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प्रमुख धर्म सुधारक कौन-कौन थे

प्रमुख धर्म सुधारक

प्रमुख धर्म सुधारक (major religious reformer)

जॉन वाईक्लिफ (1320-1384 ई.)

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत जॉन वाईक्लिफ ने ईसाई धर्म में प्रचलित आडंबरों और पोप के भ्रष्ट तंत्र की कटु आलोचना की। उसने कहा कि पोप ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है। पादरी भ्रष्ट एवं बुद्धिविहीन हैं, अतः उनके द्वारा दिये जाने वाले उपदेश विवेक रहित और निरर्थक है। प्रत्येक जनसामान्य व्यक्ति को स्वयं बाइबिल का अध्ययन करना चाहिए और तद्नुसार आचरण करना चाहिये।

उसने जन-भाषाओं में ईसाई धर्म ग्रन्थ बाइबिल का अनुवाद किए जाने की वकालत की। चर्च की अथाह धन संपत्ति पर राज्य द्वारा अधिकार किए जाने की पुरजोर मांग की। जॉन वाईक्लिफ के प्रगतिवादी एवं आवेश पूर्ण विचारों को परंपरावादी सहन नहीं कर पाये। उसे पदच्युत कर दिया गया।

1384 ई. में उसकी मृत्यु हुई। पादरियों ने उसके शव को कब्रिस्तान से निकालकर गंदे स्थान पर फिंकवा दिया। उसे पाखंडी घोषित किया गया। उसके शिष्यों जिनको लोलार्ड कहा जाता है, ने उसके विचारों का प्रचार किया, कइयों को जिन्दा जलवा दिया गया। वाईक्लिफ को द मार्निंग स्टार ऑफ रिफोर्मेशन कहा गया। उसके अनुयायी लोलार्डस कहलाये।

जॉन हस (1369-1415 ई.)

यह प्राग विश्व विद्यालय में प्रोफेसर, बोहेमिया का निवासी जॉन वाईक्लिफ से प्रभावित था। उसकी मान्यता थी कि सच्चे ईसाई को बाइबिल से ही अपनी सद्भावना का मार्ग ढूढना चाहिये। मनुष्य के जीवन में चर्च का हस्तक्षेप अनुचित है। उसने पोप के आदेश न मानने के आदेश का आह्वान किया। उसे चर्च एवं धर्म की निन्दा करने वाला और नास्तिक घोषित कर जिन्दा जलवा दिया गया। बोहेमिया के जन सामान्य में इस घटना की भारी प्रतिक्रिया हुई।

सेवानरोला (1452-1488 ई.)

यह इटली के फ्लोरेन्स नगर का निवासी एवं सात्विक जीवन जीने वाला विद्वान पादरी था। उसने धर्माधिकारी के सरल, सादे और धर्मनिष्ठ जीवन पर जोर दिया। वैभव एवं सांसारिक भोग विलास से परिपूर्ण पोप के जीवन चरित्र की उसने कङी आलोचना की। पोप अलेक्जेण्डर षष्ठम ने उसे चर्च एवं पादरियों के जीवन की निन्दा करने से रोकने का आदेश दिया। पोप के आदेश की अवहेलना करने पर उसे ईसाई धर्म परिषद के समक्ष बुलाकर प्राणदंड दिया और जीवित अग्नि में समर्पित कर दिया गया।

इरेस्मस (1466-1536ई.)

यह हालैण्ड का निवासी था। यह प्रसिद्ध मानववादी लेखक था। इसकी लेखन शैली की प्रभावोत्पादकता के कारण इसने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त की। इन प्रेज ऑफ फोली नामक अपनी पुस्तक में इरेस्मस ने पादरियों की जीवन शैली का उपहास उङाया। चर्च में व्याप्त अनेक बुराइयों पर उसने व्यंग्य किए। धर्म पर एकाधिकार रखने वाले पादरियों की धर्म के प्रति अज्ञानता को उसने प्रकट किया।

1516 ई. में इसने न्यू टेस्टामेंट का नवीन संस्करण प्रकाशित कराया, जिसमें ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों की सात्विक व्याख्या की। वह बहुत संजीदा एवं विवेकशील विद्वान था।

मार्टिन लूथर (1483-1546ई.)

जर्मनी के सामान्य कृषक परिवार में 10 नवंबर 1483ई. में कानून से अधिक धर्मशास्त्र के अध्ययन में रुचि दिखाई। धर्मशास्त्र के अध्ययन से प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के प्रति उसका मन और मस्तिष्क अनेक शंकाओं से घिर गया। वह विटनबर्ग में धर्मशास्त्रों का प्रोफेसर नियुक्त हुआ। उसने यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि अंतिम दिन केवल उन्हीं आत्माओं को शांति मिलेगी जो पूर्णतः पवित्र जीवन जीते हैं।

अपनी धार्मिक शंकाओं के निर्वारणार्थ 1511 ई. में वह रोम गया। रोम में पोप के असात्विक और अनैतिक जीवनयापन और ऐश्वर्य पूर्ण रहन-सहन को देखकर वह अत्यंत क्षुब्ध एवं निराश हुआ। 1517 ई. में टेटजेल नामक पादरी द्वारा पाप मोचन पत्रों की बिक्री से धन एकत्र करने की घटना से वह अत्यंत व्यथित हुआ और तभी से रोमन कैथोनिक चर्च व धर्म गुरू पोप का विरोधी हो गया। उसने विटनबर्ग के कैसल चर्च के बाहर 95 मान्यताओं का एक विरोध पत्र लगाकर पाप मोचन पत्रों के विक्रय के पोप के कृत्य को चुनौती दी।

1519 ई. में लिपजिग में एक खुले वादविवाद में उसने ईश्वर और मनुष्य के बीच पोप को निरर्थक सिद्ध किया। उसने अनेक परचे लिखकर लोगों में वितरित किए, जिनमें मूल ईसाई धर्म और पोप द्वारा प्रचलित पाखंड को स्पष्ट किया। दी फीडम ऑफ क्रिश्चियन मैन, दी केप्टिविटी ऑफ दी चर्च, एन एड्रेस टू दी नोबेलिटी ऑफ जर्मनी नेशन आदि लेकों में चर्च में व्याप्त दोषों पर कटु प्रहार किया।

पोप ने 1520 ई. में मार्टिन लूथर को आदेश दिया कि वह दो माह के भीतर अपने द्वारा प्रकाशित विचारों का पूर्णतः खंडन करे अन्यथा उसे धर्मद्रोही के दंड के से दंडित किया जायेगा। पोप के इस आदेश को लूथर ने एक सार्वजनिक सभा में अग्नि को समर्पित कर दिया। पोप द्वारा उसे धर्मद्रोही घोषित कर, उसकी हत्या हेतु ईसाई जनता को प्रोत्साहित किया गया। अनेक पोप विरोधी राजाओं ने उसकी सहायता कर संरक्षण प्रदान किया।

मार्टिन लूथर की विचारधारा अत्यंत लोकप्रिय हुई। 1521 ई. की वर्म्स की सभा में पुनः लूथर को चर्च विरोधी प्रचार निरस्त करने को कहा गया। लूथर ने स्पष्ट घोषित किया कि वह तभी ऐसा कर सकता है, यदि तर्क द्वारा उसके एक भी विचार को धर्म विरुद्ध सिद्ध कर दिया जाय। लूथर ने जर्मन भाषा में बाइबिल का अनुवाद भी किया। उसने कहा कि पाप केवल पश्चाताप से ही नष्ट हो सकता है जो कि मन का विषय है, चर्च के आडंबरों से उसका कोई लेना देना नहीं है।

मार्टिन लूथर का मत प्रचलित रोमन कैथोलिक चर्च के विरुद्ध प्रोटेस्ट (विरोध) करने के कारण प्रोटेस्टेन्ट मत कहलाया।

प्रोटेस्टेन्टवाद के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार थे-

  • ईसाई धर्म का प्रामाणिक ग्रंथ बाइबिल ही है। पोप एवं चर्च की मध्यस्थता अनुचित है।
  • प्रभु यीशू के प्रति सच्ची श्रद्धा से ही सद्गति संभव है।
  • प्रचलित सात में से मात्र तीन संस्कार मान्य हैं – नामकरण, प्रायश्चित, प्रसाद (शराब एवं रोटी)
  • चर्च व पादरियों की चमत्कारिक शक्ति मात्र अज्ञान व अंधविश्वास है।
  • विधि के समक्ष सभी व्यक्ति समान है। पोप के विशेषाधिकार अनुचित हैं।
  • प्रत्येक ईसाई धर्मावलंबी को बाइबिल के अध्ययन एवं धर्मग्रंथों की व्याख्या करने का अधिकार है।
  • पादरियों को विवाह की अनुमति दे कर चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।
  • रोम के पोप का धर्म पर सार्वभौम एकाधिकार निरर्थक है। राष्ट्रीय चर्च स्थापित किए जाने चाहिये।

19 अप्रैल, 1529 ई. को स्पीयर की धर्म सभा में मार्टिन लूथर के अनुयायियों को प्रोटेस्टेन्ट घोषित किया गया। 1530 ई. में आक्सबर्ग स्वीकृति द्वारा प्रोटेस्टेन्ट वाद को सैद्धांतिक स्वीकृति मिली। 1555 ई. तक इसे स्वीकार न कर संघर्ष के बाद पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने पदत्याग दिया।

उसके उत्तराधिकारी सम्राट फर्डिनेन्ड ने प्रोटेस्टेन्टों के साथ ऑक्सबर्ग समझौता कर लिया –

  • जिससे प्रत्येक शासक को अपना व अपने राज्य की जनता का धर्म चुनने की स्वतंत्रता दी गयी।
  • चर्च की प्रोटेस्टेन्टों द्वारा छीनी गयी संपत्ति को मान्यता दे दी गयी।
  • कैथोलिक के प्रोटेस्टेन्ट स्वीकार करने पर अपना धारित पद त्यागना होगा।
  • प्रोटेस्टेन्टों को कैथोलिक बाहुल्य बाले क्षेत्रों में अपना धर्ममत त्यागने को बाध्य नहीं किया जायेगा।
  • लूथर के अलावा अन्य किसी धर्म मत को मान्यता नहीं दी गयी।

ज्विंगली (1484-1531 ई.)

स्विट्जरलैण्ड के टोगेनबर्ग प्रांत में 1484 ई. में जन्मे ज्विंगली 1521 ई. में पादरी बने। वे यथार्थवादी एवं मानववादी चिन्तक थे। प्राचीन साहित्य के प्रति उनकी गहन रुचि थी। 1523 ई. में ज्यूरिख की धर्म सभा में उसने 67 मान्यतायें वाद-विवाद के दौरान रखी जिनमें उसने बाइबिल को ईसाई धर्म की सर्वोच्च सत्ता स्वीकार किया और कैथोलिक ईसाइयत में व्याप्त रूढियों का व्यापक विरोध किया।

1525 ई. में उसने सुधारवादी चर्च की स्थापना की। पवित्र भोजन (यूखारिस्ट) के प्रश्न पर वह मार्टिन लूथर से भिन्न विचार रखता था। वह सच्चे विश्वास द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति होने में विश्वास रखता था। उसने शक्ति का प्रयोग कर कैथोलिकों को सुधारवादी चर्च में सम्मिलित करने का प्रयास किया, जिससे स्विट्जरलैण्ड में 1531 ई. में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिसमें वह मारा गया। बाद में कापेल की संधि हुई जिसके द्वारा वहां पर कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट दोनों मतों को मान्यता मिली।

काल्विन (1500-1564 ई.)

फ्रांस में जन्मे काल्विन ने कैथोलिक चर्च से संबंध विच्छेद कर स्वतंत्र रूप से अपने धार्मिक विचारों का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया। उसकी अकाट्य तर्क शक्ति के प्रभाव से उसके अनुयायियों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गयी। फ्रांस के राजा फ्रांसिस के विरोध के कारण वह देश छोङ कर स्विट्जरलैण्ड चला गया।

ज्विंगली के संपर्क में रहा। उसमें विलक्षण संगठन शक्ति थी। उसने इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिश्चियन रिलीजन नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उसने ईसाई धर्म के मौलिक सिद्धांतों का विद्वतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया। वह पूर्ण सादगी और नैतिकता युक्त जीवन यापन करता था। उसे प्रोटेस्टेंट पोप कहा जाने लगा था। उसने प्रभु यीशु एवं बाइबिल को ही मोक्ष प्राप्ति का माध्यम बताया।

ईश्वर की प्राप्ति हेतु नैतिकता और सादगी पूर्ण जीवन आवश्यक बताया। जर्मनी, नीदरलैण्ड और स्वीट्जरलैण्ड का सर्वाधिक प्रसार हुआ।लगभग समस्त यूरोप में काल्विनवादी कठोर अनुशासन का विचार शनैः शनैः लोकप्रिय होता रहा।

इंग्लैण्ड में एंग्लीकनवाद

ट्यूडर राजवंश के सम्राट हेनरी अष्टम ने इंग्लैण्ड में एंग्लीकन राष्ट्रीय चर्च की स्थापना की। अपनी पत्नी कैथरीन से तलाक और एनबोलिन से विवाह करने की उसकी इच्छा पर रोमन कैथोलिक पोप ने हस्तक्षेप कर रोक लगा दी। हेनरी ने खुले आम पोप की आज्ञा का उल्लंघन किया और उसकी सत्ता को मानने से इन्कार कर दिया। इंग्लैण्ड में सम्राट को राष्ट्रीय चर्च स्थापित कर उसका सर्वोच्च अधिकारी घोषित कर दिया। इस चर्च को एंग्लीकरण चर्च नाम दिया गया। पोप को वार्षिक धन भेजना बंद कर दिया।

बुक ऑफ कॉमन प्रेयर में 42 सिद्धांत घोषित किए गए। यह इंग्लैण्ड का धर्म सुधार आंदोलन था जो एंग्लीकनवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इंग्लैण्ड की जनता में रोमन कैथोलिक चर्च के प्रति भारी असंतोष था अतः इस राष्ट्रीय चर्च को स्वीकार कर लिया गया।

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