इतिहासराजस्थान का इतिहास

ब्रिटिश काल में रेल एवं संचार व्यवस्था में परिवर्तन

रेल एवं संचार व्यवस्था – 1857 ई. के विप्लव काल में अँग्रेजों को अपनी सेनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में बङी असुविधा हुई थी। अतः 1858 ई. के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए यातायात के साधनों के विस्तार पर अधिक बल दिया तथा राजस्थानी शासकों को इसके लिये प्रेरित किया। सैनिक और प्रशासनिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त व्यापारिक आवागमन की भी आवश्यकता थी। दक्षिणी राजस्थान को अहमदाबाद से जोङने पर अधिक ध्यान, व्यापारिक आवश्यकताओं के कारण ही दिया गया था। सर्वप्रथम सङक मार्गों के निर्माण की ओर ध्यान दिया गया। 1860 ई. के बाद ऐसे सङक मार्गों के निर्माण पर जोर दिया गया जो ब्रिटिश साम्राज्य के राजस्थान में मुख्य केन्द्र अजमेर को राजस्थान के सीमान्त ब्रिटिश प्रांतों को जोङ सकें, जैसे – गुजरात, मध्य भारत और उत्तर-पश्चिमी प्रान्त।

राजस्थान में रेल मार्गों का निर्माण 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आरंभ हुआ। राजस्थान के रेल मार्गों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिल्ली-अहमदाबाद मार्ग था, जिसका सर्वेक्षण और पटरी बिछाने का कार्य अँग्रेजी टोलियों द्वारा किया गया। 1877 ई. में दिल्ली तथा आगरा से बांदीकुई, अजमेर और नसीराबाद तक रेल मार्ग यात्रियों के लिये खोल दिया। 1879-80 ई. में राजपूताना-मालवा रेल मार्ग भी भारत सरकार के नियंत्रण में पूरा हुआ तथा 1885 ई. में इस रेल लाइन के संचालन का दायित्व 20 वर्षों के लिए बी.बी.एण्ड सी.आई.रेलवे को सौंप दिया गया। रेल संचालन का दायित्व निजी कंपनियों के पास रहने से, रेल संचालन का खर्च व पूँजी पर ब्याज, उसकी आय से पूरा नहीं हो पाता था, क्योंकि निजी रेल प्रबंध प्रणाली में ऊँचे वेतन पर अँग्रेज अधिकारीगण अधिक होते थे। 1880 ई. में राजपूताना-मालवा रेल लाइन की एक शाखा फुलेरा से कुचामन रोड तक चालू की गयी। इसी रेल मार्ग पर सांभर झील स्थित है। राजस्थान में भारत सरकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण रेल मार्ग ग्वालियर-आगरा मार्ग था जो धौलपुर में लगभग 19 मील का मार्ग तय करता था। ब्रिटिश सरकार अथवा ब्रिटिश निजी कंपनियों के प्रबंध में रेलों का विस्तार और निर्माण से कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ।

राजस्थान में रेल निर्माण का दूसरा चरण उस समय आरंभ हुआ जब राजस्थान के राज्यों ने रेल प्रबंध अपने हाथ में रखा और अपनी ही पूँजी से रेल निर्माण करवाया। प्रारंभ में जोधपुर राज्य ने अहमदाबाद रेल लाइन को पाली से होकर ले जाने का अनुरोध किया, लेकिन जब ब्रिटिश सरकार ने यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया, तब जोधपुर राज्य ने स्वयं अपने खर्चे से मारवाङ जंक्शन-पाली-जोधपुर रेल मार्ग का निर्माण करवाया जो 1882-85 ई. तक पूरा हो गया। 1885-87 ई. में लूनी से पचपद्रा तक 66 मील लंबे रेल मार्ग का निर्माण कार्य पूरा हुआ। 1891 ई. तक जोधपुर से बीकानेर तक का 167 मील लंबा रेल मार्ग बनकर तैयार हो गया। 1893 ई. में मेङता से कुचामन रोङ तक रेल मार्ग बन जाने से जोधपुर-बीकानेर रेलवे का राजपूताना-मालवा रेलवे से संबंध की लंबाई 800 मील तक पहुँच गयी। इसमें वह रेल लाइन शामिल नहीं है, जो यद्यपि जोधपुर रेलवे द्वारा संचालित होती थी, लेकिन वह राज्य के बाहर थी। बीकानेर राज्य ने भी रेल लाइनों के निर्माण और विस्तार की तरफ विशेष ध्यान दिया। महाराजा गंगासिंह के शासन काल के आरंभ में बीकानेर रेलवे की लंबाई 87 मील थी, किन्तु महाराजा गंगासिंह ने प्रयत्नों से उसकी लंबाई 800 मील हो गयी।

कुछ निजी रेल कंपनियों के प्रबंध को देखते हुए जोधपुर-बीकानेर रेल लाइन का प्रबंध काफी अच्छा था। 1906 ई. में इस रेल लाइन का संचालन व्यय कुल आय का 42 प्रतिशत के लगभग था जो ब्रिटिश सरकार अथवा निजी ब्रिटिश रेल कंपनियों के खर्चे के अनुपात से बहुत कम था। 1899 ई. के भीषण अकाल के समय इस रेलवे ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

भारत सरकार उदयपुर से चित्तौङ तक रेल मार्ग बनाने की इच्छुक थी। उदयपुर के महाराणा फतेहपुर भी इस योजना के पक्ष में थे, लेकिन महाराणा इस रेल मार्ग का प्रबंध अँग्रेजों को नहीं देना चाहते थे। जब ब्रिटिश सरकार ने उन पर अधिक दबाव डाला तो महाराणा ने यह योजना ही त्याग दी। बाद में ए.जी.जी. ने महाराणा से बात की और जब इस रेल लाइन पर उदयपुर राज्य का नियंत्रण और प्रबंध स्वीकार कर लिया, तब 1895 ई. में यह रेल मार्ग बनना शुरू हो गया तथा 1899 ई. में यह रेल मार्ग बनकर तैयार हो गया। मेवाङ दरबार के रेल निर्माण का खर्च सबसे कम था। यह रेल लाइन बङी लाभदायक सिद्ध हुई। इससे न केवल स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए बल्कि राज्य को 10 प्रतिशत से भी अधिक शुद्ध लाभ भी हुआ। 1909 ई. में ही बीना, गुना और बारां रेलमार्ग भी चालू हो गया।

कुछ राज्यों ने ब्रिटिश परामर्श पर रेलों के विस्तार का कार्य स्वयं न करके ब्रिटिश सरकार अथवा निजी ब्रिटिश कंपनियों पर छोङ दिया और उनका वित्तीय भार स्वयं वहन किया। जयपुर राज्य ने सांगानेर-माधोपुर रेल लाइन का निर्माण 1884-85 ई. में इसी आधार पर आरंभ किया। इसका निर्माण इस प्रकार किया कि इस लाइन को टोंक व बून्दी राज्यों से नहीं निकाला गया, बल्कि हाङौती के अनाज उत्पादनक क्षेत्र और सांभर के नमक उत्पादक क्षेत्र को जोङा गया । लेकिन चूँकि इस रेल लाइन के प्रबंध के संबंध में जयपुर दरबार और बी.बी. एण्ड सी.आई रेलवे के बीच एक अनुबंध हुआ था, जिसके अनुसार कर्मचारियों की भर्ती अँग्रेज कंपनी द्वारा की जाती थी, अतः स्थानीय जनता को रेलवे में नौकरी के अवसर कम थे, जबकि जोधपुर रेलवे में जोधपुर निवासियों को नौकरी के अधिक अवसर उपलब्ध थे।

यद्यपि, जैसा कि डॉ.एम.एस.जैन ने लिखा है कि रेलों का आवागमन तथा संचार माध्यमों का विस्तार साम्राज्यवादी हितों को ध्यान में रखकर किया गया था फिर भी रेल लाइनों के फलस्वरूप भारत के विविध नगर, कस्बे तथा बाजार व मंडियाँ एक-दूसरे से जुङ गये, जिससे व्यापार-वाणिज्य को बढावा मिला। आयात-निर्यात में भी वृद्धि हुई, हजारों लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए। राजस्थान जैसे अकालग्रस्त क्षेत्र में बाहर से चारा, अनाज आदि लाना सुगम हो गया। किन्तु रेलों के निर्माण से एक नयी समस्या उत्पन्न हो गयी। यातायात के इन नये मार्गों का निर्माण कहीं पर राज्यों ने अपने साधनों से, कहीं पर अँग्रेजों ने अपने साधनों से और कुछ क्षेत्रों में राज्यों और ब्रिटिश सरकार के सम्मिलित साधनों से हुआ था। राज्य सरकारों द्वारा व्यापार पर लगने वाला परिवहन शुल्क वसूल करना कहाँ तक उचित था? इस संबंध में ब्रिटिश नीति भी सभी राज्यों के प्रति समान नहीं थी। 1865 ई. में धौलपुर राज्य की आर्थिक कठिनाइयों को देखते हुए उसे आगरा-बंबई मार्ग पर कुछ परिवहन शुल्क लगाने की अनुमति दे दी गयी, लेकिन अन्य राज्यों को इस प्रकार का कर लगाने का अधिकार नहीं दिया गया। इसके अतिरिक्त रेल मार्गों के निर्माण के लिये जो भूमि ग्रहण की गयी, जिससे किसानों को अपनी परंपरागत कृषि भूमि से वंचित होना पङा। हजारों किसानों की कृषि भूमि दो टुकङों में इस प्रकार विभाजित हो गयी कि रेल लाइन के एक तरफ कुओं से दूसरी तरफ की भूमि में सिंचाई करना कठिन हो गया। रेल मार्गों के खुल जाने से बंजारों व गाडोलियों का, जो अपने छकङों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान ढोने का काम करते थ, व्यवसाय क्षेत्र काफी सीमित हो गया। पुराने व्यापारिक मार्गों पर स्थित व्यापारिक केन्द्रों, जैसे – पाली, भीलवाङा, मालपुरा, राजगढ आदि का व्यापार-वाणिज्य काफी कम हो गया। राजस्थान की पूँजी विनियोग के अन्य क्षेत्र उपलब्ध न होने से व्यापारियों का निष्क्रमण आरंभ हो गया। फलस्वरूप राजस्थान की पूँजी भी अन्य प्रान्तों की ओर चली गयी।

संचार व्यवस्था

राजस्थान में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में संचार व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजस्थान में आधुनिक डाक सेवा आरंभ होने से पूर्व अधिकांश राज्यों में डाक सेवा का कार्य पैदल हरकारों, घुङसवारों अथवा ऊँट सवारों से किया जाता था। कोटा राज्य में सरकारी और सार्वजनिक डाक व्यवस्था अलग-अलग थी। जोधपुर, जयपुर, उदयपुर आदि राज्यों में भी डाक सेवा की व्यवस्था थी। उदयपुर में इसे बामनी डाक कहा जाता था और इसे महाराणा स्वरूपसिंह (1841-61 ई.) ने शुरू किया था। राज्य की डाक के साथ जन-सामान्य को भी अपने पत्र इत्यादि भेजने की सुविधा थी। कोटा में एक तोले वजन के पत्र पर एक आना शुल्क लिया जाता था। बङे-बङे व्यापारियों की अपनी निजी डाक व्यवस्था थी।

राजस्थान के विभिन्न राज्यों में ब्रिटिश रेजीडेंसियों तथा एजेन्सियों की स्थापना के बाद धीरे-धीरे राजस्थान में भी ब्रिटिश सरकार के डाकघर स्थापित होने लगे। 1839 ई. में जोधपुर में ब्रिटिश रेजीडेन्सी की स्थापना के बाद वहाँ पहला ब्रिटिश डाकघर स्थापित हुआ। परंतु सार्वजनिक उपयोग की दृष्टि से ब्रिटिश डाक पद्धति की शुरूआत काफी विलंब से संभव हो पायी। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के समक्ष मुख्य रूप से दो शर्तें रखी – 1.) राज्य सरकार डाक सेवा की सुरक्षा कम शुल्क में डाक भेजने तथा राजकीय पत्रों पर सर्विस स्टाम्प लगाने की अनुमति दी गयी।

1866-67 ई. में जयपुर राज्य में 18 ब्रिटिश डाकघर स्थापित किये गये तथा डाक की सुरक्षा का प्रबंध किया गया। 1872 ई. में बीकानेर राज्य में सर्वप्रथम चूरू, रतनगढ और सूजानगढ में ब्रिटिश डाकघर स्थापित हुए। 1884 ई. में बीकानेर नगर में, 1873 ई. में कोटा में, 1874 ई. में बाँसवाङा में, 1876 ई. में झालावाङ में और 1885 ई. में जोधपुर राज्य में ब्रिटिश डाकघर स्थापित हुए। मार्च, 1888 ई. में जैसलमेर में भी डाकघर स्थापित हुए। 19 वीं शताब्दी के अंत तक राजस्थान के लगभग सभी राज्यों में भारत सरकार के सार्वजनिक डाकघर स्थापित हो चुके थे और तत्पश्चात् सभी राज्यों में डाक-सेवा का विस्तार कार्य भी आरंभ हुआ। एकीकृत राजस्थान के निर्माण के समय सभी राज्यों के जिला मुख्यालयों, महत्त्वपूर्ण कस्बों व तहसील मुख्यालयों तक डाक सेवा विस्तारित हो चुकी थी।

संचार व्यवस्था की उन्नति के लिये तार-सेवा स्थापित की गयी। 1864 ई. में आगरा-अजमेर के बीच तार व्यवस्था आरंभ हो गयी। इसी वर्ष अजमेर और जयपुर में भी तारघर स्थापित किये गये। 1889 ई. में जोधपुर और बीकानेर राज्यों में भी तार-सेवा आरंभ की गयी। 1892 ई. में देवली से कोटा तार लाइन आरंभ हो गयी। 1895 ई. में उदयपुर में प्रथम तारघर स्थापित किया गया। 19 वीं सदी के अंत तक जैसलमेर को छोङकर सभी राज्यों में तारघर स्थापित हो चुके थे जिसका धीरे-धीरे विस्तार भी किया गया। 1950 ई. तक राजस्थान के सभी जिला मुख्यालयों, राज्यों की राजधानियों व सैनिक छावनियों को तार सेवा से जोङ दिया गया। तार सेवा के विस्तार से राजस्थान के व्यावसायिक केन्द्रों का भारत के प्रसिद्ध व्यावसायिक केन्द्रों से संपर्क स्थापित हो गया। 20 वीं शताब्दी के आरंभ में स्थापित टेलीफोन सेवा ने तो संचार व्यवस्था में एक क्रांति ही उत्पन्न कर दी थी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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