इतिहासराजस्थान का इतिहास

ब्रिटिश आधिपत्य में सामाजिक जीवन में परिवर्तन

सामाजिक जीवन में परिवर्तन – 19 वीं शताब्दी के आरंभ में राजस्थान में सामाजिक ढाँचा अपने परंपरागत अस्तित्व को बनाये हुए था। सामाजिक संगठन में किसी भी जाति की प्रतिष्ठा, उसकी वंशोत्पत्ति और उसके द्वारा अपनाये जाने वाले व्यवसाय पर निर्भर करती थी। समाज में सम्मान प्राप्त करने अथवा उच्च स्थान प्राप्त करने के लिये आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न जातियों द्वारा अशुद्ध व्यवसाय अर्थात् निम्नकोटि का व्यवसाय अपनाने पर समाज में उन्हें निम्न स्थान प्राप्त हो जाता था। समाज में प्रत्येक जाति को अनुशासन में रखने के लिये संबंधित जाति पंचायतें नियम बनाती थी और इन जाति पंचायतों को राज्य सरकारों का संरक्षण प्राप्त था। किन्तु सामान्यतः राज्य कभी जाति-पंचायतों के मामले में अनुचित हस्तक्षेप नहीं करता था। राजस्थान के परंपरागत सामाजिक ढाँचे को बनाये रखने में इन जाति पंचायतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। जन्म पर आधारित जाति-प्रथा के कारण राजस्थान के सामाजिक जीवन में छुआ-छूत के अलावा अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थी। इन कुप्रथाओं में सती-प्रथा, कन्या-वध, डाकिन-प्रथा, बाल-विवाह, त्याग, औरतों और लङकियों का क्रय-विक्रय आदि मुख्य थी। इनमें से कुछ प्रथाओं को धर्म से जोङ दिया गया, जिससे उन प्रथाओं ने समाज में अत्यधिक महत्त्व प्राप्त कर लिया। राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित हो जाने के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने इन कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिये कोई तत्काल कदम नहीं उठाये, क्योंकि ब्रिटिश सरकार यहाँ के लोगों के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से डरती थी। किन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा राज्यों के राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक ढाँचे में किये गये परिवर्तनों ने सामाजिक सुधारों और सामाजिक जीवन में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार के निरंतर दबाव के फलस्वरूप भी राजपूत शासकों ने कुछ कुप्रथाओं को गैर कानूनी घोषित कर उन्हें समाप्त करने का प्रयास किया।

परंपरागत जातीय व्यवसायों में परिवर्तन

राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने के बाद, यद्यपि जाति-प्रथा का परंपरागत स्वरूप तो ज्यों-का-त्यों बना रहा, लेकिन सामाजिक गतिशीलता आरंभ हो गयी। अन्य प्रान्तों से लोगों का आना तथा यहाँ के लोगों का निष्क्रमण प्रायः चलता रहता था। इसके साथ ही सभी बङी जातीय तथा उप-जातीय समुदायों में व्यवसायों का परिवर्तन होने लगा। निम्नजातियों में यह व्यवसाय परिवर्तन उच्चतर व्यवसाय के अपनाने में दिखाई पङा। राजपूत भी अपने परंपरागत व्यवसायों – सैनिक कार्यों और भू-स्वामित्व से निकल कर राजकीय सेवा तथा कृषि पर निर्भर होते गये। वैश्य भी अब प्रशासनिक एवं सैनिक पद संभालने लगे। तेली, धोबी, कुम्हार, खाती और हरिजनों को छोङकर अन्य सभी जातियों ने अपने व्यवसाय बदल लिये। इस सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख कारण शासकों व सामंतों की सेनाओं का विघटन, वाणिज्य-व्यापार पर अँग्रेजों का बढता हुआ नियंत्रण, भूमि-बंदोबस्त, यातायात के साधनों का विकास, प्रशासनिक संस्थाओं में परिवर्तन, अँग्रेजी शिक्षा का प्रसार आदि थे। स्वामी दयानंद सरस्वती का राजस्थान में आगमन परंपरागत सामाजिक ढाँचे को झकझोरने वाला सिद्ध हुआ। स्वामीजी की यह शिक्षा, कि सामाजिक जीवन के विभिन्न अंग, धर्म से संबंधित नहीं हैं, के परिणाम दूरगामी सिद्ध हुए। उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों की व्याख्या का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को देकर ब्राह्मणों का एकाधिकार समाप्त कर दिया। सामाजिक रीति-रिवाजों को धर्म से अलग करके सामाजिक जीवन में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 19 वीं शताब्दी में सामाजिक जीवन में परिवर्तन के प्रयास मुख्यतः स्रियों की स्थिति सुधारने से संबंधित थे। ऐसे ही कुछ सामाजिक सुधारों के बारे में हम आपको इस पॉस्ट में बतायेंगे, ये सुधार निम्नलिखित हैं-

सती प्रथा का अंत

कुलीय रक्त की शुद्धता और प्रतिष्ठा को मध्यकालीन असुरक्षित वातावरण में सुरक्षित रखने के लिये राजपूतों में सती-प्रथा का प्रचलन सर्वाधिक था तथा इसने धार्मिक स्वरूप ग्रहण कर लिया था। हिन्दुओं की कुछ उच्च जातियों में भी यह प्रथा कुछ मात्रा में प्रचलित थी। लेकिन 19 वीं शताब्दी के आरंभ में इस प्रथा की व्यापकता कम होती जा रही थी। जयपुर में सवाई जगतसिंह की 1818 ई. में मृत्यु होने पर केवल एक रानी सती हुई थी। उदयपुर में महाराणा भीमसिंह की मृत्यु पर 1828 ई. में 4 रानियाँ, 4 पासवान और 1838 ई. में जवानसिंह की मृत्यु पर 2 रानियाँ, 3 पासवान और 2 दासियाँ सती हुई। लेकिन 1842 ई. में महाराणा सरदारसिंह की मृत्यु पर केवल 1 खवास तथा 1861 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह की मृत्यु पर केवल एक दासी को सती होने के लिये तैयार किया जा सका। जोधपुर में 1803 ई. में महाराजा भीमसिंह की मृत्यु पर 8 रानियाँ लेकिन 1843 ई. में मानसिंह की मृत्यु पर केवल एक रानी सती हुई। बीकानेर में 1825 ई. में, जोधपुर में 1843 ई. और जयपुर में 1835 ई. के पश्चात् कोई रानी सती नहीं हुई। इस प्रकार सती-प्रथा स्वतः ही सीमित होती जा रही थी और जब ब्रिटिश अधिकारियों ने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने हेतु राजस्थानी शासकों पर दबाव डाला तो वे धीरे-धीरे तैयार होते गये। सर्वप्रथम 1922 ई. में बून्दी में सती-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया। तत्पश्चात् 1830 ई. में अलवर ने, 1844 ई. में जयपुर ने, 1846 ई. में डूँगरपुर, बाँसवाङा और प्रतापगढ ने, 1848 ई. में जोधपुर और कोटा ने तथा 1860 ई. में उदयपुर ने सती-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इसके बाद भी कुछ ठिकानों में सती की छुटपुट घटनाएँ होती रही, जिसके लिये ठिकानेदारों पर जुर्माना लगाया जाता था। किन्तु बाद में जुर्माना न लगाकर उन्हें बंदी बनाने पर जोर दिया गया। शासकों को भयभीत करने के लिए उनकी सलामी तोपों की संख्या में कमी करने की बात भी कही गयी। इस प्रकार शासकों व ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से राजस्थानी राज्यों में सती की घटनाएँ केवल अपवाद मात्र रह गयी।

कन्या वध का अंत

कन्या वध की कुप्रथा राजस्थान में राजपूतों में सीमित मात्रा में प्रचलित थी। किन्तु इस कुप्रथा के कारणों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। कर्नल टॉड ने राजपूतों में जागीरों के छोटे-छोटे टुकङों में बँट जाने और अपनी पुत्रियों के लिये उचित दहेज देने में असमर्थ रहने को कन्या-वध का कारण बताया है। राजपूताना के ए.जी.जी.सदरलैण्ड और जोधपुर के पोलिटीकल एजेण्ड लुडलों ने त्याग की प्रथा को तथा श्यामलदास ने टीके की प्रथा को कन्या वध के लिये दोषी ठहराया है। कुछ समकालीन साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि राजपूत अपनी पुत्री का विवाह उच्च कुल में करने और अपनी क्षमता से अधिक धन खर्च करने की महत्वाकांक्षा के कारण कन्या वध का सहारा लेता था। राजस्थान पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित होने के बाद सर्वप्रथम कोटा राज्य ने 1834 ई. में कन्यावध को गैर कानूनी घोषित किया। तत्पश्चात् 1837 ई. में बीकानेर ने इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। 1839 ई. में जोधपुर ने इस कुप्रथा को नियंत्रित करने के लिये कुछ नियम बनाये तथा 1844 ई. में ही उदयपुर ने भी कन्या-वध को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के मध्य तक लगभग सभी राज्यों ने इस कुप्रथा को अवैध घोषित कर दिया था।

त्याग प्रथा का नियमन

राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर प्रदेश के दूसरे राज्यों से चारण, भाट, ढोली आदि आ धमकते थे और लङकी वालों से मुँह माँगी दान-दक्षिणा प्राप्त करने का हठ करते थे। इसी दान-दक्षिणा को त्याग कहा जाता था। इससे लङकी वालों की स्थिति काफी दयनीय हो जाती थी। इस त्याग की माँग को कन्या वध के लिये प्रायः उत्तरदायी ठहराया जाता था। इसीलिए ब्रिटिश अधिकारियों ने शासकों के सहयोग से इस समस्या को हल करने के लिए आश्यक कदम उठाये। सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य ने ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से त्याग के संबंध में कुछ नियम बनाये और इन नियमों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की व्यवस्था की। तत्पश्चात् 1844 ई. में बीकानेर ने तथा जयपुर राज्य ने भी नियम बनाकर इश्तिहार जारी किये। उदयपुर के शासकों ने 1844 ई. और 1850 ई. और 1860 ई. में राजकीय आदेश जारी किये, जिसके अनुसार दूसरे राज्यों से चारणों व भाटों को आने से रोक दिया और उदयपुर के चारणों व भाटों को त्याग माँगने हेतु अन्य राज्यों में जाने से रोक दिया। इस प्रकार के नियमों से त्याग की समस्या काफी अंशों तक हल हो गयी।

डाकन प्रथा का अंत

राजस्थान में अनेक जातियों, विशेषकर भील व मीणा जातियों में स्रियों पर डाकन होने का आरोप लगाकर उनकी हत्या कर देने की कुप्रथा प्रचलित थी। 1853 ई. में जब मेवाङ भील-कोर के एक सैनिक ने एक स्री को डाकन होने के संदेह में मार डाला तब तत्कालीन ए.जी.जी. को निर्देश दिया कि प्रत्येक राजपूत शासक को अपने-अपने राज्य में इस कुप्रथा को गैर कानूनी घोषित करने के लिए विवश करे और इस कुप्रथा में लिप्त व्यक्तियों के विरुद्ध सख्त सजा की व्यवस्था करे। फलस्वरूप उदयपुर राज्य ने अक्टूबर, 1853 ई. में इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और उसका उल्लंघन करने वालों को कारावास की सजा देने की घोषणा की। फिर भी राज्य में यह कुप्रथा समाप्त नहीं हुई। इसी प्रकार कोटा, जयपुर आदि राज्यों ने भी इस कुप्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया, किन्तु 19 वीं शताब्दी के अंत तक यह कुप्रथा समाप्त नहीं हुई। 20 वीं शताब्दी में अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार से यह कुप्रथा समाप्त हो सकी।

मानव-व्यापार प्रथा का अंत

19 वीं शताब्दी के मध्य तक राजस्थान में औरतें तथा लङके-लङकियों का क्रय-विक्रय सामान्य रूप से प्रचलित था। कुछ राज्य तो इस क्रय-विक्रय पर विधिवत् कर वसूल करते थे। सम्पन्न राजपूत अपनी पुत्री के दहेज में गोला-गोली देने के लिये खरीदते थे। कुछ सम्पन्न लोग अपनी रखैलें रखने के लिये स्रियों को खरीदते थे। वेश्याएँ अनैतिक पेशा करवान के लिये लङकियाँ खरीदती थी। साधु लोग लङकों को अपना चेला बनाने तथा संपन्न लोग घरेलू दास बनाने के लिए लङके खरीदते थे। यह प्रथा अत्यन्त ही अमानवीय थी, क्योंकि खरीददार खरीदी हुई लङकी या लङके का मनचाहा प्रयोग करने को स्वतंत्र होते थे। ब्रिटिश अधिकारियों ने राजस्थानी शासकों पर दबाव डालकर इस प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया। फलस्वरूप अधिकारियों ने राजस्थानी शासकों पर दबाव डालकर इस प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया। फलस्वरूप सर्वप्रथम फरवरी, 1847 ई. में जयपुर राज्य ने इस व्यापार को अवैध घोषित कर दिया। फलस्वरूप सर्वप्रथम फरवरी, 1847 ई. में जयपुर राज्य ने इस व्यापार को अवैध घोषित कर दिया। जोधपुर राज्य में इस व्यापार को प्रोत्साहन देने वालों पर 200 रुपये जुर्माना तथा एक वर्ष के कारावास की व्यवस्था की। यद्यपि कोटा राज्य ने 1831 ई. में इस व्यापार पर रोक लगायी थी, किन्तु 1862 ई. तक कोटा में यह मानव व्यापार चलता रहा और सरकार भी इस पर कर वसूल करती रही। अंत में ब्रिटिश अधिकारियों के दबाव से 1862 ई. में पुनः आदेश जारी कर इस व्यापार पर रोक लगा दी। सितंबर, 1863 ई. में उदयपुर राज्य ने भी इस पर रोक लगा दी। इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के अंत तक मानव-व्यापार की यह प्रथा भी समाप्त हो गयी।

देश हितेषनी सभा

19 वीं शताब्दी में विभिन्न राज्यों के सामंतों के समक्ष आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होनी शुरू हो गयी। ब्रिटिश संरक्षण के बाद उनकी यह कठिनाइयाँ बङी तेजी से बढने लगी। सामंतों की आय के स्रोत सीमित होते जा रही थे, इसलिए उन्हें अपनी पुत्रियों का विवाह उच्च कुल में करने में बङी कठिनाइयों का सामना करना पङा। अतः विवाह खर्च में कमी करना नितान्त आवश्यक हो गया था। इस समस्या का समाधान करने के लिये 2 जुलाई, 1877 ई. को उदयपुर में देश हितेषनी सभा की स्थापना हुई। इस सभा ने राजपूतों में उत्पन्न विवाह संबंधी कठिनाइयों को दूर करने के लिये दो प्रकार के प्रतिबंध लगाये – 1.) राजपूतों में विवाह के अवसर पर खर्च कम कर दिया जाय। 2.) राजपूतों, ब्राह्मणों व महाजनों में बहु-विवाह के संबंध में नियम बना दिये गये। त्याग केवल उन्हीं राजपूतों द्वारा दिया जायोगा जिसकी वार्षिक आय 500 रु. से अधिक होगी और त्याग की राशि वार्षिक आय के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। पुत्रियों व ज्येष्ठ पुत्र के विवाह पर खर्च की अधिकतम सीमा वार्षिक आय का 25 प्रतिशत निश्चित कर दी गयी। दूसरे पुत्र के विवाह पर 10 प्रतिशत और निर्धारित खर्च का एक प्रतिशत त्याग में दिया जा सकेगा। राज्य के बाहर के चारणों को त्याग नहीं दिया जायेगा। ब्राह्मणों व महाजनों के लिये वार्षिक आय का 25 प्रतिशत विवाह पर खर्च किया जा सकता था।

इस प्रकार मेवाङ में समाज सुधार का प्रयोग बिना ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग के चलता रहा। देश हितेशनी सभा के नियमों ने विभिन्न राज्यों में शादी विवाह और त्याग का खर्च कम करने के पक्ष में अनुकूल वातावरण तैयार कर दिया।

वाल्टर कृत हितकारिणी सभा

आर्य समाज का योगदान

आर्य समाज ने जहाँ वैदिक धर्म के प्रचार का बीङा उठाया था, वहीं उसने सामाजिक दोषों और कुरीतियों के निवारण की तरफ भी अपना ध्यान केन्द्रित किया। चूँकि राजस्थान आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद की कर्मभूमि का एक विशिष्ट क्षेत्र रहा था और यहाँ के कई शासकों एवं सामंतों के साथ उनके घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध भी रहे, अतः आर्य समाज के सुधार कार्यक्रमों का राजस्थान पर व्यापक प्रभाव पङना स्वाभाविक ही था। आर्य समाज ने जाति-प्रथा के आधारों पर प्रहार किया। जातीय आधार पङना स्वाभाविक ही था। आर्य समाज ने जाति प्रथा के आधारों पर प्रहार किया। जातीय आधार पर पनपने वाली असमानता और पृथक्करण की भावना की कटु आलोचना की और इसे राष्ट्रीय एकता व संगठन के मार्ग की सबसे बङी बाधा बतलाया। जाति-पाँति के बंधनों को तोङने के लिये अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित किया गया। प्रीतिभोजों के आयोजन किये जाने लगे जिनमें हरिजनों सहित उच्च कुल के लोग सम्मिलित होने लगे। यह एक महान प्रयास था। अस्पृश्यता को दूर करने का अथक प्रयास किया गया। चांदकरण शारदा ने दलितोद्धार नामक पुस्तक की रचना की। उनकी पत्नी श्रीमती सुखदा देवी ने भी इस क्षेत्र में रचनात्मक कार्य किया। शाहपुरा के महाराजकुमार ने आर्य समाजियों के अनुरोद पर लक्ष्मीनारायण मंदिर के पट्ट हरिजनों के दर्शनार्थ खुलवा दिये। आर्य समाज द्वारा संचालित विद्यालयों में निम्न समझी जाने वाली सभी जातियों के लङके-लङकियों को प्रवेश देकर उन्हें भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया। इसके साथ ही उनमें व्याप्त बुरी आदतों – माँस-मदिरा का सेवन, अस्वच्छता, मृत-भोज आदि को छुङाने का भी प्रयास किया गया।

परंतु आर्य समाज का सर्वाधिक और महत्त्वपूर्ण योगदान स्रियों की स्थिति को सुधारने की दिशा में रहा। राजस्थान में बाल-विवाह प्रथा महारोग की तरह व्याप्त थी। अजमेर के श्री हरविलास शारदा ने बाल-विवाह का घोर विरोध किया और अंत में 1929 ई. में वे बाल-विवाह अवरोधक अधिनियम पारित करवाने में सफल रहे। यह अभियान उन्हीं के नाम से शारदा एक्ट के नाम से विख्यात है। इसके अन्तर्गत विवाह के समय लङके-लङकियों की कम से कम आयु क्रमशः 18 वर्ष और 14 वर्ष होनी चाहिए। इससे कम आयु में सम्पन्न होने वाले विवाह को बाल-विवाह की संज्ञा दी गयी और उसे दंडनीय अपराध माना गया। इस बिल से प्रभावित होकर जोधपुर के तत्कालीन मुख्यमंत्री महाराजा प्रतापसिंह ने तथा शाहुपरा स्टेट ने भी बाल-विवाह प्रतिबंधक कानून बनाये।

स्री समाज में विधवाओं की स्थिति सबसे सोचनीय एवं दयनीय थी। विधवा स्री को समाज में हर तरह के अपशकुन की दृष्टि से देखा जाता था। विधवाओं का पुनर्विवाह तो पाप समझा जाता था, भले ही वह बाल-विधवा ही क्यों न हो। आर्य समाज ने विधवा विवाह का समर्थन किया। उनकी दृष्टि में हमारे प्राचीन शास्रों में वैधव्य का कोई विधान नहीं है। अतः आर्य समाज ने विधवा-विवाह का प्रचार किया। राजस्थान में विधवा-पुनर्विवाह के अनेक मामले आर्य मार्तण्ड एवं परोपकारी पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

समाज सुधार की दिशा में आर्यसमाज का एक उल्लेखनीय कार्य पर्दा-प्रथा का विरोध करना था। शिक्षा के प्रचार ने पर्दे को पहली चोट पहुँचाई। पढी-लिखी लङकियों को पर्दा अस्वाभाविक प्रतीत होने लगा। पर्दे को दूसरी ठोकर तब लगी जब आर्य समाज के जलसों में स्रियों की उपस्थिति आवश्यक समझी जाने लगी। धीरे-धीरे आर्य समाजियों की देखा-देखी अन्य लोग भी अपनी लङकियों को खुले मुँह वरमाला पहनाने की स्वीकृति देने लगे। पर्दा प्रथा का प्रभाव कमजोर होने से लङकियाँ न केवल स्कूलों एवं महाविद्यालयों में जाने लगी, अपितु राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में भी पुरुषों के साथ भाग लेने लगी। आर्य समाजियों ने दहेज प्रथा का भी विरोध किया परंतु इस दिशा में उन्हें उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली।

परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रतिरोध

राजस्थान के कुछ परंपरावादी राडघरानों ने इस परिवर्तन की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने तथा आपसी परंपरागत मान्यताओं, संस्थाओं और रीति-रिवाजों को बनाये रखने का प्रयास किया। राजपूत स्वभाव से ही परंपरावादी तो थे ही और जब कर्नल टॉड ने अनके रीति-रिवाजों और संस्थाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की तो राजपूत शासक और सामंत अपने पूर्वजों की भाँति अपने आपको हिन्दू धर्म और संस्कृति का पोषक एवं रक्षक समझने लगे। इसलिए राजपूत शासकों और सामंतों ने अपने राज्य में परिवर्तन की प्रवृत्ति का विरोध किया। उन्हें यह आशंका बनी रही कि इन परिवर्तनों के फलस्वरूप कहीं राज्य में उनका महत्त्व व पद-मर्यादा कम न हो जाय। मेवाङ, बाँसवाङा और बूँदी के राजघराने तो सर्वाधिक परंपरावादी थे। बाँसवाङा-नरेश लक्ष्मणसिंह (1844-1905 ) ने तो अपने जीवन काल में रेलगाङी अथवा तारघर देखने तक की इच्छा व्यक्ति नहीं की। उदयपुर के महाराणा स्वरूपसिंह (1841-1861 ई.) तथा बून्दी के महाराव रामसिंह (1821-1889ई.) अपनी परंपरागत प्रथाओं और रीति-रिवाजों से चिपके रहने में गर्व अनुभव करते थे। ब्रिटिश अधिकारियों ने समय-समय पर इन राज्यों की शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था में परिवर्तन करने, चिकित्सालय और स्कूल खोलने आदि के लिये दबाव डाला, किन्तु उन्होंने अपनी परंपरागत संस्थाओं और रीति-रिवाजों को त्यागना पसंद नहीं किया । ऐसे शासकों के कारण कुछ राज्यों में परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी रही। किन्तु 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में तथा 20 वीं शताब्दी के आरंभ में कुछ राज्यों के प्रगतिशील विचारों के शासकों के राज्यारोहण के बाद जब उनके राज्यों में परिवर्तन की प्रक्रिया तेज हुई तब राजस्थान के सभी राज्यों ने उसका अनुकरण करना ही श्रेयस्कर समझा । इस प्रकार स्वतंत्रता के पूर्व राजस्थान के सभी राज्य देश की मूल धारा में बहने लगे। डॉ.एम.एस.जैन ने राजस्थान में हुए परिवर्तन को छद्म आधुनिकीकरण की संज्ञा दी है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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