इतिहासराजस्थान का इतिहास

वाल्टर कृत हितकारिणी सभा क्या थी

वाल्टर कृत हितकारिणी सभा – 1887 ई. में ए.जी.जी. ब्रेडफोर्ड के इंग्लैण्ड चले जाने के बाद कर्नल वाल्टर को, जो 1879-87 ई. के मध्य मेवाङ में रेजीडेण्ड रहा, कार्यवाहक ए.जी.जी. बना दिया गया। उसने राजपूत समाज में प्रचलित कुरीतियों की तरफ यहाँ के शासकों का ध्यान आकर्षित करने का निश्चय किया। उसने राजपूत समाज में व्याप्त कुरीतियों को स्पष्ट करते हुए कहा कि आपकी जाति में टीका, नुकता, चारणों-भाटों को त्याग, विवाह आदि के अवसरों पर अनावश्यक अधिक धन खर्च किया जाता है, जिससे धनी तो निर्धन होते ही हैं, निर्धन भी ऋण के बोझ से दब जाते हैं। धनाभाव के कारण कई बार जमीन गिरवी रखनी पङती है। अतः फिजूल खर्च और बाह्य आडंबरों से बचना चाहिए। जिस जाति की आर्थिक स्थिति खराब होती है, वह उत्तरोत्तर पतन की ओर अग्रसर होती है। इसलिए कुरीतियों में सुधार करना आवश्यक है। इन विचारों को व्यक्त करते हुए अक्टूबर, 1887 ई. में उसने राजस्थान के सभी राज्यों के पोलिटीकल अधिकारियों को एक पत्र भेजकर प्रत्येक राज्य से एक अधिकारी, एक चारण और एक जागीरदार को मार्च, 1888 ई. में अजमेर भेजने के लिये लिखा । 9 मार्च, 1888 ई. तक भरतपुर, धौलपुर और बाँसवाङा को छोङकर सभी राज्यों के प्रतिनिधि अजमेर में एकत्र हुए। सभा ने मृत्यु-भोज (नुकता) संबंधी खर्च को कम करने तथा लङके-लङकियों की विवाह योग्य आयु निश्चित करने के संबंध में प्रस्ताव पास किये। अगले वर्ष 22 फरवरी, 1889 ई. को अजमेर में पुनः राज्यों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए, जिसमें कुछ नियम पारित करने के अलावा इस सभा का नाम वाल्टर कृत राजपुत्र हितकारिणी सभा रखा गया। स्वयं ए.जी.जी. को असका अध्यक्ष, अजमेर के कमिश्नर को उपाध्यक्ष और एक वेतनभोगी सचिव की व्यवस्था की गयी।

ब्रिटिश काल में प्रशासनिक व्यवस्था कैसी थी

इस सभा का संगठन इस प्रकार किया गया कि राजस्थान के प्रत्येक राज्य से राजपूत जाति के पाँच-पाँच सदस्य नियुक्त किये गये। प्रति वर्ष ए.जी.जी. की अध्यक्षता में सभा की एक वार्षिक बैठक होती थी। विभिन्न राज्यों में पृथक-पृथक हितकारिणी सभाएँ थी, जो केन्द्रीय सभा की शाखाएँ माना जाती थी और कोई न कोई उच्च अँग्रेज अधिकारी स्थानीय सभा का अध्यक्ष होता था। इसका सचिव भी सरकारी अधिकारी होता था, जिसे ब्रिटिश सरकार नियुक्त करती थी। प्रत्येक राज्य हितकारिणी सभा, केन्द्रीय सभा को अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत कर सुधार के आँकङे प्रस्तुत करती थी। केन्द्रीय सभा अपनी वार्षिक बैठक में उन दोषों को दूर करने के लिये नियम बनाती थी, जो ब्रिटिश अधिकारियों की दृष्टि में दोषपूर्ण समझे जाते थे।

वाल्टर कृत हितकारिणी सभा के नियम मेवाङ की देश हितेषनी सभा के नियमों के ढाँचे पर ही बनाये गये। केवल तीन विषयों में वाल्टर कृत हितकारिणी सभा की नियमावली थोङी भिन्न थी – 1.) वाल्टर कृत राजपुत्र हितकारिणी सभा ने बहु-विवाह को पूर्णतया समाप्त करने के नियम बनाये जबकि देश हितेषनी सभा ने विशेष परिस्थितियों तथा एक आयु सीमा तक बहु-विवाह की अनुमति दी थी। 2.) विवाह निश्चित होने पर वे उपहार जो लङकी के पिता पक्ष की ओर से दिये जाते थे, टीका कहलाते थे और जो लङके के पिता पक्ष की ओर से उपहार भेजे जाते थे, वे रीत कहलाते थे। वाल्टर कृत हितकारिणी सभा ने टीके और रीत की प्रथाओं को बिल्कुल समाप्त कर दिया, जबकि देश हितेषनी सभा ने केवल विवाह खर्च की एक सीमा निर्धारित कर दी थी। 3.) विवाह की कम से कम आयु लङकी के लिये 14 वर्ष और लङके के लिये 18 वर्ष निर्धारित कर दी गयी, लेकिन देश हितेषनी सभा ने इस संबंध में कोई नियम नहीं बनाया। त्याग के संबंध में नियम तथा चारणों-भाटों के एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने पर प्रतिबंध सामान्यतः वैसे ही थे जैसे देश हितेषनी सभा के थे। इसने मृत्यु-भोज पर खर्च करने की भी एक सीमा निश्चित कर दी थी। इस सभा ने समाज सुधार हेतु जो भी नियम बनाये उनका पालन करना प्रत्येक राजपूत का अनिवार्य कर्त्तव्य था तथा नियमों का उल्लंघन करने वाले को दंड (जुर्माना) देने का भी प्रावधान था। नियमों का उल्लंघन करने वाला यदि स्वेच्छा से दंड की रकम नहीं देता तो संबंधित राज्य द्वारा वसूल करने की कार्यवाही की जाती थी।

निःसंदेह राजपूत समाज में फैली सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए वाल्टरकृत राजपुत्र हितकारिणी सभा के प्रयास सराहनीय थे। इस सभा द्वारा बनाये गये नियमों को अधिकांश राजपूत स्वीकार कर उनका पालन करते रहे। किन्तु 1924 ई. के बाद यह संस्था शिथिल पङ गयी। 1924 ई. तक इसका कोी अधिवेशन नहीं हुआ। 1936 ई. में राजस्थान के नौ राज्यों ने मत व्यक्त किया कि इस संस्था को शांतिपूर्वक समाप्त हो जाने दिया जाए, तब ए.जी.जी. की इच्छानुसार इसे जीवित रखा गया। डॉ. एम.एस.जैन ने इस सभा की असफलता को प्रमाणित करते हुए लिखा है कि, देश हितेषनी सभा के नियम वास्तविकता और व्यावहारिकता पर आधारित थे, जबकि वाल्टरकृत सभा के सैद्धांतिक और अव्यावहारिक थे। इस सभा की असफलता इस बात की निर्विवाद प्रमाण थी कि सामाजिक सुधार बाहर के व्यक्तियों द्वारा संभव नहीं है। डॉ. जैन द्वारा निकाला गया निष्कर्ष उनकी दृष्टि में सही हो सकता है, लेकिन सभा के कार्यों से राजपूत समाज में अपनी सामाजिक कुरीतियों के प्रति एक जागरूकता अवश्य पैदा हो गयी थी। हितकारिणी सभा के एक अधिवेशन में ए.जी.जी. ओगलवी ने सभा को समाप्त करने अथवा बनाये रखने की बात कहते हुए स्पष्ट कहा था कि अब मैं इस कार्य को नहीं कर सकूँगा। तब सभी प्रतिनिधियों ने इस सभा के अब तक के कार्यों की सराहना करते हुये कहा था कि, इस सभा को जीवित रखना आवश्यक है। इसी के द्वारा अब तक राजपूत जाति की उन्नति होती आयी है और भविष्य में भी होगी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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