नागयज्ञ किया था।

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विविध प्रकार के यज्ञ

तक्षशिला के इतिहास में प्रसिद्धि का कारण उसका ख्याति प्राप्त शिक्षा केन्द्र होना था। यहाँ अध्ययन करने के लिए दूर-2 से विद्यार्थी आते थे जिसमें राजा तथा सामान्यजन दोनों ही सम्मिलित थे। सबके साथ समानता का व्यवहार किया था। कोशल के राजा प्रसेनजित, मगध का राजवैद्य जीवक, सुप्रसिद्ध राजनीतिविद् चाणक्य, बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु आदि ने यहाँ शिक्षा प्राप्त की थी।

बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि यह धनुर्विद्या तथा वैद्यक की शिक्षा के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपनी सैनिक शिक्षा यही से ग्रहण की थी। चाणक्य यहाँ का प्रमुख आचार्य बन गया। पश्चमोत्तर भारत मे स्थित होने के कारण तक्षशिला विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा आकान्त होता रहा। सिकन्दर के समय यहाँ का राजा आम्भी था जिसने स्वदेश के विरूद्ध उसकी मदद की थी।

यूनानी लेखक ने इस देश की समृद्धि का उल्लेख करते है। मौर्यकाल मे उत्तरापथ की राजधानी थी। मौर्यकाल के बाद यहाँ इण्डो-यूनानी, शक तथा कुषाण राजाओं का शासन रहा। तक्षशिला पर चतुर्थ शती में गुप्त राजाओं का प्रभाव रहा। तत्पश्चात् हूणों के बर्बर आक्रमण ने यहाँ की प्राचीन समृद्धि एवं सभ्यता को नष्ट कर दिया।

हूण शक्ति का उत्थान

7वीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग के समय में यह नगर उजाड़ हो चुका था। 1863 ई. में कनिंघम ने इस स्थान के खण्डहरों का पता लगाया। 1912 से 1929 तक मार्शल ने यहाँ व्यापक पैमाने पर खुदाइयाँ करवाकर पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुयें प्राप्त की थी।

तीन नगरों के अवशेष खुदाई में मिलते है जिसका आधुनिक नाम भीर का टीला, सिरकप तथा सिरसुख है। इन तीनों स्थानों पर पुरानी बस्ती के साक्ष्य भी मिलते है। इस काल में मकान मिट्टी तथा पत्थर के बनाये जाते थे। मकानों की कोई निश्चित योजना नहीं मिलती। उनके बीच में आँगन और चारों ओर कमरे बने होते थे। सड़क तथा नालियों की व्यवस्था थी। इसके अतिरिक्त अनेक भवनों, विहारों तथा स्तूपों के अवशेष मिले है। इनसे पता चलता है कि तक्षशिला बौद्ध सभ्यता का प्रमुख केन्द्र रहा होगा। कुषाण-युगीन सिक्के भी मिलते है।

एक विशेष प्रकार के काले-चमकीले मृद्भाण्ड यहाँ से मिलते है जिन्हें एन. बी. पी. कहा जाता है। इस प्रकार के 22 बर्तनों के टुकड़े भी यहाँ मिलते है जिनका काल ई. पूर्व 500-200 निर्धारित किया गया है। तक्षशिला से रोमन उत्पत्ति की कई प्राचीन सामग्रियाँ जैसे धातु के बर्तन, काँच के कटोरे, मनके, रत्न आदि प्राप्त होते है जो भारत तथा रोम के बीच प्राचीन समय से होने वाले व्यापारिक सम्बन्धों की सूचना देते है। पश्चिम के कई देशों के व्यापारी स्थल-मार्ग द्वारा अपना माल लेकर तक्षशिला पहुँचते थे। ताँबे तथा चाँदी की आहत मुद्रायें भी प्राप्त होती है।

तक्षशिला का दूसरा नगर सिरकप सुनियोजित ढ़ग से बसाया गया था। इसकी सड़के तथा गलियों सीधी थी जो एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर को कई खण्डों में विभक्त करती थी। नगर के चारों ओर सुरक्षा-भित्ति (प्राचीर) का निर्माण कराया गया था जिसमें प्रवेशद्वार, बुर्ज एवं तोरण बने हुए थे। यहाँ का प्रमुख स्तूप धर्मराजिका था जो सिरकप टीले के दक्षिण पूर्व की ओर नगर के बाहर बनाया गया था। इसका निर्माण मूलतः अशोक काल में हुआ था। नगर के उत्तरी प्रवेशद्वार के पास जडियाल नामक मन्दिर का अवशेष मिलता है। सिरकप नगर की स्थापना ईसा पूर्व दूसरी शती में इण्डो-यूनानी शासकों द्वारा करवायी गयी है।

इसके बाद कुषाण राजाओं के समय में तक्षशिला का तीसरा प्रमुख नगर सिरसुख बसाया गया। यहाँ से एक बड़े भवन का अवशेष मिला है जिसमें दो आँगन है। ज्ञात होता है कि इस नगर के चारों ओर भी प्राचीर बनाई गयी थी। तक्षशिला की खुदाई में मिट्टी के बर्तन, आभूषण, सिक्के, मुहरें, मनके, मूर्तियाँ आदि प्राप्त होती है। मिट्टी के बर्तन कई प्रकार के है- काले चमकीले, लाल आदि। यूनानी मृद्भाण्ड भी मिलते है। मातादेवी की मिट्टी की बहुसंख्यक मूर्तियाँ भी मिली है जो अब गन्धार शैली से प्रभावित है।

भारतीय मुद्राओं के अतिरिक्त यवन, शक, पार्थियन, कुषाण तथा ससैनियन राजाओं की मुद्रा भी यहाँ की खुदाई से प्राप्त होती है। इनसे सूचित होता है कि तक्षशिला एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र भी था जहाँ कई देशों के व्यापारी स्थल-मार्ग द्वारा अपना माल लेकर आते थे तथा यहाँ से उसे देश के अन्य भागों में पहुँचाया जाता था।

इस प्रकार तक्षशिला प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक एवं व्यापारिक स्थल था। तक्षशिला जैन-धर्म का भी तीर्थस्थल कहा गया है। पुरातनप्रबन्धसंग्रह में यहाँ 105 जैन स्थलों का विवरण प्राप्त होता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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