इतिहासतुगलक वंशदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

गयासुद्दीन तुगलक का वारंगल पर द्वितीय आक्रमण

गयासुद्दीन तुगलक का वारंगल पर द्वितीय आक्रमण तेलंगाना की प्रथम असफलता के बाद सुल्तान (गयासुद्दीन तुगलक) निरुत्साहित नहीं हुआ अपितु उसका संकल्प और भी दृढ हो गया। इसामी के अनुसार उलुग खाँ नवीन सहायक सेना के पहुँचने तक चार महीने देवगिरि में ही ठहरा जिससे यह स्पष्ट है कि उत्तरी भारत के राजाओं की भाँति दक्षिण के राजा भी कितने विवेकहीन थे। वे उसके चार महीने इस प्रकार देवगिरि में पङे रहने पर भी उसे चारों ओर से घेरकर नष्ट नहीं कर सके। इसका प्रधान कारण यह है कि अदूरदर्शिता और शिथिलता में दक्षिण के शासक ग्रसित हो चुके थे। जैसे ही दिल्ली से सहायक सेना देवगिरि पहुँची, उलुग खाँ तेलंगाना की ओर बढा। इस बार वह अधिक सावधान था। उसने अपनी संचार व्यवस्था को बनाए रखने के लिये प्रभावशाली उपाय किए। मार्ग में बीदर तथा अन्य बहुत से किले छीनकर अपनी सेना वहाँ तैनात करता हुआ वह आगे बढा।

बोधन के किले का घेरा डालकर अंत में वह वारंगल पहुँचा। वहाँ का शासक राय प्रताप रुद्रदेव निश्चिंत बैठा था। उसने अपनी रक्षा के लिये कोई योजना नहीं बनाई और न ही दक्षिण के अन्य किसी राजा ने यह सोचा कि एकत्र होकर सामना किया जाए। घेराबंदी पाँच महीने तक जारी रही। अंत में रोग और भूख से ग्रस्त दुर्ग की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। शाही सेना ने बङी निर्दयता से जनता को लूटा और बङे-बङे भवनों को नष्ट किया। राय अपने संबंधियों तथा आश्रितों सहित दिल्ली भेजा गया। किंतु इससे पूर्व कि वह सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत किया जाता वह परलोक सिधार गया। यह भी संभव है कि मान हानि से बचने के लिये उसने आत्महत्या कर ली हो। गयासुद्दीन तुगलक का वारंगल अभियान

गुहा, कुंत और माबर की जीतें वारंगल अभियान के बाद हुई। ऐसा प्रतीत होता है, कि गुही इस समय तेलगू शासक (जगलापी पांडेय) के अधिकार में था। उसने भी यह उलुग खाँ को समर्पित कर दिया। तेलंगाना अब दिल्ली साम्राज्य का एक भाग बन गया और उलुग खाँ ने उसके शासन का स्थायी प्रबंध किया। सारे राज्य को अनेक भागों में बाँटकर वहाँ अपने शासक नियुक्त कर दिए। वारंगल का नाम बदलकर सुल्तानपुर कर दिया गया और स्वयं वहीं रहकर उलुग खाँ शांति व्यवस्था कायम करने लगा। पुराने हिंदू अधिकारियों को उनके पदों पर रहने दिया गया, पुराने मंत्रियों में कुछ के साथ उदारता का व्यवहार किया गया। न तो कलाकृतियाँ नष्ट की गयी और न ही मंदिर तोङकर जनता को शत्रु बनाया गया। इस प्रकार गयासुद्दीन के काल में वारंगल की स्वतंत्रता समाप्त की गयी और वह दिल्ली सल्तनत का एक अभिन्न अंग बन गया। इतना होते हुए भी उस प्रदेश पर दिल्ली सल्तनत का अधिकार अस्थिर तथा डाँवाडोल बना रहा।

मुहम्मद बिन तुगलक की विस्तारवादी नीति असीमित थी। दक्षिण भारत का इतना अधिक भाग सल्तनत के आधिपत्य में आ गया कि उसमें विस्तार करने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जाग उठी। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण भारत के द्वारसमुद्र, माबर तथा अनैगोंडी राज्यों के विरुद्ध अभियान किए और इस प्रकार दक्षिण का पूरा पश्चिमी तट उसके अधिकार में आ गया। परंतु दक्षिणी जीतें क्षणिक और अस्थायी सिद्ध हुई। जल्द ही इस क्षेत्र में सुल्तान के विरुद्ध भयंकर विद्रोह हुए और अंत में दक्षिण के सभी क्षेत्र सल्तनत से स्वतंत्र हो गए।

सरहिंदी के अनुसार मुहम्मद तुगलक के शासनकाल का प्रथम विद्रोह सुल्तान के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने किया जो दक्षिण में सागर का हाकिम था। इब्न बतूता के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसने मुहम्मद तुगलक के प्रति स्वामिभक्त की शपथ लेने से इनकार कर दिया। किंतु इसामी का कहना है कि मुहम्मद तुगलक ने उसे गुर्शप की उपाधि दी और उसे सागर भेजा, जहाँ उसने बङा यश प्राप्त किया। गयासुद्दीन के समय वह समाना का शासक और आरिज-ए-मुमालिक पद पर रह चुका था। गुर्शप के विद्रोह का तत्कालीन लेखकों ने कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया है। इसामी के अनुसार सुल्तान मुहम्मद के व्यवहार में परिवर्तन हो जाने के कारण विद्रोह किया गया। दक्षिण के अन्य लेखकों के अनुसार इसका कारण दरबार में अमीरों का ईर्ष्यापूर्ण व्यवहार था। संभवतः वह इसलिए भी असंतुष्ट हो गया कि सुल्तान मुहम्मद ने उसे कोई अधिक ऊंचा पद नहीं दिया था। इसके अलावा राजधानी से दूर एक संपन्न धन धान्य से परिपूर्ण सूबे का शासक होना किसी भी महत्वाकांक्षी सैनिक के लिये स्वतंत्र होने का प्रलोभन बन सकता था। गुर्शप ने युद्ध की पूरी तैयारी की, बहुत सा धन जमा किया और दक्षिण के शक्तिशाली सामंतों को अपनी ओर मिलाय। पराजय की संभावना से उसने अपने परिवार की रक्षा के लिये कंपिली के हिंदू राजा से मित्रता कर ली। स्वतंत्रता घोषित करके उसने निकटवर्ती सामंतों से भूमि कर वसूल किया। सुल्तान ने सूचना पाते ही गुजरात के सूबेदार ख्वाजा-ए-जहाँ अहमद अय्याज को प्रस्थान के लिए आदेश दिया। गुर्शप ने तुरंत गोदावरी पार की और देवगिरि से पश्चिम की ओर बढा। अय्याज ने देवगिरि पर कब्जा किया था। अंत में गुर्शप ने पराजित होकर कंपिली के हिंदू शासक के यहाँ शरण ली। कंपिली एक छोटा सा राज्य था जिसमें आधुनिक रायचूर, धारवाङ, बेल्लारी तथा इसके आस-पास के क्षेत्र सम्मिलित थे। प्रारंभ में कंपिली के राजा देवगिरि के यादवों के अधीन उनके मित्र थे। किंतु देवगिरि पर दिल्ली सुल्तानों के अधिकार के बाद कंपिली के शासक दिल्ली सुल्तानों के विरोधी बन गए और वे उनका लगातार विरोध करते रहे। वारंगल और द्वारसमुद्र के राजा परस्पर संगठित होने की उपेक्षा कंपिली पर आक्रमण करते रहे। फिर भी यहाँ के शासकों ने अपनी राज्य सत्ता का अत्यधिक विस्तार किया। सुल्तान मुहम्मद ने कंपिली पर आक्रमण करने का निश्चय किया और इसके विरुद्ध तीन बार आक्रमण किए। प्रथम आक्रमण में सुल्तान की मुस्लिम सेना को पराजित होकर भागना पङा और कंपिली की सेना को अत्यधिक लूट का माल प्राप्त हुआ। सुल्तान की सैनिक पराजय से उसके गौरव को क्षति पहँची परंतु दक्षिणी जनता का यह भय समाप्त हो गया कि शाही सेना अजेय है। यह विदित हो गया कि दक्षिण के राजा काफी शक्तिशाली हैं जिनको दबाना इतना सरल नहीं है। कंपिली के राजा ने भी राज्य की रक्षा की पूर्ण तैयारियाँ की और हुसदुर्ग तथा कूमर के किलों को पूरी तरह युद्ध सामग्री से भर दिया। किंतु इस बार भी शाही सेना कुतुबुल्कमुल्क के साथ जान बचाकर भाग गई। इसके बाद सुल्तान मुहम्मद ने अपने विश्वसनीय मित्र मलिकजादा ख्वाजा-ए-जहान की अध्यक्षता में विशाल सेना कंपिली राज्य के विरुद्ध भेजी। कंपिली के राजा ने एक महीने तक शत्रु का डटकर सामना किया। परंतु जब बचने की कोई स्थिति न रही तो गुर्शप को द्वारसमुद्र के राजा बल्लाल तृतीय की रक्षा में परिवार सहित भिजवा दिया गया और शत्रु से अंतिम युद्ध करने का संकल्प किया गया। उसने जौहर संपन्न किया तथा अपनी समस्त संपत्ति, स्त्रियाँ, और पुत्रियाँ अग्नि में भस्म कर दी और स्वयं शस्त्र धारण करके शत्रु पर टूट पङा। कंपिली नरेश ने भयंकर युद्ध के बाद रणक्षेत्र में ही वीरगति प्राप्त की। शाही सेना का किले पर अधिकार हो गया।

मलिकजादा ने (हौस) दुर्ग से होयसल राज्य पर आक्रमण किया, क्योंकि उसने गुर्शप को शरण दी थी। बल्लाल ने मलिक के आक्रमण के बाद थोङे समय में दिल्ली सुल्तान की प्रभुसत्ता से विद्रोह कर वार्षिक राज्य कर भेजना बंद कर दिया और इसी अवधि में कंपिली के राज्य को भी जीतने का विचार किया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि होयसल राज्य का भाग जो सुदूर दक्षिण के पांड्य राजाओं के अधिकार में है वापस ले लिया जाए। इश उद्देश्य से 1316 ई. में पांड्य राजाओं से युद्ध आरंभ किया गया। जब वह आस-पास के राजाओं के साथ युद्ध में व्यस्त था तभी मुहम्मद तुगलक की सेना ने द्वारसमुद्र की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस विपत्ति से और अपनी रक्षा के उद्देश्य से गुर्शप को बंदा बनाकर उसने मलिकजादा को समर्पित कर दिया तथा दिल्ली के सुल्तान का प्रभुत्त्व स्वीकार कर लिया।

सुल्तान ने दक्षिण मे देवगिरि को दौलताबाद का नाम देकर राजधानी बना लिया। इसे दक्षिण में एक प्रभावशाली प्रशासन केंद्र स्थापित करने का प्रयास कहा जा सकता है। प्रो. हबीब के मतानुसार – मुहम्मद तुगलक दक्षिण को अपने किसी भी समकालीन से अधिक जानता था। उसका दक्षिणी प्रयोग एक विशेष सफलता थी। यद्यपि उत्तर को दक्षिण से विभाजित करने वाले अवरोध टूट गए थे तथापि दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक शक्ति का दक्षिण में प्रसार सफल सिद्ध नहीं हुआ।

मुहम्मद तुगलक ने अपने राज्याभिषेक के समय तक दक्षिण में देवगिरि तथा तेलंगाना पर अधिकार कर लिया और साम्राज्य के दक्षिणी प्रदेशों को पाँच प्रांतों में विभक्त कर दिया –

1.) देवगिरि

2.) तेलंगाना

3.) माबर

4.) द्वारसमुद्र

5.) कंपिली

दिल्ली साम्राज्य के इन दक्षिणी प्रदेशों में विंध्य पर्वत से लगभग मदुरा तक की मरम्मत भूमि सम्मिलित थी। तेलंगाना को अनेक भागों में विभक्त करके उनके लिये अलग-अलग सूबेदार नियुक्त कर दिए गए। धीरे-धीरे इन हाकिमों ने स्थानीय हिंदू राजाओं से संपर्क स्थापित करके अपना प्रभाव बढाने की चेष्टा की। दक्षिण की दूरी दिल्ली से इतनी अधिक थी कि सुल्तान इच्छा होते हुए भी दक्षिणी प्रांतों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकता था। इशलिए दक्षिण के प्रांतपति अधिक स्वतंत्र रहे। दक्षिण हाकिमों एवं स्थानीय हिंदू शासकों के ह्रदय में सुल्तान के प्रति स्वाभाविक आज्ञाकारिता की भावना बहुत कम थी। अतः तुर्की सरदार स्वतंत्र शासक होने का स्वप्न देखा करते थे। केवल सुविधा और स्वार्थ का ध्यान रखकर ही वे अपनी राजभक्ति की मात्रा स्थिर करते थे। राजधानी परिवर्तन के पीछे यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण था। दुर्भाग्यवश सुल्तान अपनी नई राजधानी में उत्तरी भारत के विद्रोहों और अकालों के कारण अधिक समय तक नहीं टिक सका। दक्षिण के हिंदू राजा अपने वंश तथा धर्म के अभिमान को भूले नहीं थे और अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिये सदा अवसर की तलाश में रहा करते थे। यही कारण है कि दक्षिणी समस्या का समाधान उचित ढंग से नहीं हो पाया और कालांतर में वहाँ के शासक स्वतंत्र हो गए। दक्षिणी समस्याओं को गंभीर बनाने में सुल्तान का स्वयं भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उसकी उदारता से आकृष्ट होकर मध्य एशिया के अनेकों महत्वाकांक्षी व्यक्ति भारत आए। सुल्तान ने उन्हें सेना एवं प्रशासन के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। इन लोगों को प्रायः सत्ताधिकारी अमीर कहकर पुकारा गया। ये विदेशी सरदार अमीरान-ए-सादा कहलाते थे। प्रत्येक सत्ताधिकारी के अधीन सौ सैनिक रहते थे। यह शब्द मूलतः तुर्कों तथा मंगोलों के सैनिक ढाँचे से संबंधित था जो दशमलव प्रणाली पर आधारित था। डॉ.ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि क्या यह अमीर सैनिकों के नायक थे अथवा सौ गाँवों का कार्य भार सँभालने वाले अधिकारी? सादा शब्द से प्रतीत होता है कि प्रत्येक अमीर सौ ग्रामों का अधिकारी बनाया गया था। बरनी के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ये लोग अधिकारी थी जिनके नागरिक और सैनिक दोनों तरह के कर्तव्य थे और प्रत्येक के अधीन सौ सैनिक थे। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे भूमि कर वसूल करें और प्रजा को शांत रखें। किंतु ये अत्यंत महत्वाकांक्षी और स्वार्थी थे। विदेशी होने के नाते इनके ह्रदयों में सुल्तान के प्रति किसी प्रकार की श्रद्धा एवं निष्ठा की भावना न थी। इन सत्ताधिकारियों में से अधिकांश को गुजरात, मालवा तथा दक्षिण में नियुक्त किया गया था। देशी अमीर भी इनसे ईर्ष्या एवं स्पर्द्धा करते थे, इसलिए देशी अमीरों के विरुद्ध सत्ताधिकारियों ने स्वयं को संगठित कर लिया। यही अमीर बाद में सुल्तान के लिये विकट समस्या बने रहे। दक्षिण पर शासन करने की सुल्तान की नई योजना ने ही सादा अमीरों का विरोध तीव्र किया। सत्ताधिकारियों का संगठित वर्ग अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के लिये सचेष्ट रहने लगा। फिर भी एहसानशाह के विद्रोह के पूर्व तक शक्ति दृढ बनी रही और हिंदू राजाओं, तुक्री अमीरों तथा सत्ताधिकारियों ने खुले तौर पर कोई अशांति उत्पन्न नहीं की। परंतु एहसानशाह के सफल विद्रोह ने दूसरों को सफलता का आत्मविश्वास प्रदान कर दिया। दक्षिण के हाकिम और स्थानीय शासक भी अपनी स्वतंत्रता के लिए आकुल हो उठे। सुल्तान मुहम्मद तुगलक के विरुद्ध उत्तर के व्यापक विद्रोहों की अग्नि जल्द ही दक्षिण तक पहुँच गई। सुल्तान दक्षिण के इन विद्रोहों का दमन करने में असफल सिद्ध हुआ और एक-एक करके दक्षिण के क्षेत्र स्वतंत्र होते चले गए। इसी क्रम में दक्षिण के शक्तिशाली राज्य विजयनगर और बहमनी राज्य ने स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की।

दक्षिणी समस्याओं को गंभीर बनाने में सुल्तान का स्वयं भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उसकी उदारता से आकृष्ट होकर मध्य एशिया के अनेकों महत्वाकांक्षी व्यक्ति भारत आए। सुल्तान ने उन्हें सेना एवं प्रशासन के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। इन लोगों को प्रायः सत्ताधिकारी अमीर कहकर पुकारा गया। ये विदेशी सरदार अमीरात-ए-सादा कहलाते थे। प्रत्येक सत्ताधिकारी के अधीन सौ सैनिक रहते थे। यह शब्द मूलतः तुर्कों तथा मंगोलों के सैनिक ढाँचे से संबंधित था जो दशमलव प्रणाली पर आधारित था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि क्या यह अमीर सैनिकों के नायक थे अथवा सौ गाँवों का कार्य भार सँभालने वाले अधिकारी? सादा शब्द से प्रतीत होता है, कि प्रत्येक अमीर सौ ग्रामों का अधिकारी बनाय गया था। बरनी के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ये लोग अधिकारी थे जिनके नागरिक और सैनिक दोनों तरह के कर्तव्य थे और प्रत्येक के अधीन सौ सैनिक थे। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे भूमि कर वसूल करें और प्रजा को शांत रखें। किंतु ये अत्यंत महत्वाकांक्षी और स्वार्थी थे। विदेशी होने के नाते इनके ह्रदयों में सुल्तान के प्रति किसी प्रकार की श्रद्धा एवं निष्ठा की भावना न थी। इन सत्ताधिकारियों में से अधिकांश को गुजरात, मालवा तथा दक्षिण में नियुक्त किया गया था। देशी अमीर भी इनसे ईर्ष्या एवं स्पर्द्धा करते थे, इसलिए देशी अमीरों के विरुद्ध सत्ताधिकारियों ने स्वयं को संगठित कर लिया। यही अमीर बाद में सुल्तान के लिये विकट समस्या बने रहे। दक्षिण पर शासन करने की सुल्तान की नई योजना ने ही सादा अमीरों का विरोध तीव्र किया। सत्ताधिकारियों का संगठित वर्ग अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के लिये सचेष्ट रहने लगा। फिर भी एहसानशाह के विद्रोह के पूर्व तक शक्ति दृढ बनी रही और हिंदू राजाओं, तुर्की अमीरों तथा सत्ताधिकारियों ने खुले तौर पर कोई अशांति उत्पन्न नहीं की। परंतु एहसानशाह के सफल विद्रोह ने दूसरों को सफलता का आत्मविश्वास प्रदान कर दिया। दक्षिण के हाकिम और स्थानीय शासक भी अपनी स्वतंत्रता के लिए आकुल हो उठे। सुल्तान मुहम्मद तुगलक के विरुद्ध उत्तर के व्यापक विद्रोहों की अग्नि जल्द ही दक्षिण तक पहुँच गई। सुल्तान दक्षिण के इन विद्रोहों का दमन करने में असफल सिद्ध हुआ और एक-एक करके दक्षिण के क्षेत्र स्वतंत्र होते चले गए जिससे तुगलक का राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। दक्षिण में माबर, वारंगल, द्वारसमुद्र सल्तनत से संवतंत्र हो गए । इसी क्रम में दक्षिण के शक्तिशाली राज्य विजयनगर और बहमनी राज्य ने स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की।

एहसानशाह के स्वतंत्र होने के साथ ही दक्षिण में उत्पाद प्रारंभ हो गया। वारंगल के शासक प्रताप रुद्रदेव के पुत्र कृष्णनायक ने दक्षिण में हिंदू शक्ति के पुनरुत्थान और इस्लामी सत्ता की समाप्ति के उद्देश्य से हिंदू राजाओं का दृढ संगठन स्थापित किया। इसमें तेलंगाना का शासक हरिहर, द्वारसमुद्र का होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय और कोंड का शासक रुद्रदेव काकतीय के दो संबंधी हरिहर तथा बुक्का को भी बंदी बनाकर सुल्तान के पास दिल्ली भेज दिया गया। 1336 ई. में कंपिली में हिंदुओं का प्रतिरोध इतना बढ गया कि दक्षिण का स्थानीय हाकिम मकबूल किसी भी प्रकार उनका दमन न कर सका। सुल्तान मुहम्मद ने हरिहर तथा बुक्का के सहयोग से वहाँ शांति स्थापित करनी चाही। हरिहर को उश क्षेत्र का शासक तथा बुक्का को मंत्री बनाकर भेजा गया। हरिहर की नियुक्ति का समाचार पाकर जनता प्रसन्न हो गई और उसने समझा कि विदेशी शासक हारकर हट जाने को बाध्य हुआ। यद्यपि अप्रत्यक्ष रूप से वह अपनी स्वतंत्र सत्ता एवं शक्ति के विस्तार में लगा रहा, तथापि प्रत्यक्ष रूप से वह सुल्तान का स्वामिभक्त बना रहा और उसने अपने स्वतंत्र शासन को संगठित किया, कर वसूलों की उचित व्यवस्था की और धर्म गुरु तथा महामंत्री के परामर्श से 1336 ई. में विजयनगर राज्य की स्थापना की। हरिहर ने सेना को संगठित करके अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार प्रारंभ किया। उसने मुहम्मद तुगलक के शक्तिहीन होने के चार-पाँच वर्षों के अंदर ही कोंकण तथा मालाबार का कुछ क्षेत्र तथा तुंगभद्रा नदी की तलहटी के क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिए। सुल्तान की मृत्यु के बाद हरिहर विजयनगर का स्वतंत्र शासक बन गया। इस प्रकार 1346 ई. में होयसल राज्य के पतन के बाद विजयनगर राज्य और भी सुदृढ एवं विस्तृत हो गया।

दक्षिण में हिंदू शक्ति का दूसरा स्तंभ द्वारसमुद्र का होयसल शासक वीर बल्लाल तृतीय था। यद्यपि बाहरी तौर पर उसने सुल्तान को संतुष्ट रखने की कोशिश की तथापि अंदर ही अंदर उसने दक्षिण में तुगलक सत्ता के विनाश के लिये प्रयत्न किए। मदुरा के मुस्लिम शासकों से बहुत सा क्षेत्र छीन लिया गया। सुल्तान ने अंत में वीर बल्लाल के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई का आदेश दिया और उसे संघर्ष में बंदी बना लिया गया। किंतु 1324 ई. में सुल्तान के आदेश पर उशकी हत्या कर दी गयी। इस पराजय से होयसलों की शक्ति को आघात पहुँचा। परंतु दक्षिण की स्वतंत्रता के प्रयास समाप्त नहीं हुए। वीर बल्लाल का स्थान प्रताप रुद्रदेव के पुत्र कृष्णनायक ने ले लिया। मलिक मकबूल के लिये वारंगल में ठहरना असंभव हो गया। वह दिल्ली लौट गया। द्वारसमुद्र, कंपिली, वारंगल और माबर से तुगलक सत्ता को उखाङ फेंकने के लिए वीर बल्लाल चतुर्थ और विजयनगर के शासकों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा स्थापित किया।

जब सुल्तान मुहम्मद की शक्ति क्षीण होने लगी तब नर्मदा के दक्षिणी भाग से उसकी सत्ता को समाप्त करने का कार्य विदेशी सत्ताधिकारियों ने किया। सुल्तान ने इन सत्ताधिकारियों के विद्रोहों को रोकने का अथक प्रयास किया किंतु इनके विरुद्ध उसे विशेष सफलता नहीं मिली।

सर्वप्रथम मालवा में सत्ताधिकारियों ने विद्रोह किए और सुल्तान को कर देना बंद कर दिया। सुल्तान ने अजीज खुम्मार नामक एक योग्य हाकिम को मालवा में सत्ताधिकारियों के विद्रोह का दमन करने तथा उनसे राज्य कर वसूल करने का आदेश दिया। वास्तव में अजीज ने आतंकवादी नीति अपनाई। उसने लगभग नवासी सादा अमीरों को बंदी बनाकर उनका वध कर दिया। इससे सत्ताधिकारी और अधिक भङक उठे। इस हत्याकांड के समाचार से जहाँ कहीं भी सादा अमीर थे वे आशंकित और सतर्क हो गए। दौलताबाद तथा गुजरात में घृणा और भय की लहर फैल गयी। सत्ताधिकारियों ने लूट मार शुरू कर दी तथा जनता को कर न देने के लिए प्रोत्साहन दिया। धीरे-धीरे इन स्थानों से पूरा कर वसूल करना कठिन हो गया। सुल्तान ने दक्षिण का कर दौलताबाद के निकट धारा गढ में एकत्रित करने का आदेश दिया। मालवा की अशांति के कारण धन दिल्ली लाना कठिन था। परिणामतः मालवा में अव्यवस्था बढती गयी और विद्रोहियों की संख्या तथा शक्ति में भी विस्तार हुआ।

सत्ताधिकारियों ने देवगिरि में भी विद्रोह के झंडे खहे कर दिये। वहाँ का हाकिम कुतुलुग खाँ एक सहिष्णु और उदार व्यक्ति था। इन्हीं गुणों का लाभ उठाकर इस क्षेत्र के कर्मचारियों एवं सत्ताधिकारियों ने राजकोष में नियमित रूप से कर जमा करना छोङ दिया। परिणामस्वरूप शासन में भ्रष्टाचार फैला और राजकोष रिक्त हो गया। कुतलुग खाँ के स्थान पर उसके भाई आलिम-उल-मुल्क को नया हाकिम नियुक्त किया गया। इन दिनों सुल्तान गुजरात में हुए विद्रोह के दमन में व्यस्त था अतः उसने दक्षिण के सत्ताधिकारियों को सहायता के लिये गुजरात में आने का आदेश दिया। किंतु इन सत्ताधिकारियों को इस बात का भय हो गया कि मालवा की भाँति गुजरात में बुलाकर सुल्तान उनकी सामूहिक हत्या करना चाहता है। इसीलिए उन्होंने देवगिरि में एकत्रित होकर विद्रोह कर दिया। देवगिरि के हाकिम निजामुद्दीन को बंदी बनाकर इन सत्ताधिकारियों ने दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। राजकोष लूटकर इस क्षेत्र को अनेकों स्वतंत्र राज्यों में बाँट दिया। सुल्तान इस विद्रोह का समाचार पाकर देवगिरि गया तथा उसने दुर्ग को घेर लिया। तीन माह के घेरे और संघर्ष के बाद उसने दुर्ग तथा नगर पर पूरा अधिकार कर लिया। परंतु विद्रोहियों की शक्ति समाप्त नहीं हुई। इसी बीच सुल्तान को गुजरात में तंगी के विद्रोह की सूचना मिली और वह गुजरात गया । देवगिरि के विद्रोहियों की शक्ति को पूरी तरह कुचले बगैर सुल्तान का गुजरात जाना एक भयंकर भूल थी। विद्रोहियों का साहस बढ गया। सत्ताधिकारी नेता हसन गंगू ने देवगिरि पर अपना अधिकार कर लिया। जब देवगिरि दिल्ली साम्राज्य से अलग हो गया तो सभी शाही अमीरों को दक्षिण छोङने के लिये बाध्य होना पङा। 1346 ई. में हसन गंगू अलाउद्दीन हसन बहमनशाह के नाम से देवगिरि की गद्दी पर बैठा और उसने बहमनी साम्राज्य की नींव डालकर मुहम्मद तुगलक के दक्षिणी साम्राज्य का अंत कर दिया। सौभाग्यवश सुल्तान को तंगी के विद्रोह से फुर्सत नहीं मिली और वह दक्षिण पर पुनः अधिकार स्थापित करने का अवसर न पा सका।

इस प्रकार से दक्षिण सुल्तान मुहम्मद तुगलक के लिये बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ। यह संयोग की बात है कि उसके स मय के विद्रोहों का श्रीगणेश दक्षिण से ही हुआ। दक्षिण की समस्याओं को वह भलीभाँति समझता था, इसके बावजूद उसने दक्षिण पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से देवगिरि में राजधानी परिवर्तन का प्रयास किया। यह योजना विफल सिद्ध हुई। आर्थिक क्षति के साथ-साथ सुल्तान के यश को भी आघात पहुँचा। दिल्ली से दूर होने के कारण सुल्तान दक्षिण में देवगिरि, माबर, वारंगल आदि के शासकों पर पूर्ण नियंत्रण कायम करने में असफल रहा। दक्षिण के शासक शाही सत्ता से स्वतंत्र होने के लिये व्याकुल थे। उन्होंने दक्षिण के राजाओं को संगठित करके अपना संघ बनाया किंतु सुल्तान इनका दबा नहीं सका। इसके अलावा दक्षिण में सत्ताधिकारियों ने भी विद्रोह कर दिया। यद्यपि दक्षिण के इन सब विद्रोहों को दबाने और शांति व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया गया तथापि सभी प्रयत्न असफल रहे। अव्यवस्था और असंतोष बढता गया। शासन में भ्रष्टाचार के साथ राजस्व में गहरी कमी हो गयी जिससे प्रशासन शिथिल और अव्यवस्थित हो गया। ये सभी विघटनकारी शक्तियाँ इतनी प्रबल हो गयी कि सुल्तान मुहम्मद न तो दक्षिण को ही संभाल सका और न उत्तर को। फलतः दक्षिण के प्रदेश एक-एक करके दिल्ली से स्वतंत्र होते चले गये। इस प्रकार सुल्तान की सत्ता का अंत हो गया। दक्षिण में माबर, विजयनगर तथा गुलबर्गा के स्वाधीन राज्य स्थापित हो गए। दक्षिण के विद्रोहों का प्रभाव उत्तरी भारत पर भी पङा और मालवा, गुजरात तथा सिंध में भी घोर अशांति फैल गयी। संक्षेप में, दक्षिण का साम्राज्य मुहम्मद तुगलक के लिये बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ और उसकी दक्षिणी नीति असफल प्रमाणित हुई। आकस्मिक विद्रोहों से ही उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। एक बङा दुर्भाग्य यह भी रहा था कि मुहम्मद तुगलक के उत्तराधिकारियों में उत्तर भारत को भी वश में रखने की क्षमता नहीं थी। इसलिए उन्होंने दक्षिण के राज्यों से कोई युद्ध नहीं किया। खलजी काल में दक्षिण के सभी राजाओं को दिल्ली सुल्तानों के सम्मुख झुकना पङा। किंतु उनके लिए भी इतने दूरस्थ तथा विस्तृत प्रदेश को साम्राज्य में संयुक्त करके उस पर सीधा शासन करना सुगम नहीं था। इसलिए अलाउद्दीन ने दक्षिण के राजाओं से केवल अपना आधिपत्य स्वीकार कराने के बाद और उनसे राजकर देने का वचन लेकर छोङ दिया। जब तुगलक सुल्तान दिल्ली राज्य के स्वामी बने तो उन्होंने समझा कि समस्त सल्तनत को सर्वांग रूप से सुसंगठित करने के लिए आवश्यक है कि दक्षिण के विभिन्न राज्यों को भी अन्य प्रांतों की भाँति साम्राज्य में मिला लिया जाए और सब पर एकसमान शासन व्यवस्था कायम की जाए। इस नीति का प्रारंभ से ही तुगलक शासकों ने अनुसरण किया।

दक्षिण नीति के परिणाम

इन सुल्तानों की दक्षिण नीति के कई महत्त्वपूर्ण परिणाम हुए। दक्षिण में भारत में संचित धनराशि का बङा हिस्सा उत्तर भारत में चला गया। इस धन की सहायता से सुल्तानों ने साम्राज्य विस्तार और शासन सुधार के साथ कला तथा साहित्य के प्रोत्साहन की विशाल योजनाएँ बनाकर उन्हें कार्यान्वित करने का साहस किया। दक्षिण भारत में इस्लाम का प्रचार बढता गया और मदुरा तथा गुलबर्गा के सुल्तानों के उद्योग से इस्लामी संस्कृति का दक्षिण में प्रचार-प्रसार हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तरी तथा दक्षिणी भारत को एक दूसरे के निकट संपर्क में आने का सुयोग मिल गया। इसका सामाजिक तथा धार्मिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पङा।

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