इतिहासपूर्वी समस्या और बर्लिन कांग्रेसविश्व का इतिहास

बर्लिन कांग्रेस सम्मेलन

बर्लिन कांग्रेस (13 जून – 13 जुलाई 1878) बर्लिन में सम्पन्न एक सम्मेलन था, जिसमें उस समय की महाशक्तियाँ (रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रिया-हंगरी, इटली तथा जर्मनी), चार बाल्कन राज्य (ग्रीस, सर्बिया, रोमानिया, मान्टीनिग्रो) और उस्मानी साम्राज्य ने भाग लिया था।

इसका उद्देश्य 1877-78 के रूस-तुर्की युद्ध के बाद बाल्कन प्रायद्वीप के राज्यों की सीमायें तय करना था। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप बर्लिन की संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसने रूस और उस्मानी साम्राज्य में मात्र तीन माह पूर्व सम्पन्न सेन स्टीफेनो की संधि का स्थान ग्रहण किया।

बर्लिन कांग्रेस

इस समय यूरोपीय रंगमंच पर संयुक्त जर्मनी का आविर्भाव हो चुका था। यूरोपीय राजनीति में जर्मनी की महता प्रदर्शित करने के लिये बिस्मार्क ने प्रस्ताव रखा कि प्रस्तावित अंतरर्राष्ट्रीय सम्मेलन बर्लिन में हो। उन्होंने आपत्ति नहीं की। इस प्रकार, बर्लिन में सम्मेलन का कार्य आरंभ हुआ।

30 जून, 1878 को बर्लिन में सम्मेलन आरंभ हुआ। सम्मेलन में इंग्लैण्ड, आस्ट्रिया, रूस, तुर्की,इटली, फ्रांस आदि देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन में बिस्मार्क को सम्मेलन का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। बिस्मार्क ने ईमानदार – दलाल के रूप में कार्य करने का आश्वासन दिया। सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरैली तथा बिस्मार्क ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

बिस्मार्क का उदय

बल्गेरिया के विभाजन के प्रश्न पर रूस और ब्रिटेन के बीच मतभेदों के कारण सम्मेलन में गतिरोध उत्पन्न हो गया, किन्तु बिस्मार्क ने बङी ही चतुराई से दोनों पक्षों का समाधान कर दिया। अन्य कुछ मामलों में कठिनाई उत्पन्न हुई, किन्तु उन्हें भी हल कर दिया गया।

कुछ समय के बाद रूमानिया और यूनान के प्रतिनिधियों को भी सम्मेलन में भाग लेने का अवसर प्रदान कर दिया गया। सेन स्टीफेनो की संधि की शर्तों पर विचार करने के बाद जो निर्णय लिए गए, उन्हें बर्लिन की संधि के रूप में स्वीकार किया गया। चूँकि मुख्य प्रश्नों पर शूवालॉव तथा सेलिसबरी के बीच 30 मई, 1878 को समझौता हो चुका था, अतः विवाद में अधिक समय नहीं लगा।

बर्लिन की संधि पर 13 जुलाई, 1878 को हस्ताक्षर ही गए। बर्लिन की संधि के अनुसार पूर्वी समस्या के संबंध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गयी –
बर्लिन कांग्रेस
  • वृहद बल्गेरिया को तीन भागों में विभाजित कर दिया गया। प्रथम बल्गेरिया का राज्य था, जिसे तुर्की की अधीनता के अन्तर्गत स्वतंत्र राज्य मान लिया गया। इस प्रकार बर्लिन की संधि द्वारा बल्गेरिया का क्षेत्रफल सेन स्टीफेनो की संधि द्वारा निर्धारित क्षेत्र लगभग एक तिहाई रह गया।
  • हद बल्गेरिया का दक्षिणी भाग अर्थात् पूर्वी रूमेलिया, सेन स्टीफेनो की संधि के अनुसार बल्गेरिया के अन्तर्गत था, किन्तु बर्लिन की संधि द्वारा पूर्वी रुमेलिया को बल्गेरिया से अलग कर पुनः तुर्की के अधीन कर दिया गया। किन्तु उसके लिये तुर्की को यूरोपीय राज्यों द्वारा स्वीकृत ईसाई गवर्नर नियुक्त करने का वचन देना पङा।
  • यद्यपि बोस्निया व हर्जीगोविना पर तुर्की का प्रभुत्व रहा, किन्तु उनका प्रशासकीय नियंत्रण अनिश्चितकाल के लिये आस्ट्रिया को सौेंप दिया गया। आस्ट्रिया को सर्बिया तथा माण्टीनीग्रो के बीच स्थित नोवी बाजार के संजक में अपनी सेना रखने का अधिकार प्राप्त हो गया।
  • सर्बिया और माण्टीनीग्रो को पूर्णतया स्वाधीन राज्यों के रूप में स्वीकृत कर लिया गया।
  • रूमानिया की भी स्वतंत्रता स्वीकार कर ली गयी, किन्तु उसे बेसरेबिया का प्रदेश रूस को देना पङा, उसके बदले में उसे दोब्रुजा का क्षेत्र, जो सेन स्टीफेनो की संधि द्वारा रूस को दिया गया था, प्राप्त हुआ।
  • अर्दहान, बार्टुम तथा कार्स पर रूस का अधिकार मान लिया गया, किन्तु उसे बायाजिद तुर्की को वापस देना पङा। रूमानिया को दोब्रुजा देने के बदले रूस को बेसरेबिया प्राप्त हुआ।
  • इंग्लैण्ड को साइप्रस पर अधिकार करने तथा उसका प्रशासन चलाने का अधिकार दे दिया गया। साइप्रस प्राप्त हो जाने से इंग्लैण्ड, रूस की गतिविधियों एवं स्वेज पर निगरानी रख सकता था।
  • तुर्की को अल्बानिया तथा मेसीडोनिया के क्षेत्र पुनः प्राप्त हो गये। कुल मिलाकर 30 हजार वर्ग मील का क्षेत्र तुर्की को वापस मिल गया, किन्तु तुर्की सुल्तान को अपनी ईसाई प्रजा की दशा सुधारने का वचन देना पङा।
  • बर्लिन कांग्रेस में फ्रांस ने ट्यूनिस, इटली ने अल्बानिया व ट्रीपोली तथा यूनान ने क्रीट, एपीरस, थेसेली एवं मेसीडोनिया पर दावा किया, किन्तु काँग्रेस ने उनकी मांगों को अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि जर्मनी ने किसी प्रदेश पर दावा नहीं किया। इसके बदले उसे तुर्की की कृतज्ञातापूर्ण मैत्री का लाभ हुआ।

बर्लिन कांग्रेस सम्मेलन के निर्णयों का परिणाम

विश्व राजनीति के आधुनिक इतिहास में बर्लिन संधि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पूर्वी समस्या जैसी जटिल गुत्थी को सुलाझाने की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था, किन्तु अनेक कारणों से बर्लिन कांग्रेस अपने उद्देश्यों में सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। इतिहासकार ए.जे.पी.टेलर के मतानुसार बर्लिन कांग्रेस निर्णायकों के दावे, कि बर्लिन की संधि द्वारा पूर्वी समस्या का संतोषजनक समाधान किया गया तथा यूरोपीय राज्यों के बीच होने वाले अवश्यम्भावी युद्ध को रोका गया,तथ्यहीन थे।

टेलर महोदय लिखते हैं कि संभावना तो कांग्रेस के पहले ही उस समय समाप्त हो गयी थी, जबकि रूसी सेनाएँ कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार करने से हिचकिचा रही थी। वस्तुतः व्यावहारिक दृष्टि से बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों का बहुत ही कम प्रभाव पङा। बर्लिन कांग्रेस का मूल उद्देश्य बाल्कन के क्षेत्र में रूस के बढते हुए प्रभाव को रोकना, पूर्वी समस्या का संतोषजनक समाधान करना, तुर्की साम्राज्य को एक स्वतंत्र एवं शक्तिशाली सत्ता के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना तथा बाल्कन क्षेत्र में रूस, आस्ट्रिया और ब्रिटेन के हितों में संतुलन स्थापित करना था।

बर्लिन काँग्रेस के निर्णयों से बाल्कन क्षेत्र में रूस के प्रभाव को समाप्त कर दिया गया तथा तुर्की साम्राज्य को, जो सेन स्टीफेनो की संधि द्वारा मृतप्रायः हो चुका था, नवजीवन प्रदान किया गया। बर्लिन काँग्रेस से लौटकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री बीकन्सफील्ड ने बङे गर्व से कहा था कि, मैं सम्मान सहित शांति लाया हूँ। यद्यपि बर्लिन काँग्रेस में इंग्लैण्ड को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी तथा रूस की कूटनीतिक पराजय हुई थी, किन्तु इंग्लैण्ड, मध्य एशिया व अफगानिस्तान में रूस की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगा सका।

कुछ आलोचकों ने इंग्लैण्ड पर यह आरोप लगाया है, कि उसने बाल्कन क्षेत्र के ईसाइयों को, जिन्हें रूस ने सेन स्टीफेनो की संधि द्वारा मुक्त किया था, पुनः तुर्की साम्राज्य की दासता में धकेल दिया। ब्रिटेन ने रूस की प्रगति को रोक दिया, किन्तु आस्ट्रिया को बोस्निया व हर्जीगोविना के क्षेत्र, जिन पर सर्बिया अपना अधिकार समझता था, पर अधिकार प्रदान कर दिया, जिससे एक नवीन समस्या उत्पन्न हो गई।

स्लाव समस्या के कारण इस क्षेत्र में अशांति उत्पन्न हो गयी जो आस्ट्रिया पतन के बाद ही समाप्त हो सकी। बर्लिन कांग्रेस के निर्णायकों ने बाल्कन क्षेत्र में अनेक स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करके तथा स्वयं उसके कुछ भू भागों पर अधिकार करके तुर्की साम्राज्य के विघटन पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।

बर्लिन कांग्रेस में रूस को महान अपमानजनक कूटनीतिज्ञ पराजय का मुँह देखना पङा। उसने अपार जन, धन और सेना का बलिदान करके सेन स्टीफेनो की संधि द्वारा जो लाभ प्राप्त किए थे, वे सभी उससे छीन लिए गए। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो रूप ने आस्ट्रिया व ब्रिटेन के हितों के लिये युद्ध किया था। बर्लिन ने रूस की प्रतिष्ठा को ध्वस्त कर दिया, जिससे सर्वस्लाववादी विचारधारा को भी ठेस पहुँची।

एक तरफ यदि रूस की पराजय हुई तो दूसरी ओर आस्ट्रिया को भी पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। एण्ड्रासी तुर्की की अखंडता को सुरक्षित रखना चाहता था, किन्तु तुर्की के पतन को रोकना संभव नहीं था। आस्ट्रिया को बोस्निया व हर्जीगोविना पर अधिकार प्रदान किया गया, किन्तु उससे उसको पूर्वी समस्या में अधिकाधिक उलझना पङा और उसी के कारण सर्बिया से उसका तनाव बढा।

बाल्कन राज्यों की समस्या का समाधान भी बर्लिन संधि द्वारा नहीं हो सका। बाल्कन का प्रत्येक राज्य इस संधि से असंतुष्ट था। डेविड थाम्पसन ने लिखा है, कि बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों का विशेष परिणाम यह निकला कि प्रत्येक राज्य पहले की अपेक्षा अधिक असंतुष्ट और चिन्तित हो गया। वृहद बल्गेरिया का विभाजन सर्वथा अस्वाभाविक था, क्योंकि बल्गेरिया व पूर्वी रूमेलिया के लोग एक ही जाति और एक ही भाषा बोलने वाले थे।

अतः उनके विभाजन से बल्गर जाति की एकता एवं राष्ट्रीयता की भावना को ठेस पहुँची। वे इस विभाजन को अधिक समय तक स्वीकार नहीं कर सकते थे, अतः 1885 में बर्लिन संधि के विरुद्ध दोनों राज्यों का एकीकरण हुआ, जिससे यूरोप में गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी।

मेसीडोनिया को पुनः तुर्की के आधिपत्य में देना भी बङी भारी भूल थी। मेसीडोनिया की ईसाई जनता तुर्की के अत्याचारों के कारण कभी सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर सकी और कुछ ही समय बाद उन्होंने तुर्की के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अंत में उसी कारण 1912 का बाल्कन युद्ध हुआ।

रूमानिया से बेसरेबिया का उपजाऊ क्षेत्र लेकर दोब्रुजा का अनुपजाऊ क्षेत्र लेकर दोब्रूजा का अनुपजाऊ क्षेत्र देकर उसके साथ भी न्यायोचित व्यवहार नहीं किया। रूमानिया के नेता रूस की कृतघ्नता को कभी नहीं भुला सके तथा यूरोप की शक्तियों से उसका विश्वास उठ गया।

बर्लिन संधि द्वारा दक्षिण स्लाव राज्यों को भी बङी निराशा हुई, क्योंकि इससे स्लाव एकता खंडित हो गयी, जिसके कारण बाल्कन क्षेत्र में नई समस्याएँ उत्पन्न हो गयी। यूनान की थेसेली, क्रीट और एपीरस को सम्मिलित करने की माँग को अस्वीकार कर देने से वहाँ की ईसाई जनता को भी बङी निराशा हुई। कुछ वर्षों बाद क्रीट में यूनान के साथ मिलने का आंदोलन आरंभ हो गया।

इस प्रकार बर्लिन कांग्रेस ने बाल्कन राज्यों की भावना की अवहेलना की, जिससे समस्या सुलझने की बजाय अधिक उलझ गई। वस्तुतः बर्लिन कांग्रेस में आस्ट्रिया, ब्रिटेन आदि राज्यों ने अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिये पूर्वी यूरोप का मनमाने ढंग से विभाजन किया, जिसका यूरोप के अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों पर गहरा प्रभाव पङा।

प्रोफेसर गूच ने लिखा है कि, उच्च राजनीति के क्षेत्र में बर्लिन कांग्रेस का विशेष परिणाम यह था, कि रूस, जर्मनी से विमुख हो गया। बर्लिन कांग्रेस में जर्मनी ने आस्ट्रिया का समर्थन किया, जिससे रूस व आस्ट्रिया के संबंध बिगङ गए। रूस और इंग्लैण्ड के संबंधों में भी तनाव आ गया।

बर्लिन कांग्रेस के बाद बिस्मार्क की नीति के कारण यूरोप में गुटबंदी आरंभ हो गई, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव बढ गया। बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों में ही भविष्य में होने वाले विश्व युद्ध के बीच विद्यमान था।

बर्लिन की संधि की आलोचना करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में यह संधि संपन्न हुई थी, उसमें कुछ दोषों का होना स्वाभाविक था। बर्लिन संधि के बारे में कहा जाता है, कि उसके महत्त्वपूर्ण निर्णयों को थोङे ही समय के बाद खंडित कर दिया गया।

बिस्मार्क स्वयं संधियों को अपरिवर्तनीय नहीं मानता था। उसका कहना था, कि प्रत्येक संधि परिस्थितियों के यथावत् बने रहने पर आधारित होती है, किन्तु परिस्थितियाँ कभी भी समान नहीं रहती, अतः समय-समय पर उनका समायोजन करना आवश्यक होता है।

बर्लिन की संधि अत्यन्त विस्फोटक स्थिति का सामना करने तथा बङी शक्तियों के बीच शांति बनाए रखने के लिये तैयार की गयी थी। इस उद्देश्य को उसने पूरा किया। लगभग एक पीढी तक बङे राज्यों के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ। कांग्रेस के निर्णायकों ने बाल्कन क्षेत्र की जनता के हितों की उपेक्षा की तथा बल्गेरिया की व्यवस्था भी दोषपूर्ण थी, किन्तु इन निर्णयों के लिये बर्लिन कांग्रेस में एकत्रित राजनीतिज्ञों से राष्ट्रीयता की भावना की कल्पना करने की आशा नहीं की जा सकती थी।

1857 से पहले यूरोपीय राज्य बाल्कन क्षेत्र के ईसाइयों को तुर्की शासन से मुक्त करने के विचार को रूस की कूटनीतिक चाल समझते थे। अतः बर्लिन कांग्रेस में एकत्रित राजनीतिज्ञों ने जो भूलें कीं, वे इसी दुर्भावना के कारण नहीं बल्कि उनकी अनभिज्ञता के कारण हुई थी।

इसलिये हमें स्वीकार करना पङेगा, कि जिन परिस्थितियों में बर्लिन संधि हुई थी, उन परिस्थितियों में एक दोष-रहित आदर्श संधि की कल्पना करना एक असंगत बात है। वस्तुतः बर्लिन कांग्रेस में एकत्रित राजनीतिज्ञों के समक्ष एक ही लक्ष्य था – यूरोप में उत्पन्न विस्फोटक स्थिति को शांत करना और इस लक्ष्य में उन्हें सफलता मिली थी, इस संबंध में किसी की दो राय नहीं हो सकती।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : पूर्वी समस्या के उद्भव का मुख्य कारण क्या था ?

उत्तर : टर्की साम्राज्य का पतन।

प्रश्न : पूर्वी समस्या में रूस की विशेष रुचि का मुख्य कारण क्या था ?

उत्तर : व्यापार के लिये समुद्री तट प्राप्त करना।

प्रश्न : किस बाल्कन राज्य की स्वतंत्रता से तुर्क साम्राज्य का विघटन शुरू हुआ ?

उत्तर : सर्बिया।

प्रश्न : बर्लिन सम्मेलन (1878ई.)में ईमानदार दलाल के रूप में कार्य करने का आश्वासन किस राजनीतिज्ञ ने दिया था ?

उत्तर : बिस्मार्क।

प्रश्न : क्या बर्लिन कांग्रेस पूर्वी समस्या को सुलझाने में सफल रही ?

उत्तर : आंशिक सफलता।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : बर्लिन कांग्रेस

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