इतिहासप्रथम विश्वयुद्धविश्व का इतिहास

प्रथम महायुद्ध के कारण

प्रथम महायुद्ध के कारण

20 वीं सदी के प्रारंभ में लङे गये प्रथम महायुद्ध को किसी एक कारण का परिणाम नहीं माना जा सकता। प्रथम विश्वयुद्ध के बहुत से कारण उत्तरदायी थे, जिनका विवरण हमने इस पॉस्ट में किया है। यह युद्ध 28 जुलाई 1914 को प्रारंभ हुआ था। तथा प्रथम महायुद्ध का अंत 11 नवंबर, 1918 हुआ था।

प्रथम महायुद्ध

1914 से 1919 के मध्य यूरोप, एशिया और अफ्रीका तीन महाद्वीपों के जल, थल और आकाश में प्रथम विश्‍व युद्ध लड़ा गया।इसमें भाग लेने वाले देशों की संख्या, इसका क्षेत्र और इससे हुई क्षति के अभूतपूर्व आंकड़ों के कारण ही इसे विश्वयुद्ध कहते हैं।विश्व युद्ध खत्म होते-होते चार बड़े साम्राज्य रूस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और उस्मानिया ढह गए। यूरोप की सीमाएं फिर से निर्धारित हुईं और अमेरिका निश्चित तौर पर एक ‘सुपर पावर’ बन कर उभरा।

प्रथम महायुद्ध के कारण

दो गुटों का निर्माण

बिस्मार्क की कूटनीति के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में फ्रांस बिल्कुल अकेला पङ गया था। जर्मनी एक ओर तो त्रिगुट-संधि के द्वारा आस्ट्रिया – हंगरी तथा इटली के साथ मैत्री-सूत्र में बँधा था और दूसरी ओर जर्मनी ने आस्ट्रिया से छिपाकर रूस के साथ री-इन्श्योरेन्स संधि के द्वारा समझौता कर लिया था। 1890ई. में जर्मनी ने फ्रांस को अकेला कर देने और रूस को एक दूसरे के निकट आने और मैत्री-सूत्र में बँझ जाने का अवसर मिला। कैसर विलियम द्वितीय की साम्राज्यवादी नीति ने ग्रेट-ब्रिटेन को भी जर्मनी से दूर धकेल दिया। इसके अलावा औद्योगिक उत्पादन और वाणिज्य में भी जर्मनी इंग्लैण्ड का सबसे प्रबल प्रतिद्वन्द्वी बन चुका था, अतः इंग्लैण्ड ने फ्रांस की ओर अपनी दृष्टि फेरी और 1904 ई. में दोनों देशों के मध्य संधि हो गयी जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इन दोनों की मैत्री ने इंग्लैण्ड और रूस की संधि का मार्ग साफ कर दिया। इस प्रकार, जर्मनी द्वारा निर्मित त्रिगुट के मुकाबले में इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस का त्रिगुट के मुकाबले में इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस का त्रिगुट अस्तित्व में आ गया। ट्रिपल एलायन्स और ट्रिपल आंतात एक दूसरे के इतने विरुद्ध हो गये थे कि इन्हें खतरे से बचाना दुष्कर काम सिद्ध हुआ। प्रथम महायुद्ध के विशेषज्ञ प्रोफेसर एस.बी.फे.के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध का मुख्य कारण गुप्त गुप्त संधियाँ थी, जो फ्रैंको-प्रशन युद्ध के बाद शुरू हुई थी। इन संधियों ने यूरोप को दो परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित कर दिया। प्रथम महायुद्ध इन्हीं दो गुटों की शक्ति का प्रदर्शन मात्र था, जो शक्ति आजमाने के लिये उत्सुक थे।

बाल्कन राजनीति में जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी को सहायता देने के लिये वचनबद्ध था। यद्यपि फ्रांस का बाल्कन राजनीति में कोई स्वार्थ नहीं था, परंतु वह अपने मित्र रूस की सहायता के लिये वचनबद्ध था, अन्यथा द्वैध आतांत का अस्तित्व खथरे में पङ जाता। त्रिगुट आंतात को बनाए रखने के लिये इंग्लैण्ड भी चुपचाप नहीं बैठ सकता था। अवसर मिलते ही उसे फ्रांस और रूस की सहायता करनी ही थी।

प्रथम महायुद्ध

शस्त्रीकरण के लिये होङ

महायुद्ध का एक प्रमुख कारण शस्रीकरण के लिये होङ थी। 1870 ई. में जर्मनी के हाथों पराजित होने के बाद से ही फ्रांस ने बङे पैमाने पर अपनी सैनिक शक्ति को मजबूत बनाने का प्रयास शुरू कर दिया, जिससे जर्मनी पर बुरा प्रभाव पङा और उसने भी अपनी सैन्य शक्ति का विकास जारी रखा। वैसे दोनों ही देश अपनी सुरक्षा के लिये अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत बना रहे थे, परंतु दोनों एक दूसरे की सैन्य वृद्धि को शंका की दृष्टि से देखते थे। इस प्रवृत्ति ने यूरोप के अन्य देशों को भी प्रभावित किया और वे भी शस्रीकरण की ओर अग्रसर हुए। जब कैसर विलियम द्वितीय ने जर्मन नौ सेना के विकास की तरफ विशेष ध्यान दिया तो इंग्लैण्ड भी इस प्रतिस्पर्द्धा में सम्मिलित हो गया। परिणाम यह निकला कि यूरोप का वातावरण विषाक्त हो गया। चारों ओर संदेह, भय तथा घृणा का वातावरण फैल गया। प्रत्येक देश अपनी सैन्य वृद्धि को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का सवाल मान बैठा और ऐसी स्थिति में सैनिक अधिकारियों को अपनी – अपनी सरकारों पर हावी होने का अवसर मिल गया। इस मानसिक स्थिति को ही सैनिकवाद कहा जाता है।

राष्ट्रीयता

महायुद्ध का एक मौलिक कारण राष्ट्रीयता राषट्रीयता था। फ्रांसीसी क्रांति ने जिस राष्टीयता की भावना को जन्म दिया था, वह भावना अब अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। यह ठीक है कि इस भावना ने जर्मनी तथा इटली के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया था, परंतु अब यही भावना पङौसी देशों के बीच घृणा की भावना पैदा करने लग गयी थी। विशाल जर्मनी, विशाल फ्रांस, महान स्लाव राष्ट्र आदि शब्द राष्ट्रीयता रूपी रोग से ग्रस्त थे। राष्ट्रीयता के इस रोग ने यूरोप के लिये अनेक समस्याएँ पैदा कर दी थी। फ्रांस अपने उन प्रांतों (आल्सेस-लोरेन) को फिर से लेने की आशा रखता था, जो कि उसने 1870 में खो दिए थे। इन प्रांतों की अधिकांश आबादी फ्रेंच थी और फ्रांस उसे परतंत्रता की बेङियों से मुक्त करवाना चाहता था। आस्ट्रिया-हंगरी का विशाल साम्राज्य विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संगम था। उसके साम्राज्य में आबाद पोल, चेक, सर्व, बल्गर आदि जातियाँ अपने राष्ट्रीय राज्यों में मिलना चाहती थी अथवा अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करना चाहती थी। राष्ट्रीयता ने ऑटोमन-साम्राज्य को टुकङे-टुकङे कर दिाय और इन टुकङों में भी आपसी प्रतिस्पर्द्धा चल रही थी। इसी राष्ट्रीयता के नाम पर बाल्कन-युद्ध लङे गए, जिन्होंने प्रथम महायुद्ध का मार्ग प्रशस्त किया था। सर्बिया में तुर्क प्रभुत्व की समाप्ति के बाद सर्बिया में आस्ट्रिया के स्लाव प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित करने हेतु प्रोत्साहित कर रहा था और आस्ट्रिया के राजनीतिज्ञ अपने साम्राज्य के विनाश को रोकने के प्रयत्न में लगे हुये थे। इस प्रकार, राष्ट्रीयता ने संपूर्ण यूरोप में ऐसी समस्याएँ उत्पन्न कर दी, जिनका निवारण युद्ध के माध्यम से ही हो सकता था।

साम्राज्यवाद

पारकर टी.मून ने नया साम्राज्यवाद जिसे आर्थिक साम्राज्यवाद भी कहा जाता है, को प्रथम महायुद्ध का एक प्रमुख कारण माना है। 19 वीं सदी जहाँ राष्ट्रीय आंदोलनों से परिपूर्ण रही थी, वहाँ औद्योगिक विकास की जननी भी रही थी। औद्योगिक क्रांति ने यूरोपीय राष्ट्रों को समृद्धिशाली बनने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित किया। इस प्रेरणा को कार्यान्वित करने के लिये उन्हें पिछङे हुए देशों पर अधिकार अथवा संरक्षण चाहिये था, क्योंकि इसके बिना कच्चा माल प्राप्त करना और तैयार माल को खपाना असंभव था। कच्चे माल और मंडियों के लिये जो खींचातानी शुरू हुई, उसे नियो मर्केण्टिलिज्म भी कहा जाता है। इसके अलावा, सैनिक सुरक्षा, अतिरिक्त आबादी को बसाने का साधन और पिछङे लोगों को सभ्य बनाने की बात साम्राज्यवाद के विकास के मूल कारण थे।

साम्राज्यवाद की इस दौङ में ग्रेट-ब्रिटेन सबसे आगे रहा। कनाडा, आस्ट्रेलिया, भारत, न्यूजीलैण्ड, अफ्रीका एवं एशिया के अन्य देशों पर उसका राजनीतिक प्रभुत्व कायम हो चुका था। उसके साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था और अपनी नौ-शक्ति की श्रेष्ठता के कारण समुद्र की लहरों पर उसका अबाध्य नियंत्रण था। फ्रांस ने भी अफ्रीका तथा एशिया में अपने साम्राज्य का काफी विस्तार कर लिया था। रूस ने संपूर्ण उत्तरी एशिया पर अपना अधिकार जमा लिया था और निकट-पूर्व तथा मध्य-पूर्व में भी अपने पैर पसार रहा था। यूरोप के अन्य छोटे राष्ट्रों – हालैण्ड, बेल्जियम, स्पेन, पुर्तगाल आदि ने भी अपने से कई गुने अधिक क्षेत्रफल वाले प्रदेशों पर प्रभुत्व जमा रखा था। साम्राज्यवाद की इस दौङ में जर्मनी और इटली सबसे अंत में सम्मिलित हुए, अतः उन्हें अफ्रीका में कुछ प्रदेशों तथा छोटे-छोटे द्वीपों के अलावा और अधिक भू-भाग प्राप्त न हो सका। इसीलिये ज्रमनी को अन्य साम्राज्यवादी देशों, विशेषकर इंग्लैण्ड तथा फ्रांस से जलन होने लगी। इसका एक कारण और भी था। जर्मनी ने अब तक औद्योगिक विकास, कृषि व्यापार तथा वैज्ञानिक खोज आदि में भारी उन्नति कर ली थी और उसका उत्पादन काफी तेजी से बढ रहा था। इसको खपाने के लिये उसके पास आवश्यक उपनिवेश नहीं थे। इसके लिये पुराने साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेश हङपना अथवा उन उपनिवेशों में अपना प्रभाव स्थापित करना आवश्यक था। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर जर्मनी ने बर्लिन रेलमार्ग की योजना बनाई, जिससे संघर्ष और बढ गया। वस्तुतः साम्राज्यवाद ने यूरोपीय शक्तियों के मध्य तनाव और वैमनस्य को बढावा देकर प्रथम महायुद्ध का मार्ग प्रशस्त करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

अन्य कारण

प्रथम महायुद्ध के मौलिक कारणों में एक कारण समाचार-पत्रों द्वारा लोकमत को उकसाने का था। ऐसा लगभग सभी देशों के समाचार पत्रों ने किया। उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं को उत्तेजित किया और दूसरे देशों की नीतियों के बारे में गलत प्रचार किया। इतना ही नहीं, समाचार पत्रों ने शांति कायम करने वाली बातों को दबाने का भी काम किया। आर्क ड्यूक फर्डिनैण्ड की हत्या के बाद आस्ट्रिया और सर्बिया में जो जबरदस्त तनाव पैदा हो गया था, उसमें अखबारों की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही थी।

इतिहासकार शेपीरों के अनुसार प्रजातंत्र की भिन्नता और निरंकुश शासकों की उपस्थिति भी इस महायुद्ध का एक कारण बन गयी। रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी तथा तुर्की में निरंकुश शासक थे। इन शासकों की परिवर्तनशील नीतियों के कारण संपूर्ण यूरोपी की शांति खतरे में थी। उनका मानना है, कि यदि इन राज्यों में निरंकुश शासन व्यवस्था नहीं होती तो शायद महायुद्ध इतना जल्दी घटिन नहीं होता।

इन सभी कारणों ने मिलकर उस सौहार्द्र और सौजन्य की जङों को खोखला कर दिया, जिसे सभ्यता एवं संस्कृति के अनेक साधनों – धर्म, व्यापार-वाणिज्य, कला और विज्ञान ने मिलकर बढाया था, जो मानव समाज की समृद्धि के लिये अतिआवश्यक था। इसके स्थान पर आशंका और भय, द्वेष और वैमनस्य का विकास हुआ। जब कुछ स्वार्थी और आक्रामक व्यक्ति राज्य शक्ति और आतंक के सहारे उन्नति करने में कामयाब हो गए तो लोगों में यह धारणा पुनः पुष्ट होने लग गयी कि संघर्ष जीवन का एक प्राकृतिक नियम है और अपने विकास के लिये यह जरूरी है, अर्थात् भौतिक उन्नति के लिये मानव धर्म को भुला दिया गया और हर संभव उपाय से स्वार्थ सिद्धि का प्रयत्न किया जाने लगा।

तात्कालिक कारण

28 जून, 1914 ई. के दिन संपूर्ण संसार आस्ट्रिया के युवराज आर्क ड्यूक फर्डिंनेंड तथा उसकी पत्नी की हत्या के समाचार से विचलित हो उठा था। युवराज और उनकी पत्नी को बोस्निया की राजधानी सोराजोवो की सङक पर कत्ल कर दिया गया। इस हत्या का उद्देश्य राजनीतिक था। हत्या के अपराधी दो बोस्नियन थे, जिन्हें आस्ट्रिया की स्लाव नीति पसंद नहीं थी। आस्ट्रिया का दृढ विश्वास था कि यह हत्या सर्बियन सरकार की सहायता सी की गयी है और उसे इस हत्या के षड्यंत्र की पूरी जानकारी थी। युद्ध के बाद की गई जाँच से इतना तो स्पष्ट हो गया कि सर्बिया के कुछ उच्च अधिकारियों को हत्या के षड्यंत्र की जानकारी थी, परंतु इसमें सर्बिया सरकार का किसी प्रकार का सहयोग नहीं था। आस्ट्रिया ने सर्बिया को भयंकर दंड देने और संभव हो सके तो उसका अस्तित्व ही मिटा देने का निश्चय कर लिया। आस्ट्रिया को यह भी मालूम था कि 1908 की भाँति इस बार भी रूस सर्बिया की सहायता के लिये तैयार रहेगा, अतः आस्ट्रिया ने रूस के विरुद्ध जर्मन सहयोग का ठोस आश्वासन प्राप्त करने का प्रयत्न किया। 5 जुलाई, 1914 ई. को कैसर विलियम द्वितीय ने आस्ट्रिया को आने वाली हर परिस्थिति में पूर्ण सैनिक समर्थक देने का आश्वासन दे दिया।

जर्मनी द्वारा अपने प्रत्येक कार्य का समर्थन प्राप्त हो जाने पर आस्ट्रिया ने आगे की घटनाओं को युद्ध की स्थिति तक धकेलने का निश्चय कर दिया। 23 जुलाई, को आस्ट्रिया ने सर्बिया को अल्टीमेटम पत्र भेजा। इस पत्र की भाषा तथा शैली इतनी कङवी और शर्तें इतनी कठोर थी कि कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र जिसे अपनी स्वतंत्रता तथा आत्माभिमान से प्यार हो, कदापि स्वीकार नहीं कर सकता था। आस्ट्रिया ने सर्बिया को सोराजोवो हत्याकाण्ड के लिये उत्तरदायी ठहराया। पत्र में कई शर्तें भी थी। सर्बिया को आस्ट्रिया के विरुद्ध किए जाने वाले प्रचार को तत्काल समाप्त करने को कहा गया। हत्या की जाँच आस्ट्रियन अधिकारियों द्वारा करवाने और दोषी अधिकारियों को आस्ट्रिया के सुपुर्द करनी की माँग की गयी। इस पत्र का उत्तर 48 घंटों में माँगा गया। सर्बिया ने अधिकांश शर्तों पर अपनी स्वीकृति दे दी, परंतु दो शर्तें जिनके मानने से उसकी सत्ता और सम्मान को ठेस पहुँचती, को मानने से इन्कार कर दिया। इन शर्तों के संबंध में सर्बिया ने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का निर्णय स्वीकार करना मंजूर कर लिया, परंतु आस्ट्रिया इसके लिये तैयार नहीं था।

आस्ट्रिया को जर्मनी का समर्थन प्राप्त था तो सर्बिया को रूस का, परंतु न तो जर्मनी और न ही रूस इस समय युद्ध छेङने के पक्ष में थे। अतः जर्मनी और रूस दोनों ने सर्बिया के उत्तर को संतोषजनक मान लिया, परंतु आस्ट्रिया अपनी बात पर अङ गया। उसे केवल कूटनीतिक विजय से ही संतोष न था, अतः उसने अपनी सेनाओं को सर्बिया की सीमा की तरफ लामबंदी की आज्ञा दे दी। इस पर रूस के जार ने आस्ट्रिया को चेतावनी दी कि अगर सर्बिया पर आक्रमण किया गया तो रूस आस्ट्रिया के विरुद्ध प्रयाण करेगा। इंग्लैण्ड के मंत्री एडवर्ड ग्रे ने स्थिति की नाजुकता को देखते हुये तथा युद्ध को रोकने की दृष्टि से अक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की माँग की, परंतु जर्मनी ने इस माँग को ठुकरा दिया। कैसर विलियम ने स्पष्ट कह दिया कि आस्ट्रो-सर्ब समस्या को समाप्त कर दे और जर्मनी आस्ट्रिया की कार्यवाही पर निगरानी रखे और रूस अथवा किसी अन्य शक्ति के बीच में आने पर उसे रोकने का प्रयास करे। विलियम की घोषणा से रूस का जार उत्तेजित हो उठा और उसने रूसी सेनाओं को लामबंदी के आदेश दे दिए। अब जर्मनी भयभीत हो गया, क्योंकि उसे विश्वास हो गया कि रूसी हस्तक्षेप से आस्ट्रो-सर्ब संघर्ष स्थानीय न रहकर यूरोपीय बन जाएगा। अतः उसने आस्ट्रिया को रूस से समझौता करने तथा इंग्लैण्ड के प्रस्ताव को मान लेने की राय दी, परंतु आस्ट्रिया युद्ध करने पर तुला हुआ था। 28 जुलाई, 1914 ई. को आस्ट्रिआ ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

आस्ट्रिया की युद्ध घोषणा ने जार को भी उत्तेजित कर दिया। उसने सेनाओं की प्रयाण आज्ञा पर हस्ताक्षर कर दिए। इसका अर्थ था आस्ट्रिया से युद्ध। इसलिये विवश होकर जर्मनी को युद्ध की तैयारी करनी पङी। 31 जुलाई, को कैसर विलियम ने रूस को प्रयाण आदेश वापस लेने के लिये चेतावनी पत्र भेजा। इसके साथ ही उसने फ्रांस से पूछा कि जर्मनी और रूस के मध्य युद्ध छिङने पर फ्रांस का क्या रुख रहेगा ? रूस ने जर्मनी की चेतावनी का कोई जवाब नहीं दिया। तब 1अगस्त को जर्मनी ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। फ्रांस ने जर्मनी को उत्तर भिजावाया कि जर्मनी और रूस के मध्य युद्ध शुरू होने पर वह अपने हितों के अनुकूल कदम उठाएगा। जर्मनी को फ्रांस का यह उत्तर संतोषप्रद नहीं लगा और उसने 3 अगस्त को फ्रांस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार, आस्ट्रो-सर्ब संघर्ष यूरोपीय संघर्ष में परिवर्तित हो गया।

युद्ध में सम्मिलित शक्तियों को अब इंग्लैण्ड के अगले कदम की प्रतीक्षा की। एडवर्ड ग्रे अपने मित्रों (फ्रांस तथा रूस) का पक्ष लेकर तत्काल जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना चाहता था, परंतु इंग्लैण्ड की संसद जल्दबाजी में कोई कदम उठाना नहीं चाहती थी परंतु जर्मनी के अगले कदम ने संसद को एडवर्ड ग्रे की राय मानने के लिये मजबूर कर दिया। हुआ यह का फ्रांस पर आक्रमण करने के लिये जर्मनी को बेल्जियम होकर अपनी सेनाएँ भेजनी थी। जर्मनी ने बेल्जियम से जर्मन फौजों के आने-जाने के लिये रास्ता माँगा। बेल्जियम ने जर्मनी की माँग को ठुकरा दिया। इस पर जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया। 1839 ई. की संधि के द्वारा इंग्लैण्ड ने बेल्जियम की स्वतंत्रता तथा तटस्थता की गारंटी दे रखी थी, अतः बेल्जियम पर जर्मनी के आक्रमण ने इंग्लैण्ड को उत्तेजित कर दिया और कुछ कूटनीतिक चेतावनियों के बाद 4 अगस्त, की मध्य रात्रि को इंग्लैण्ड ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

कुछ दिनों बाद इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस ने एक नई संधि की। इस संधि के द्वारा यह निर्णय किया गया कि उनमें से कोई भी जर्मनी तथा जर्मनी के साथियों के साथ कोई पृथक संधि नहीं करेगा। इसके बाद इटली को प्रलोभन देकर अपने पक्ष में मिलाने का प्रयत्न किया गया और मित्र राष्ट्रों को इसमें सफलता मिली। इटली ने त्रिगुट से संबंध विच्छेद करके जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, परंतु तुर्की, मोण्टीनीग्रो और बल्गेरिया ने जर्मनी का साथ दिया। यूरोप का यह युद्ध एशिया में भी फैल गया। 23 अगस्त, 1914 को जापान ने इंग्लैण्ड के साथ मित्रता निभाते हुये जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध के अंतिम दिनों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी जर्मनी के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों(मित्र राष्ट्रों में इंगलैंड, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस तथा फ्रांस थे.) के साथ शामिल हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

  •  प्रथम विश्वयुद्ध 4 वर्ष तक चला।
  •  37 देशों ने प्रथम विश्‍वयुद्ध में भाग लिया।
  •  प्रथम विश्वयुद्ध का तात्का‍लिक कारण ऑस्ट्रिया के राजकुमार फर्डिंनेंड की हत्या था।
  • ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में हुई।
  • प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान दुनिया मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र दो खेमों में बंट गई।
  • धुरी राष्ट्रों का नेतृत्व जर्मनी के अलावा ऑस्ट्रिया, हंगरी और इटली जैसे देशों ने भी किया।
  • मित्र राष्ट्रों में इंगलैंड, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस तथा फ्रांस थे।
  • गुप्त संधियों की प्रणाली का जनक बिस्मार्क था
  •  ऑस्ट्रिया, जर्मनी और इटली के बीच त्रिगुट का निर्माण 1882 ई. में हुआ।
  • सर्बिया की गुप्त क्रांतिकारी संस्था काला हाथ थी।
  • रूस-जापान युद्ध का अंत अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्टा से हुआ।
  •  मोरक्को संकट 1906 ई. में सामने आया।
  •  प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी ने रूस पर 1 अगस्त 1914 ई. में आक्रमण किया।
  • जर्मनी ने फ्रांस पर हमला 3 अगस्त 1914 ई. में किया।
  •  इंग्‍लैंड प्रथम विश्व युद्ध में 8 अगस्त 1914 ई. को शामिल हुआ।
  • प्रथम विश्वयुद्ध के समय अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन थे।
  • जर्मनी के यू बोट द्वारा इंगलैंड लूसीतानिया नामक जहाज को डुबोने के बाद अमेरिका प्रथम विश्ववयुद्ध में शामिल हुआ, क्योंकि लूसीतानिया जहाज पर मरने वाले 1153 लोगों में 128 व्यक्ति अमेरिकी थे।
  • इटली मित्र राष्ट्र की तरफ से प्रथम विश्वयुद्ध में 26 अप्रैल 1915 ई. में शामिल हुआ।
  • प्रथम विश्वयुद्ध 11 नवंबर 1918 ई. में खत्म हुआ।
  • पेरिस शांति सम्मेलन 18 जून 1919 ई. में हुआ।
  • पेरिस शांति सम्मेलन में 27 देशों ने भाग लिया।
  • वर्साय की संधि जर्मनी और मित्र राष्ट्रों के बीच (28 जून 1919 ई.) हुई।
  • युद्ध के हर्जाने के रूप में जर्मनी से 6 अरब 50 करोड़ की राशि की मांग की गई थी।
  • अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रथम विश्वयुद्ध का सबसे बड़ा योगदान राष्ट्रसंघ की स्थापना था।
1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : प्रथम महायुद्ध के कारण

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