इतिहासराजस्थान का इतिहास

कुम्भा एवं गुजरात के संबंध

कुम्भा एवं गुजरात के संबंध

कुम्भा एवं गुजरात के संबंध – मेवाङ और गुजरात की शत्रुता एवं संघर्ष की कहानी काफी पुरानी थी और महाराणा कुम्भा को यह शत्रुता विरासत के रूप में मिली थी। 1433ई. में जब गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने मेवाङ पर आक्रमण किया तो महाराणा मोकल ने उसका मार्ग रोकने के लिये चित्तौङ से प्रस्थान किया था और जीलवाङा में अपना शिविर लगाया था।

इसी स्थान पर उसकी हत्या कर दी गयी थी। परंतु मेवाङ के भाग्यवश इस अवसर पर अहमदशाह ने मेवाङ में अधिक लूटमार न करके सीधे नागौर का मार्ग पकङा। नागौर के मुस्लिम शासक फिरोजखाँ ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। प्रसन्न अहमदशाह चुपचाप वापिस अहमदाबाद लौट गया और मेवाङ उसकी लूटमार से बच गया।

अहमदाबाद जाते ही सुल्तान राज्य की आंतरिक समस्याओं में उलझ गया और उसे मेवाङ पर पुनः आक्रमण करने का समय ही नहीं मिल पाया। अगस्त, 1442 ई. में सुल्तान अहमदशाह का स्वर्गवास हो गया।

कुम्भा एवं गुजरात के संबंध

अहमदशाह के बाद उसका लङका मुहम्मदशाह द्वितीय गुजरात का सुल्तान बना। उसके शासनकाल में गुजरात में ही उसके विरुद्ध इतने विद्रोह उठे कि वह मेवाङ पर आक्रमण करने का समय नहीं निकल पाया। 1451 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन अहमदशाह गुजरात का नया सुल्तान बना।

उसने 1459 ई. तक शासन किया। उसके बाद उसके चाचा दाऊदशाह ने थोङे समय तक राज्य किया। दाऊदशाह के बाद मुहम्मदशाह द्वितीय का लङका फत्तेखाँ सुल्तान बना तो भारतीय इतिहास में महमूद बेगङा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार, महाराणा कुम्भा को अपने शासनकाल में गुजरात के पाँच सुल्तानों का सामना करना पङा।

कुम्भा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिये कि उसने इन सभी सुल्तानों की विस्तारवादी नीति से मेवाङ की रक्षा की। ऐसा प्रतीत होता है कि एक लंबे समय तक कुम्भा ने गुजरात के साथ खुले संघर्ष को टालने का प्रयास किया था।

मेवाङ और गुजरात के संघर्ष का मुख्य कारण नागौर की राजनीतिक स्थिति थी। राजस्थान के पश्चिमी भाग में स्थित नागौर के इस छोटे से राज्य पर फिरोजखाँ का अधिकार था और वह गुजरात के सुल्तान के प्रति निष्ठा रखता था। 1451-52 ई. में फिरोजखाँ की मृत्यु हो गयी।

उसकी मृत्यु के बाद नागौर के सिंहासन के लिए उत्तराधिकार संघर्ष शुरू हो गया। जिसमें फिरोज के भाई मुजाहिदखाँ ने फिरोज के लङके शम्स खाँ को पराजित करके नागौर का सिंहासन हस्तगत कर लिया। इस पर शम्स खाँ महाराणा कुम्भा का आश्रय लिया और नागौर को प्राप्त करने के लिये महाराणा से सैनिक सहायता की याचना की।

कुम्भा को नागौर पर मेवाङ का प्रभुत्व बढाने का यह एक अच्छा अवसर प्रतीत हुआ। फिर भी उसने शम्स खाँ को इस शर्त पर सहायता देना स्वीकार किया कि नागौर का शासक बन जाने के बाद वह नागौर दुर्ग की किलेबंदी नहीं करेगा और किले की तीन बर्जियों को नष्ट कर देगा। शम्स खाँ ने उस समय राणा की दोनों शर्तों को स्वीकार कर लिया।

इस पर कुम्भा उसकी सहायता के लिये अपनी सेना सहित नागौर की तरफ बढा। कुम्भा के आगमन की सूचना मिलते ही मुजाहिद खां नागौर से भाग खङा हुआ। नागौर से वह मालवा के सुल्तान की शरण में जा पहुँचा। उसके भाग जाने से बिना किसी प्रतिरोद के नागौर पर शम्स खाँ का अधिकार हो गया।

कुम्भा के वापिस लौटते ही शम्स खाँ ने शर्तों के प्रतिकूल नागौर दुर्ग की मरम्मत तथा किलेबंदी का काम शुरू कर दिया। इस पर कुम्भा ने उसे सबक सिखाने का निश्चय किया।

शम्स खाँ के आचरण से क्षुब्ध कुम्भा ने सेना सहित नागौर की ओर प्रस्थान किया। राणा के सैनिक प्रयाण की सूचना मिलते ही शम्स खाँ नागौर की सुरक्षा का दायित्व अपने विश्वस्त अधिकारियों को सौंपकर गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन से सहायता की याचना करने के लिये अहमदाबाद चला गया।

अहमदाबाद पहुँचने के बाद शम्स खाँ ने अपनी लङकी का विवाह कुतुबुद्दीन के साथ करके कुतुबुद्दीन पहुँचने के बाद शम्स खाँ ने अपनी लङकी का विवाह कुतुबुद्दीन के साथ करके कुतुबुद्दीन को अपने अनुकूल बना लिया। कुतुबुद्दीन ने तत्काल अपने दो सेनानायकों – अमीरचंद पायक और मलिक गदाई को शम्स खाँ की सहायतार्थ उसके साथ नागौर भेज दिया।

शम्स खाँ गुजरातियों की सहायता से कुम्भा का मुकाबला करने लगा परंतु इस संघर्ष में कुंभा ने अपने शत्रुओं को बुरी तरह पराजित किया और नागौर के आस-पास आबाद मुस्लिम परिवारों को भारी क्षति उठानी पङी। कीर्ति स्तंभ की प्रशस्ति के अनुसार राणा ने नागौर की मस्जिद को जलाया, किले को तोङा, खाई को भर दिया, खजाने से विपुल रत्नों का संचय किया, यवनियों को कैद किया और यवनों को दंड दिया। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशस्तिकार ने इस संघर्ष का वर्णन अतिशयोक्त के साथ किया है।

वस्तुतः महाराणा कुम्भा ने नागौर दुर्ग पर अधिकार नहीं किया था। वह नागौर के आस-पास के क्षेत्रों को बर्बाद करके वापिस लौट गया था। शायद कुम्भा के इस कदम के पीछे राठौङ जोधा की आक्रामक गतिविधियाँ उत्तरदायी रही हों। इस समय तक जोधा ने अपनी पैतृक राजधानी मंडौर पर अपना अधिकार जमा लिया था और अब वह नियमित रूप से मेवाङ के क्षेत्रों पर धावे मारने लगा था। इसीलिये शायद कुम्भा ने नागौर में समय नष्ट करना उचित नहीं समझा हो।

कुम्भा के हाथों शम्स खाँ और गुजरात की मुस्लिम सेना की पराजय ने भारत के सभी मुसलमानों को भयभीत कर िदाय और इससे सुल्तान कुतुबुद्दीन की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा। अतः 1456ई. में कुतुबुद्दीन ने एक शक्तिशाली सेना के साथ चित्तौङ की ओर प्रस्थान किया।

तबकाते-अकबरी के लेखक निजामुद्दीन लिखता है कि कुतुबुद्दीन कुम्भलगढ की तरफ बढा और जब वह आबू के आस-पास पहुँचा तो सिरोही के अपदस्थ राजा कन्थादेव (देवङा शासक) ने सुल्तान की सेवा में उपस्थित होकर उससे महाराणा से अपना पैतृक राज्य पुनः दिलाने की प्रार्थना की।

सुल्तान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये अपने सेनानायक इमादुलमुल्क को आबू जीतने का दायित्व सौंपा और खुद कन्थादेव के साथ सिरोही की तरफ बढा। कंभा की सेना ने आबू के समीप इमादुलमुल्क को बुरी तरह से पराजित करके पीछे धकेल दिया। जब सुल्तान को अपने सेनानायकों की पराजय की सूचना मिली तो उसने उसे अपने पास बुला लिया और सेना सहित कुम्भलगढ की तरफ बढा।

इस समय कुम्भा माण्डलगढ से मालवा के सुल्तान मुहम्मद खलजी को खदेङने में व्यस्त था। फिर भी, कुतुबुद्दीन के कुम्भलगढ पहुँचने के पूर्व ही कुम्भा कुम्भलगढ पहुँच गया। कुम्भलगढ पर गुजराती सुल्तान के आक्रमण के परिणामों को लेकर इतिहासकारों में भारी मतभेद है। फरिश्ता आदि मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार राणा पराजित हुआ और उसने सुल्तान को बहुत से रुपये तथा रत्न भेंट किये और भविष्ट में नागौर पर आक्रमण न करने का वचन दिया।

इससे सुल्तान संतुष्ट होकर वापिस लौट गया। इसके विपरीत राजस्थानी स्रोतों के अनुसार कुम्भा ने सुल्तान को करारी पराजय दी जिससे वह वापिस लौट गया। संभव है कि कुतुबुद्दीन ने विपरीत परिस्थितियों को भाँपकर वापिस लौटना ही उचित समझा हो।

फरिश्ता के मतानुसार जब कुतुबुद्दीन कुम्भलगढ से वापिस लौट रहा था तो मार्ग में मालवा के सुल्तान महमूद खलजी का राजदूत ताजखाँ उससे मिला और अपने स्वामी की तरफ से यह कहा कि यदि मालवा और गुजरात आपस में मिलकर मेवाङ पर आक्रमण करें तो कुम्भा की शक्ति को नष्ट करना सरल काम होगा।

महमूद की तरफ से यह प्रस्ताव भी रखा गया कि विजय के बाद गुजरात के मेवाङ का दक्षिणी भाग अपने राज्य में मिला ले और अहीरवाङा का भाग मालवा को मिले चम्पानेर में दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों ने इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। इस संधि की शर्त के अनुसार कुतुबुद्दीन ने एक बार पुनः चित्तौङ के लिये प्रस्थान किया।

मार्ग में उसने आबू पर अधिकार कर आस-पास के क्षेत्रों को लूटा। इसी समय मालवा की तरफ से महमूद खलजी ने भी मेवाङ पर आक्रमण कर दिया।

फरिश्ता लिखता है कि दोनों सुल्तानों के आगे कुम्भा को पराजित होना पङा और उन्हें विपुल धनराशि देकर विदा करना पङा। इसके विपरीत कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति तथा रसिक प्रिया में कुम्भा द्वारा दोनों सुल्तानों को पराजित करने का विवरण मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों सुल्तानों को एक दूसरे के प्रति अतिवश्वास रहा हो जिसकी वजह से वे मिल जुलकर कोई योजना नहीं बना पाये और इधर-उधर की लूट खसोट के बाद दोनों वापस लौट गये।

इसकी पुष्टि तारीखे अलफी से भी होती है जिसमें लिखा है कि कुतुबुद्दीन ने राणा से अपनी शर्तें तय कर ली और महमूद को अपने तौर से राणा से संधि करने के लिये अकेला छोङ दिया।

कुतुबुद्दीन ने मेवाङ पर बार-बार आक्रमण किया परंतु उसे किसी प्रकार की सफलता हाथ न लगी। 1459 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद गुजरात में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी जिसके परिणामस्वरूप कुछ समय के लिये मेवाङ गुजराती आक्रमण के भय से बचा रहा। कुतुबुद्दीन के बाद उसका चाचा दाऊद खाँ सिंहासन पर बैठा परंतु वह अपने सरदारों का विश्वास प्राप्त नहीं कर पाया।

गुजराती सामंतों ने नागौर के शासक शम्स खाँ और उसकी पुत्री को मौत के घाट उतार दिया और कुछ दिनों बाद दाऊद खाँ को सिंहासन से हटाकर फत्तेखाँ को सुल्तान बनाया। वह महमूद बेगङा के नाम से विख्यात हुआ। सिंहासन पर बैठते समय उसकी आयु 14 वर्ष की रही होगी और शासन के प्रारंभिक चार-पाँच वर्षों तक अपने वजीर इमादुलमुल्क की देखरेख में काम करना पङा होगा। 1463 ई. से वह स्वतंत्र रूप से शासन चलाने लगा।

इस अवधि में राणा कुम्भा को गुजरात की ओर से किसी प्रकार के खतरे का सामना नहीं करना पङा। परंतु गिरनार की बात पर दोनों पक्षों में थोङा बहुत तनाव अवश्य उत्पन्न हो गया। गिरनार सौराष्ट्र का एक छोटा सा समुद्र क्षेत्र था जिस पर कुम्भा का दामाद शासन कर रहा था। महमूद बेगङा इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिलाने को उत्सुक था।

इसी उद्देश्य से उसने 1464,1466 और 1467 ई. में गिरनार पर आक्रमण किये परंतु कुम्भा के समय पर सैनिक सहायता मिलते रहने से तीनों बार गिरनार वालों ने बेगङा के आक्रमणों को विफल बना दिया। ऐसा प्रतीत होता है, कि कुम्भा और बेगङा दोनों ही सम्मुख युद्ध को टालना चाहते थे, अतः दोनों के मध्य सीधे संघर्ष की नौबत नहीं आयी। कुम्भा की मृत्यु के बाद बेगङा को गिरनार जीतने में सफलता मिल गयी।

मालवा-गुजरात गठबंध की समीक्षा

1451ई. के आस-पास मालवा और गुजरात के मध्य मेवाङ के विरुद्ध चंपानेर की संधि सम्पन्न हुई थी। डॉ. उपेन्द्रनाथ डे ने शिहाबहाकिम के वृत्तांत के आधार पर संधि की निम्नलिखित शर्तों का उल्लेख किया है

मेवाङ राज्य की पराजय के बाद अजमेर, मेवाङ, नागौर और मालवा के आस-पास का क्षेत्र मालवा को मिलेगा।

गुजरात का सुल्तान जब भी आवश्यकता पङे मेवाङ पर आक्रमण करेगा। इन शर्तों के संबंध में डॉ.दशरथ शर्मा ने लिखा है कि यह एकपक्षीय समझौता लगता है और कुतुबुद्दीन इतना भोला एवं निःस्वार्थी नहीं था कि बिना किसी प्रलोभन के वह सैनिक अभियान करने की बात मान लेता।

तबकाते अकबर के अनुसार दोनों में यह तय हुआ कि कुतुबुद्दीन गुजरात की सीमा से लगे कुम्भा के क्षेत्रों को बर्बाद करेगा और महमूद खलजी मेवाङ, अजमेर और आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्य में मिलायेगा। आवश्यकता पङने पर दोनों सुल्तानों ने एक दूसरे की सहायता के लिये, आने का वचन भी दिया। जफर-उल-वालेह में स्पष्ट लिखा है कि चित्तौङ, सिरोही और कुम्भलमेर को गुजरात का प्रभाववर्ती क्षेत्र माना गया और मेवाङ, अजमेर तथा आस-पास का क्षेत्र मालवा के लिये छोङ दिया गया।

दोनों सुल्तानों ने कुछ समय के लिये संधि के अनुसार काम किया। कुतुबुद्दीन ने आबू को जीतकर उसे कन्थादेव को वापिस लौटा दिया। आबू से कुतुबुद्दीन कुम्भलगढ गया परंतु जब वहाँ सफलता नहीं मिली तो उसने चित्तौङ की तरफ रुख किया। यहाँ भी वह असफल रहा। अतः आस-पास के क्षेत्रों को लूटकर वापिस चला गया।

दूसरी तरफ महमूद खिलजी ने मंदसौर को अपना केन्द्र बनाया और यहाँ से उसने हाङौती, छप्पन, टोडाभीम आदि स्थानों को बर्बाद करने के लिये अपने सैनिक दस्ते भेजता रहा। कुम्भा उसके वास्तविक इरादे को भाँप पाता उससे पूर्व ही महमूद ने अचानक धावा मारकर अजमेर को जीत लिया। अजमेर से वह मांडलगढ आया परंतु यहाँ उसे बुरी तरह से पराजित होना पङा और वह वापिस लौट गया।

मांडलगढ पर महमूद के धावे निरंतर होते रहे और अंत में उसे मांडलगढ लेने में सफलता मिल ही गई। दिसंबर, 1457ई. में एक तरफ से महमूद ने पूर्वी मेवाङ पर आक्रमण किया और दूसरी तरफ से गुजरात ने भी हमला कर दिया। इसी समय मारवाङ के राव जोधा ने भी प्रत्याक्रमण शुरू कर दिये। ऐसी स्थिति में कुम्भा ने सम्मुख युद्ध के स्थान पर छापामार युद्ध तथा कूटनीति का सहारा लिया। मुस्लिम सुल्तानों को कठोर परिश्रम के उपरांत भी कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया।

कुतुबुद्दीन की मृत्यु के साथ ही चंपानेर की संधि का अंत हो गया। इस प्रकार, मालवा-गुजरात गठबंधन कुम्भा को परास्त करने में असफल रहा। इसका मुख्य कारण यही था कि कुम्भा को दोनों की संयुक्त सेना से एक भी युद्ध नहीं लङना पङा। फिर भी, कुम्भा को एख ही समय में उनकी पृथक-पृथक सेनाओं से संघर्ष अवश्य करना पङा और इस संघर्ष में वह मेवाङ की स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहा। यह उसकी बहुत बङी उपलब्धि थी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : कुम्भा एवं गुजरात के संबंध

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