इतिहासराजस्थान का इतिहास

ब्रिटिश आधिपत्य के परिणाम क्या थे

ब्रिटिश आधिपत्य के परिणाम – राजपूत राज्यों द्वारा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने के परिणामस्वरूप शासकों की न केवल स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो गयी बल्कि राज्य की आर्थिक स्थिति भी दिनोंदिन खराब होती गयी और सामान्य जन जीवन भी विषादपूर्ण बन गया। प्रत्येक राज्य में ब्रिटिश समर्थक दल का विकास हुआ, प्रशासन में भ्रष्टाचार बढा और शासकों के भोग-विलास में वृद्धि हुई। ब्रिटिश सरकार ने सामंतों की पद मर्यादा को भी क्षीण करने का प्रयास किया, लोगों पर विचार एवं संस्थाएँ थोपने का प्रयास किया तथा सामान्य जनता के परंपरागत रीति संबंधों को समाप्त करने का प्रयास किया, जिससे न केवल सामंतों में बल्कि सामान्य जनता में भी तीव्र आक्रोश उत्पन्न हो गया। ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से लोगों में यह विचार जोर पकङने लगा कि कहीं हिन्दुत्व ही समाप्त न हो जाय। सामान्य जनता में तीव्र आक्रोश के कारण ही राजस्थान में 1857 ई. के विप्लव की अग्नि प्रज्ज्वलित हुई थी। ब्रिटिश आधिपत्य के परिणामों का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

राज्यों की आर्थिक दुर्दशा

ब्रिटिश सरकार ने आरंभ से ही राजपूत राज्यों के प्रति आर्थिक शोषण की नीति अपनायी। कंपनी सरकार को नियमित खिराज देने से इन राज्यों की आर्थिक स्थिति, तो पहले ही खराब थी, अब पूरी तरह कमजोर हो गयी। राजपूत शासकों ने अपनी आर्थिक स्थिति को ठीक करने के उद्देश्य से अपने सामंतों से रेख व छटुन्द आदि के नाम पर अधिक से अधिक धन वसूल करने का प्रयास किया। फलस्वरूप सामंतों ने अपने शासकों के विरुद्ध विद्रोह कर खालसा क्षेत्रों में लूटमार आरंभ कर दी, जिससे राज्यों में अव्यवस्था व्याप्त हो गयी। ब्रिटिश सरकार को शासन की सुव्यवस्था से कोई मतलब था, मतलब था तो केवल अपने खिराज से। खिराज की भारी रकम के अलावा समय-समय पर राजपूत राज्यों पर अन्य खर्चे भी बलात थोप दिये जाते थे। उदाहरण के लिये, जयपुर राज्य से शांति और व्यवस्था के नाम पर राजमाता के समर्थक सामंतों को कुचलने के लिए शेखावाटी तथा तोरावाटी पर आक्रमण किया गया और इस सैनिक अभियान के खर्चे की वसूली के लिये साँभर झील तथा जिले को ब्रिटिश सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया। शेखावाटी में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर 1835 ई. में शेखावाटी ब्रिग्रेड की स्थापना की गयी, जिसका नियंत्रण ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों में था, किन्तु इसका खर्च जयपुर राज्य से वसूल किया जाने लगा। इन बढते हुए खर्चों के कारण जयपुर राज्य को बार-बार सेठ-साहूकारों से ऋण लेना पङा। जोधपुर में भी शांति एवं व्यवस्था के नाम पर छाँग तथा कोट किराना परगनों के 21 गाँव ब्रिटिश सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिये। मेरवाङा में मेर व मीणों के उपद्रव को दबाने के लिए मेरवाङा बटालियन कायम की गयी, जिसका सारा खर्च भी जोधपुर व उदयपुर राज्यों पर थोप दिया। इसी प्रकार 1825-30 ई. के मध्य मेवाङ के भीलों के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार ने सैनिक कार्यवाही की और उसका संपूर्ण खर्च महाराणा के नाम पर ऋण के रूप में लिया तथा इस ऋण पर छः प्रतिशत वार्षिक दर से व्याज लिया जाने लगा। 1841 ई. में भोमट क्षेत्र में सुप्रबंध का बहाना लेकर मेवाङ-भील कोर स्थापित की गयी जिसके संचालन का खर्च 50 हजार रुपये वार्षिक मेवाङ राज्य से वसूल किया जाने लगा। वार्षिक खिराज की वसूली दो किश्तों में की जाती थी। प्रत्येक किश्त की बकाया राशि पर 12 प्रतिशत वार्षिक दर से ब्याज जोङकर उसे मूलधन के साथ जोङ दिया जाता था। इस प्रकार कंपनी सरकार सेठ साहूकारों की भाँति चक्रवृद्धि ब्याज वसूल कर लेती थी।

भारी खिराज, बकाया खिराज पर चक्रवृद्धि ब्याज और अन्य खर्चों को थोपे जाने से राज्यों की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गयी कि कई राज्य तो अपने सैनिक और कर्मचारियों को कई महीनों तक वेतन भी नहीं चुका पाते थे। सैनिकों और सिपाहियों को बकाया वेतन के लिये बार-बार विद्रोह करने पर विवश होना पङता था। ऐसी स्थिति में राज्य के कर्मचारियों द्वारा भ्रष्ट तरीकों से धन अर्जित करना तो स्वाभाविक ही था। वे लोग व्यापारियों तथा जनसाधारण से घूस और बेगार लेने लगे। पुलिस कोतवाली तो सर्वाधिक बदनाम थी। आवागमन के मार्ग तक सुरक्षित नहीं थे और लोगों की यात्रा करते समय अपनी सुरक्षा के लिये राजकीय सैनिक अथवा निजी गारद (पहरेदार) साथ लेकर चलना पङता था। न्यायालयों में न्याय नाम की चीज ही नहीं रह गयी थी।

आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप

राजपूत राज्यों और कंपनी सरकार के मध्य हुई संधियों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख था कि राजपूत शासक अपने राज्य के सार्वभौम शासक बने रहेंगे अर्थात् कंपनी सरकार इन राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी। फिर भी इन संधियों में ऐसी धाराएँ सम्मिलित की गयी थी जो राजपूत राज्यों के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप को अवस्यम्भावी बनाने वाली थी। उदाहरणार्थ, बीकानेर राज्य के साथ संपन्न हुई संधि के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने महाराजा के विरोधी सामंतों तथा अन्य विरोधियों को कुचलने में सहयोग देने की बात कही गयी थी। अतः महाराजा के विरोधी सामंतों तथा अन्य विरोधियों को कुचलकर व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर कंपनी सरकार का हस्तक्षेप अवश्यम्भावी था। इसी प्रकार डूँगरपुर, बाँसवाङा और प्रतापगढ राज्यों के साथ संपन्न हुई संधियों में इन राज्यों के शासकों ने ब्रिटिश सरकार की सलाह से शासन संचालित करने का वचन दिया था। अतः शासन संचालन में ब्रटिश सरकार की सलाह, राज्य के आंतरिक मामलों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप था। जयपुर और उदयपुर राज्यों के साथ संपन्न हुई संधियों में वार्षिक खिराज की रकम निर्धारित न कर, राज्य के कुल राजस्व का एक निश्चित हिस्सा लेना तय किया। इससे कंपनी राज्य की आय में हिस्सेदार बन गयी और अपने हिस्से का खिराज प्राप्त करने हेतु कंपनी को इन राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया।

राजपूत राज्यों और कंपनी सरकार के बीच हुई संधियों के अन्तर्गत राजपूत नरेशों ने अपने राज्य में कंपनी का पोलिटीकल एजेण्ट नामक राजनीतिक अधिकारी रखना स्वीकार किया था। ये पोलिटीकल एजेण्ट राज्य में व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर शासकों को निरंतर सलाह देने लगे। राजपूत शासक इतने असहाय हो चुके थे कि पोलिटीकल एजेण्ट की अवहेलना करना उनके लिये संभव नहीं था। अतः धीरे-धीरे राज्यों के आंतरिक प्रशासन में पोलिटीकल एजेण्ट का हस्तक्षेप बढता गया। परिणाम यह निकला कि इन शासकों के पदाधिकारियों ने अब पोलिटीकल एजेण्ट (बाद में रेजीडेण्ट) के इशारों पर शासन चलाना शुरू किया तथा अपने शासक के आदेशों की अवहेलना शुरू कर दी। राजपूत शासकों ने इन पदाधिकारियों को कंपनी सरकार का समर्थन प्राप्त होता था, अतः राजपूत शासक अपने ही अधीनस्थ अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सके। राजपूत राज्यों के आंतरिक प्रशासन पर अपना पूर्ण वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से ब्रिटिश सरकार ने अपने पक्ष के पदाधिकारियों को राज्य में प्रभावशाली एवं शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया। ब्रिटिश समर्थक पदाधिकारी पोलिटीकल एजेण्ट को ही सत्ता और अधिकार का स्रोत मानकर उनके आदेशानुसार ही कार्य करने लगे। फलस्वरूप राज्य के आंतरिक प्रशासन में शासकों का महत्त्व घट गयी और उनके स्थान पर ब्रिटिश अधिकारियों का महत्त्व बढ गया।

शासकों के भोग-विलास में वृद्धि

कंपनी सरकार और राजस्थानी राज्यों के बीच हुई संधियों द्वारा राजपूत शासकों की बाह्य स्वतंत्रता तो समाप्त हो ही गयी थी और आंतरिक प्रशासन में ब्रिटिश अधिकारियों के हस्तक्षेप से आंतरिक प्रभुसत्ता भी धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। आंतरिक प्रशासन में ब्रिटिश अधिकारियों के हस्तक्षेप से आंतरिक प्रभुसत्ता भी धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। आंतरिक प्रशासन में ब्रिटिश अधिकारियों के हस्तक्षेप तथा उनके द्वारा ब्रिटिश समर्थक पदाधिकारियों को प्रोत्साहन दिये जाने से राजपूत नरेश शासन संबंधी कार्यों के प्रति उदासीन होने लगे। शासन के प्रति उदासीन शासकों के पास भोग विलास तथा आमोद प्रमोद के अलावा अन्य कोई कार्य नहीं रह गया था। अतः वे भोग-विलास में निरंतर डूबते गये। जयपुर का शासक जगतसिंह सर्वाधिक विलासी निकला। उसने रसकपूर नामक एक वेश्या को अपनी महारानियों से भी अधिक सम्मान और अधिकार प्रदान किये तथा उसके नाम के सिक्के भी जारी किये। जोधपुर का शासक मानसिंह भी भोग विलास में डूब गया और उसके उत्तराधिकारी तख्तसिंह का भी यही हाल रहा। कोटा का शासक शत्रुसाल तो अपना अधिकांश समय रनिवास में ही बिताता था। मेवाङ के शासक जवानसिंह और स्वरूपसिंह भी अधिक विलासी निकले।

शासकों की भोग-विलासिता इतनी बढ गयी थी कि, कभी-कभी तो वे कई महीनों तक अपने अन्तःपुर से बाहर ही नहीं निलकते थे। इसके अतिरिक्त पोलो, शिकार, कुश्ती के दंगल, हाथियों के दंगल, विलायती नटों के तमाशे, विलायती कुत्तों के तमाशे, संगीत, नृत्य और शराब की दावतों आदि से ही उनका अधिकांश समय व्यतीत होने लगा। राजस्थानी नरेश राग रंग में पूरी तरह डूब गये, जिससे उनका नैतिक पतन हुआ। शासकों की इस स्थिति के बारे में मुन्शी देवीप्रसाद ने लिखा है कि, किसी ने भी कभी अपनी रियासत में इस सिरे से उस सिरे तक दौरा न किया होगा। न ही रैय्यत से पूछा होगा कि तुम्हारी क्या हालत है। हमारे अहलकार और हाकिम तुम्हारे साथ कैसा सलूक करते हैं और क्या हासिल (लगान) लेते हैं। शेर और सूअर की तलाश में तो अपने मुल्क के ऊजङ जंगलों में नजर दौङाकर इधर-उधर गौर से देखा होगा, मगर यह कभी नहीं हुआ कि उन जंगलों में कहीं से पानी लाने की तरकीब कर घास-फूस की जगह जौ और गेहूँ के सरसब्ज खेतों से आँखों को ठंडा करें। मेले और रैय्यत के सुख-दुःख की खबर लेने को महलों के बाहर कदम भी न रखा होगा। डोम-डाढी, रण्डी और भङवों को तो हमेशा रूबरू बुलाकर दो-दो और चार-चार पहर तक उनका नाच और मुजरा देखा होगा, मगर कभी दरबारे आम में बैठकर रैय्यत की फरियाद दो घङी भी न सुनी होगी। वस्तुतः ब्रटिश अधिकारियों का हित भी इसी में था कि शासक वर्ग प्रशासनिक कार्यों से विमुख होकर भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद में डूबे रहें ताकि राज्यों का शासन वे अपनी इच्छानुसार चला सकें। ऐसी परिस्थितियों में ब्रिटिश पोलिटीकल एजेण्ट ने राज्य में तानाशाह की भूमिका आरंभ कर दी।

सामंतों की पद-मर्यादा पर प्रहार

राजपूत शासकों ने अपने सामंतों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार किया था। अतः 1817-18 ई. की संधियाँ सम्पन्न होने के बाद ब्रिटिश पोलिटीकल एजेण्ट ने अपने प्रभाव और शक्ति का प्रयोग कर सामंतों की शक्ति को सीमित करने का प्रयास किया। राजस्थान के जिन राज्यों के शासकों को सैनिक सहयोग देने से ब्रिटिश सरकार के स्वार्थ सिद्ध होते थे, वहाँ के शासकों को सैनिक सहयोग देकर सामंतों की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया गया। किन्तु जिन राज्यों के शासकों ने सामंतों की शक्ति को कुचलने में ब्रिटिश सहयोग की उपेक्षा करते हुए स्वयं की शक्ति से सामंतों को दबाना चाहा अथवा वे सामंत जो ब्रिटिश समर्थक थे, उनके प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति भिन्न रही।

राजस्थान पर अपनी सर्वोपरि सत्ता स्थापित करने के बाद ब्रिटिश सरकार की नीति यह हो गयी कि सामंतों को धीरे-धीरे, किन्तु निश्चित रूप से पूर्णतया महत्त्वहीन एवं प्रभावहीन बना दिया जाय, ताकि अपने पक्षपाती पदाधिकारियों की सहायता से राज्य में उन्हें मनमानी करने की स्वतंत्रता मिल जाय। अतः ब्रटिश अधिकारियों ने सामंतों को भी करदाता बनाने का प्रयत्न किया, जैसाकि स्वयं ऑक्टरलोनी ने राजपूत राज्यों में तैनात पोलिटीकल एजेण्टों को लिखा था कि, ब्रिटिश संरक्षण के फलस्वरूप शासकों को वार्षिक खिराज देना पङता है, किन्तु सामंतों को ब्रिटिश संरक्षण के लिए किसी प्रकार का कोई कर नहीं चुकाना पङता, जबकि शासकों के समान ही सामंतों को भी ब्रिटिश संरक्षण का लाभ मिल रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटिश सरकार सामंतों को करदाता बनाकर उन्हें प्रभावहीन करना चाहती थी। ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने के बाद शासकों को सामंतों की सैनिक सेवाओं की आवश्यकता नहीं रही, अतः ब्रिटिश अधिकारियों एवं शासकों ने सामंतों की सैनिक सेवाओं की आवश्यकता नहीं रही, अतः ब्रिटिश अधिकारियों एवं शासकों ने सामंतों की परंपरागत सैनिक सेवाओं (चाकरी) के बदले नकद रुपया वसूल करने का निश्चय किया। लेकिन सामंतों ने इसे स्वीकार नहीं किया, जिसके फलस्वरूप राज्यों में शासकों और सामंतों के बीच झगङे का नया कारण उत्पन्न हो गया और यह झगङा 19 वीं शताब्दी के अंत में जाकर समाप्त हुआ। वस्तुतः ब्रिटिश अधिकारियों ने सामंतों की सेवाओं को रोकङ रकम की अदायगी में इसलिए परिवर्तित करना चाहा, क्योंकि सामंतों की सैनिक सेवाएँ ही शासकों की शक्ति का स्रोत थी और इन्हें समाप्त करने से राजपूत नरेश स्वतः ही अँग्रेजों से सहायता की याचना करते रहेंगे। इतना ही नहीं, नयी व्यवस्था से अँग्रेजों ने सामंतों को भी निर्बल बनाने की चेष्टा की।

राजस्थानी राज्यों में प्रथम श्रेणी के सामंत अपने राज्य को पैतृक सम्पत्ति मानते हुए स्वयं को राज्य का संरक्षक तथा शासक का सलाहकार मानते थे और यह अपेक्षा रखते थे कि शासक राज्य की महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर उनसे विचार-विमर्श करता रहे। इससे राज्य के प्रशासन में सामंतों का वर्चस्व होता था और सामंत इसे अपनी प्रतिष्ठा की बात मानते थे। लेकिन ब्रिटिश संरक्षण के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए राज्य के पदाधिकारियों व मुत्सद्दी लोगों को अपना समर्थन देकर प्रशासनिक मामलों में सामंतों को महत्वहीन बनाने का प्रयास किया। इतना ही नहीं, ब्रिटिश अधिकारियों ने सामंतों की पद-मर्यादा को जागीर क्षेत्र की प्रजा की दृष्टि में भी कम करने का प्रयास किया। जागीरों के निवासी अपने सामंत की स्वीकृति के बिना अपना निवास स्थान छोङकर कहीं अन्यत्र आबाद नहीं हो सकते थे। सामंतों के इस विशेषाधिकार के कारण जागीर क्षेत्र की जनता पर सामंत का पूर्ण प्रभाव और नियंत्रण रहता था। सामंतों के इस प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से ए.जी.जी.हेनरी लॉरेन्स ने अपने अधीन समस्त पोलिटीकल एजेण्टों को निर्देश दिया कि वे अपने संबंधित राज्यों के शासकों पर दबाव डालकर सामंतों के इस विशेषाधिकार को समाप्त करने का प्रयत्न करें। फलस्वरूप सामंतों के इस विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया गया, जिससे जागीर क्षेत्र की प्रजा पर सामंतों का प्रभाव और नियंत्रण समाप्त हो गया तथा सामंती प्रजा की दृष्टि से सामंतों की प्रतिष्ठा में कमी आ गयी। ब्रिटिश संरक्षण से पूर्व ठिकाने (जागीर) के सेठ-साहूकारों तथा व्यापारियों पर सामंतों का काफी प्रभाव था। सामंत, व्यापारियों से राहदारी, दाना – पानी आदि शुल्क वसूल करके बदले में उन्हें सुरक्षा प्रदान करते थे। किन्तु ब्रिटिश अधिकारियों ने सामंतों के इस अधिकार को भी समाप्त कर दिया। यद्यपि अधिकारी इस बात को स्वीकार करते थे कि सामंतों द्वारा वसूल किये जाने वाले इस शुल्क से तथा सामंतों द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा से व्यापारी वर्ग पूर्णतया संतुष्ट था। ब्रिटिश सरकार द्वारा ऐसा करने का एकमात्र उद्देश्य व्यापारी वर्ग पर से सामंतों का प्रभाव समाप्त करना था। नये ब्रिटिश नियमों ने भी सेठ-साहूकारों को सामंतों के प्रभाव से मुक्त होने में सहायता दी। सेठ-साहूकारों को अब अपने आसामियों से ऋण वसूली के लिए, पूर्व की सबसे बङी आसानी से अपना ऋण वसूल कर सकते थे। ऐसा करने से ब्रिटिश सरकार का मुख्य ध्येय सेठ-साहूकारों तथा व्यापारी वर्ग की सहानुभूति प्राप्त करना तथा उन पर पूर्व स्थापित सामंतों के प्रभाव को समाप्त कर ब्रिटिश सत्ता के प्रति एक वफादार वर्ग का निर्माण करना था। राजपूत शासकों और राज्यों के प्रशासन पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के साथ-साथ सामंतों की पद-मर्यादा को समाप्त कर उन्हें जन-सामान्य की स्थिति में लाकर, उन पर भी अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया। 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जागीर क्षेत्र का नेतृत्व सामंतों के पास था तथा समाज में उनकी बङी प्रतिष्ठा थी, किन्तु धीरे-धीरे जागीर क्षेत्र में सामंतों का नेतृत्व समाप्त होने लगा तथा समाज में भी उनकी प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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