इतिहासमध्यकालीन भारतविजयनगर साम्राज्य

अलाउद्दीन अहमद द्वितीय (1436-1458 ई.) का इतिहास | Alauddeen ahamad dviteey | Alauddin Ahmed II

अलाउद्दीन अहमद द्वितीय सुल्तान अलाउद्दीन अहमद अपने पिता अहमद प्रथम की भाँति योग्य और संकल्पयुक्त शासक नहीं था। उसके शासनकाल में अफाकियों का आगमन पहले से कहीं अधिक बढ गया और इस दलगत राजनीति के साथ-साथ उसे अपने संपूर्ण शासनकाल में तेलंगाना, गुजरात, खानदेश, विजयनगर एवं मालवा आदि के विरुद्ध युद्धों में व्यस्त रहना पङा। इसी काल में उङीसा के गजपति नरेशों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा का सूत्रपात हुआ और दक्षिण की ओर उनके विस्तारवाद के परिणामस्वरूप बहमनी एवं गजपति सेनाओं में कई बार महमूद गवाँ का उल्लेख पाते हैं, जिसे नलगोंडा के विद्रोह का दमन करने के लिये नियुक्त किया गया था। उपर्युक्त सैनिक अभियानों में सुल्तान इतना अधिक व्यस्त रहा कि वह अपने स्वास्थ्य के प्रति बेपरवाह हो गया और 1358 ई. में उसकी अकाल मृत्यु हो गयी।

महमूद गवाँ का युद्ध-

दिवंगत सुल्तान ने अपने जीवनकाल में ही अपने सबसे बङे पुत्र हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी नामजद किया था। फरिश्ता ने इसे बहुत क्रूर सुल्तान बताया है। राज्यारोहण के बाद ही उसने महमूद गवाँ को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। अपने तीन वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल में उसे क्रमशः तीन विद्रोहों का सामना करना पङा। साथ ही दिक्खिनियों एवं अफाकियों के मध्य विद्वेष भी बढता गया। परंतु महमूद गवाँ की योग्यता एवं कुशलता के परिणामस्वरूप उसे इन राजनीतिक कठिनाइयों पर सफलता प्राप्त हुई। हुमायूँ के शासनकाल की समस्त सफलताओं का श्रेय महमूद गवाँ को है और इन सफलताओं ने उसे इतिहास के आलोक में आने का अवसर दिया।

हुमायूँ की मृत्यु के समय उसके पुत्र निजामुद्दीन अहमद की आयु केवल आठ वर्ष की थी। इस कारण से भूतपूर्व सुल्तान हुमायूँ ने अपने जीवनकाल में ही एक प्रशासनिक परिषद की स्थापना की थी। इसमें राजमाता और महमूद गवाँ सहित चार सदस्य थे। इस परिषद ने उदारवादी एवं समझौतावादी नीति का अनुसरण किया और भूतपूर्व सुल्तान के शासनकाल में जिन्हें राजनीतिक अपराधों के लिये बंदी बना लिया गया था उन्हें मुक्त कर दिया।

प्रशासनिक परिषद की स्थिति का लाभ उठाकर उङीसा के कपिलेश्वर गजपति ने दक्षिण की ओर से और उत्तर की ओर से मालवा के महमूद खलजी ने बहमनी साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कपिलेश्वर गजपति तो बीदर तक बढ आया और उसने युद्ध का हरजाना माँगा, परंतु बहमनी सेनाओं ने अंततः गजपति सेनाओं को खदेङ दिया।

उङीसा के गजपति के आक्रमण से कहीं अधिक उग्र, मालवा के महमूद खलजी का आक्रमण था, जिसने उङीसा के गजपति नरेश एवं खानदेश के फारूकी सुल्तान के साथ गठबंधन करके दक्कन पर आक्रमण कर दिया। ऐसे संकट के समय प्रारंभ में प्रशासनिक परिषद अने अपूर्व एकता एवं साहस का परिचय दिया। बाद में सदस्यों के मध्य आपस में फूट पङ गयी और सारी बहमनी प्रतिरक्षा व्यवस्था भंग हो गयी। परिणामस्वरूप खलजी सेनाओं ने बीदर को घेर लिया और राजपरिवार को बीदर छोङकर फिरोजाबाद में शरण लेनी पङी। परंतु ऐसे संक्रमण के समय महमूद गवां की कूटनीति ने बहमनी साम्राज्य की विनाशात्मक स्थिति से रक्षा कर ली।

उसने गुजरात के सुल्तान से सहायता की याचना की। गुजरात के सुल्तान ने महमूद गवाँ के इस निवेदन को स्वीकार कर लिया और गुजराती तथा बहमनी सेनाओं ने महमूद खलजी को बीदर से मालवा की ओर कूच करने को विवश किया। महमूद गवाँ की गुजरात के साथ इस मित्रता की नीति से 1462 ई. में मालवा के दूसरे आक्रमण के समय भी बहमनी साम्राज्य की रक्षा हुई। उक्त आक्रमण के तीन मास बाद ही सुल्तान निजामुद्दीन अहमद की सहसा मृत्यु हो गयी।

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