राष्ट्रसंघ की असफलता
राष्ट्रसंघ की कमजोरियाँ
राष्ट्रसंघ पूर्ण रूप से असफल रहा। परंतु क्या इसका पतन अवश्यमम्भावी था ? क्या इस प्रखार की कोई अन्य संस्था दो महायुद्धों के मध्य विश्व शांति को बनाए रख सकती थी? क्या कोई अन्य संस्था द्वितीय महायुद्ध को रोक सकती थी ?ये प्रश्न ऐसे हैं जिनका हम उचित उत्तर नहीं दे सकते।
परंतु इतना तो कहा जा सकता है, कि राष्ट्रसंघ का ढाँचा अमेरिका और इंग्लैण्ड के शांतिवादियों की आशा के अनुकूल बन नहीं पाया था। इसमें कई प्रकार की कमजोरियाँ रह गई जो संघ के पतन के लिये उत्तरादयी सिद्ध हुई।
फ्रांस की हठधर्मी के कारण जर्मनी को राष्ट्रसंघ से पृथक रखना, प्रथम दुर्भाग्य था। राष्ट्रसंघ शांति काल के प्रथम चरण में, विजेताओं और पराजितों के मध्य व्याप्त वैमन्सय और मतभेद को दूर करने में असफल ही नहीं रहा, अपितु और अधिक बढाने में सहयोगी रहा।
पराजित देश सोचने लगे थे राष्ट्रसंघ मित्र राष्ट्रों की संस्था है, पराजित राष्ट्रों की नहीं। अमेरिका के द्वारा शांति संधियों की पुष्टि न करना दुर्भाग्य था।
क्योंकि इसके परिणामस्वरूप अमेरिका राष्ट्रसंघ की पुष्टि ने करना दुर्भाग्य था। क्योंकि संधियों का ही एक अंग था। साम्यवादी रूस को निमंत्रित न करना राष्ट्रसंघ को लिये तीसरा दुर्भाग्य था। इस प्रकार, राष्ट्रंसघ ने अपना कार्य संसार की तीन प्रमुख शक्तियों के सहयोग के बिना आरंभ किया।
राष्ट्रसंघ में सम्मिलित अधिकांश राज्य छोटे-छोटे थे और उन्हें अपनी उन्नति तथा सुरक्षा के लिये राष्ट्रसंघ के सहयोग की आशा थी, न कि इस योग्य थे राष्ट्रसंघ की शक्ति और अधिकार में वृद्धि करने में योगदान दे सकें।
संवैधानिक निर्बलता
राष्ट्रसंघ के संविधान में भी कई दोष थे, जिनके परिणामस्वरूप संघ का पतन हुआ। सबसे बङा दोष तो यह था कि संघ के पास अपने निर्णयों को लागू करवाने के लिये कोई अन्तर्राष्ट्रीय सेना नहीं थी। जिस समय संघ के प्रारूप को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तब फ्रांस आदि कुछ देशों ने इस बात पर जोर दिया था कि संघ को अपने निर्णयों को लागू करवाने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय सेना रखने का अधिकार होना चाहिए।
परंतु उनके सुझाव को अस्वीकृत कर दिया गया था। इसके स्थान पर धारा 16 के अन्तर्गत कुछ अनुशास्तियों का उल्लेख किया गया जो दो प्रकार की थी – 1.) वित्त और वाणिज्य संबंधी 2.)सैनिक कार्यवाही संबंधी। संघ के पास अपनी सेना तो थी नहीं। एक अङियल और आक्रामक राष्ट्र को सही रास्ते पर लाने के लिये संघ को अपने सदस्य राज्यों की सेना पर निर्भर रहना पङता था।
आर्थिक प्रतिबंधों को लागू करने के लिये भी सेना की आवश्यकता थी और इस मामले में भी राष्ट्रसंघ को बङी शक्तियों पर निर्भर करना पङता था। क्या महान श्क्तियाँ राष्ट्रसंघध के लिये उसकी आवश्यकतानुसार सेना देने तथा अङियल राष्ट्रों से युद्ध छेङने को सहमत हो सकती थी? निःसंदेह यदि ऐसा हुआ होता तो संसार को दूसरे महायुद्ध के विनाश से बचा लिया गया होता। परंतु हुआ इसके ठीक प्रतिकूल।
इससे एक बात स्पष्ट हो गयी कि अच्छे विचार और पवित्र इच्छाएँ हमें अधिक दूर तक नहीं ले जा सकती और एक ऐसे संसार का जो कि युद्ध के भय से मुक्त हो, निर्माण नहीं किया जा सकता।
संविधान का दूसरा महत्त्वपूर्ण दोष यह था कि संघ के संविधान में कोई ऐसी प्रभावकारी धारा नहीं थी, जिसके द्वारा सदस्यों को अपने आप राष्ट्रसंघ की सिफारिशों को लागू करने के लिये बाध्य किया जा सके। सिर्फ एक धारा थी, जिसके अन्तर्गत सदस्य को संघ से पृथक किया जा सकता था।
परंतु संघ राष्ट्रों का एक ऐसा संगठन था, जिसकी सदस्यता ऐच्छिक थी और कोई भी राष्ट्र अपनी इच्छानुसार सदस्यता को त्यागने में स्वतंत्र था और एक बार सदस्यता छोङने के बाद उस देश को राष्ट्रसंघ के आदेशों का पालन करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता था। अतः सदस्य देशों को राष्ट्रसंघ की सदस्यता की विशेष चिन्ता न थी।
तीसरा महत्त्वपूर्ण दोष यह था कि किसी भी देश को आक्रामक अथवा अपराधी घोषित करने का निर्णय कौंसिल को सर्वसम्मति से लेना होता था। राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के युग में सर्वसम्मत निर्णय पर पहुँचना दुष्कर काम था। राष्ट्रसंघ की कार्य पद्धति भी काफी जटिल थी और किसी भी समस्या पर तुरंत कार्यवाही करना संभव नहीं था।
इससे आक्रामक देशों को अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिये पर्याप्त समय मिल जाता था। अंतिम दोष यह था कि संघ के संविधान में सभी प्रकार के युद्धों का निषेध नहीं किया गया था। कोई भी देश रक्षात्मक युद्ध लङ रहा है और कौन आक्रामक। इससे संघ की कायरता तथा आत्मविश्वास की कमी स्पष्ट झलकती है।
संघ के संविधान में तथा शांति संधियों में संशोधन करने की प्रक्रिया भी अत्यधिक जटिल थी। संविधान में इसके लिये सर्वसम्मत निर्णय पर जोर दिया गया। इतनी बङी संख्या वाले संघ में सर्वसम्मत निर्णय पर पहुँचना बहुत ही दुष्कर कार्य था।
उत्तरदायित्व का अभाव
राष्ट्रसंघ के पतन का एक कारण उसके सदस्यों द्वारा अपने कर्त्तव्यों से विमुख होना था, अर्थात् अपने उत्तरदायित्व से मुँह मोङना था। यह देखा गया कि सदस्य राष्ट्रों ने अपने वचनों को पूरा करने का प्रयत्न नहीं किया। अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया। इतना ही नहीं, उन्होंने इस बात का भी प्रयत्न किया कि सही तथ्य संघ के सामने ने लाए जा सकें ताकि उन्हें अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिये आक्रामक राष्ट्रों के विरुद्ध अपनी सेनाएँ न भेजनी पङे।
जब आक्रामक देशों को विश्वास हो गया कि बङी शक्तियाँ संघ के आदेशों की लागू करवाने के लिये अपनी सेनाएँ भेजने की जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं, तब ही वे छोटे-छोटे राष्ट्रों को हङपने का साहस कर सके। जापान द्वारा मंजूरिया पर आक्रमण के समय इंग्लैण्ड के प्रतिनिधि पर जान सीमन ने स्पष्ट कहा था कि, “मेरी नीति का उद्दश्य मेरे देश को संकट से दूर रखना है।इसी प्रकार इथोपिया के मामले में उसने कहा था कि, इथोपिया के लिये मैं एक भी ब्रिटिश जहाज को खोने का खतरा उठाना नहीं चाहूँगा।”
1934 ई. में आस्ट्रिया की भूमि पर आस्ट्रिया के राष्ट्रपति डाल्फस की हत्या कर दी गयी। इस मामले को संघ के सामने रखना था। परंतु मुसोलिनी द्वारा इस शर्त पर कि यदि यह मामला संघ के सामने उपस्थित नहीं किया गया तो मैं अस्ट्रिया को बचाने का प्रयत्न करूँगा, आश्वासन देने पर मामला दबा दिया गया।
इंग्लैण्ड ने वर्साय संधि का उल्लंघन करते हुये जर्मनी के साथ नौ संधि की। इसी प्रकार फांस ने इंग्लैण्ड को सूचित किए बिना इटली के साथ पृथक समझौता कर लिया। राइनलैण्ड का पुनः शस्त्रीकरण किया गया, आस्ट्रिया को हङप लिया गया, जर्मनी में यहूदियों का कत्लेआम किया गया, स्पेनिश गणतंत्रता का गला घोंट दिया गया, चेकास्लोवाकिया का अंग-भंग कर दिया गया, परंतु राष्ट्रंसघ कुछ भी न कर सका।
क्योंकि कोई भी सदस्य इन घटनाओं के संबंध में संघ के प्रस्तावों को लागू करवाने को उत्सुक नहीं था। जब तक बङे राष्ट्रों को प्रत्यक्ष संकट का सामना नहीं करना पङा, तब तक उन्होंने आक्रामक देशों के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही करना ठीक नहीं समझा, चाहे राष्ट्रसंघ का पतन ही क्यों न हो जाए।
असमानता
राष्ट्रसंघ के प्रति सामान्य जनता का और छोटे राज्यों का रूख उत्साहजनक नहीं था। संघ के सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि थे न कि जनता के। अतः संघ का सदस्य राष्ट्रों की जनता के साथ किसी प्रकार का कोई संपर्क नहीं था। इसके अलावा संघ के सभी सदस्यों की संघ में न तो समान स्थिति ही थी और न समानाधिकार ही प्राप्त थे।
सच पूछा जाय तो संघ बङी शक्तियों का राजनीतिक अखाङा था। कौंसिल जो कि संघ की प्रमुख शक्तिशाली अंग थी, में महान शक्तियों को स्थायी स्थान प्राप्त थे, जबकि संघ के शेष सदस्यों को केवल 9 स्थान प्रदान किए गए थे। अतः यह स्वाभाविक ही था कि इन छोटे राज्यों के मन में बङे राज्यों के प्रति वैमनस्य बढे।
वर्साय की संधि में राष्ट्रसंघ का जन्म हुआ और यही बात संघ के लिये अभिशाप बन गई। समझौतों के द्वारा राष्ट्रसंघ को कई कार्य सौंपे गए थे, जिनमें एक काम था शांति व्यवस्था द्वारा स्थास्थिति को बनाए रखना। शांति समझौतों ने पराजित राष्ट्रों के गौरव को समाप्त कर दिया था, उनकी सैनिक शक्ति को पंगु बना दिया था और उनकी आर्थिक स्थिति को दयनीय बना दिया था।
अतः उन्हें शांति संधियों तथा इन पर आधारित और इनके कर्त्तव्यों को निभाने वाली संस्था राष्ट्रसंघ से घृणा थी। नार्मन वेण्टविच के शब्दों में, “राष्ट्रसंघ एक कुख्यात माता की कुख्यात पुत्री थी।” अतः राष्ट्रसंघ पराजित देशों का विश्वास अर्जित करने में असफल रहा।
अधिनायकवाद का उदय
राष्ट्रपति विल्सन और उसके सहयोगियों का विश्वास था कि राष्ट्रसंघ के सभी सदस्य सामूहिक रूप से विश्व शांति, स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। परंतु यूरोप में इसके विपरीत अधिनायवादी सरकारों का उदय हुआ।
इटली, जर्मनी, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों में अधिनायकवाद के उदय ने राष्ट्रसंघ की प्रगति में भारी रुकावटें पैदा कर दी। अधिनायकवादी सरकारें हर संभव उपाय से तथा हर कीमत पर अपने स्वार्थों की पूर्ति चाहती थी। उनकी नीतियों ने संघ को पंगु बना दिया।
संतुष्टिकरण की नीति
अधिनायकवाद के उदय तक रूस का साम्यवाद पश्चिम के पूँजीवादी राष्ट्रों के लिये सिर दर्द बन चुका था। अधिनायकों ने अवसर का लाभ उठाया, अपने आप को साम्यवाद विरोधी घोषित कर दिया और अपनी आक्रामक कार्यवाहियों तथा साम्राज्यवादी लिप्सा पर साम्यवाद विरोधी चादर डाल दी। पश्चिमी देशों ने उनका स्वागत किया। उनके प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाई ।
उनके छोटे-मोटे आक्रामक कार्यों की उपेक्षा की और उनकी धमकियों को भी सहन किया। क्योंकि वे चाहते थे कि साम्यवाद और अधिनायकवाद एक दूसरे से टकराकर चकनाचूर हो जायँ, ताकि इसके बाद वे दोनों को सरलता के साथ कुचल सकें। परंतु हुआ इसके विपरीत ।
शक्तिसम्पन्न होते ही तानाशाहों ने अपना असली रूप भी प्रकट कर दिया और अंत में द्वितीय महायुद्ध का सूत्रपात हुआ। यदि कोर्फ्यू काण्ड के समय मुसोलिनी को, मंचूरियन संकट के समय जापान को और राईनलैण्ड में सेना भेजने पर हिटलर को नियंत्रित कर दिया जाता तो अधिनायकों का हौंसला कभी नहीं बढ पाता।
राष्ट्रसंघ का मूल्यांकन
गेथोर्न हार्डी ने लिखा है, “राष्ट्रसंघ शांति सम्मेलन का एक महान रचनात्मक कार्य था। इसकी आत्मा पूर्णतः अन्तर्राष्ट्रीय थी, और उन सदस्यों के हाथों में जो निस्वार्थ भाव से इसका उपयोग करने का संकल्प करते, यह शांति का एक शानदार उपकरण बन सकती थी।” यद्यपि राष्ट्रसंघ ने अपने आपको एक महत्त्वपूर्ण संस्था प्रमाणित कर दिखाया।
आर्थिक, सामाजिक और मानवीय क्षेत्रों में संघ को आशातीत सफलता मिली और संघ के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप विश्व में अन्तर्राष्ट्रयतावाद और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना को अभूतपूर्व बल भी मिला। यही कारण है कि वित्तीय महायुद्ध के बाद अधिकांश राष्ट्रों ने राष्ट्रसंघ से मिलती जुलती एक दूसरी संस्था – संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की।
इस संबंध में वाल्टर महोदय ने लिखा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों, सिद्धांतों, संस्थाओं और अंगों पर, इसकी प्रत्येक बात पर राष्ट्रसंघ की स्पष्ट छाप है। दरअसल 18 अप्रैल, 1946 को राष्ट्रसंघ की अन्त्येष्टि नहीं हुई थी बल्कि उसका पुनर्जन्म हुआ था। लैंगसम के शब्दों में, राष्ट्रसंघ की सबसे बङी देन अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के विचार को उन्नत करना था।
वस्तुतः राष्ट्रसंघ ने विश्व इतिहास में पहली बार दुनिया के राजनीतिज्ञों को एक ऐसा प्लेटफार्म प्रदान किया, जिसके माध्यम से वे अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचार एवं सुझाव अभिव्यक्त कर सकते थे और जिसके माध्यम से एक दूसरे के बौद्धिक ज्ञान का लाभ भी उठा सकते थे। यही तो अन्तर्राष्ट्रीयवाद है। परंतु राष्ट्रीय स्वार्थों ने जान बूझ कर अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के इस प्रयोग को सफल नहीं होने दिया।
महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर
प्रश्न : राष्ट्रसंघ की स्थापना में किस व्यक्ति का योगदान सर्वाधिक रहा
उत्तर : वुडरो विल्सन
प्रश्न : राष्ट्रसंघ ने अपने वैधानिक अस्तित्व को किस दिन प्राप्त किया था
उत्तर : 10 जनवरी, 1920
प्रश्न : राष्ट्रसंघ के निम्न अंगों में से कौन सा अंग एक स्वायत्त संस्था थी
उत्तर : अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन
प्रश्न : राष्ट्रसंघ ने किस देश के सर्वाधिक शर्णार्थियों को बसाने में योगदान दिया था
उत्तर : यूनान
प्रश्न : आक्रामक कार्यवाहियों को रोकने में राष्ट्रसंघ को पहली असफलता किस घटना में मिली
उत्तर : कोर्फ्टू काण्ड
1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा
Online References
wikipedia : राष्ट्रसंघ