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भारत सरकार अधिनियम 1935 का इतिहास

भारत सरकार अधिनियम 1935

भारत सरकार अधिनियम 1935

1919 के सुधारों ने भारतीयों की आशाओं पर पानी फेर दिया, क्योंकि इन सुधारों में स्वतंत्रता की गंध भी नहीं थी। काँग्रेस ने उन्हें अपर्याप्त, असंतोषजनक और निराशापूर्ण घोषित किया। अतः भारतीय राष्ट्रवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध जद्दोजिहाद के लिए उठ खङे हुए। जिसके परिणामस्वरूप 1919 के सुधारों की जाँच करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1927 ई. में साइमन कमीशन भेजा।

साइमन कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे, अतः भारतीयों ने इसका तीव्र विरोध किया। फिर भी 1930 ई. में इसने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। इस रिपोर्ट ने भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया। भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने इस रिपोर्ट के विरुद्ध नेहरू रिपोर्ट तैयार की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसकी उपेक्षा की। फलस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र हो उठा और भारतीयों के असंतोष में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होने लगी।

ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए लंदन में तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये। इन गोलमेज सम्मेलनों में हुए विचार-विमर्श के आधार पर मार्च, 1933 ई. में ब्रिटिश सरकार ने भारत में भावी सुधारों का एक श्वेत-पत्र प्रकाशित किया। श्वेत-पत्र के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश संसद ने दोनों सदनों के सदस्यों की एक संयुक्त समिति नियुक्त की, जिसकी रिपोर्ट 1934 ई. में प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट तथा श्वेत-पत्र के प्रस्तावों के आधार पर 3 अगस्त, 1935 को ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम, 1935 पारित किया।

1935 के अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थी-

  • गृह सरकार के नियंत्रण में कमी
  • अखिल भारतीय संघ की स्थापना
  • केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना
  • संघीय विधान मंडल की निर्बलता
  • अधिकारों के विभाजन की नई पद्धति
  • संघीय न्यायालय की स्थापना
  • प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना
  • गवर्नरों और गवर्नर जनरल की मनमानी शक्तियाँ

1935 के अधिनियम की आलोचना

अँग्रेज विद्वानों ने इस अधिनियम की काफी प्रशंसा की है। प्रो.कूपलैण्ड ने इस अधिनियम को रचनात्मक राजनैतिक विचार की एक महान सफलता बताया है। उनके मत में, इस अधिनियम ने भारत के भाग्य को अँग्रेजों के हाथों से भारतीयों के हाथों में बदल दिया। कूपलैण्ड के इस विचार से भारतीय विद्वान सहमत नहीं हैं।

स्वयं इंग्लैण्ड में मजदूर दल के नेता एटली ने कहा था कि इस अधिनियम के संघीय स्तर पर रूढिवादी और प्रतिक्रियावादी तत्त्वों को इतनी अधिक प्रधानता दी गयी कि किसी भी प्रकार का प्रजातंत्रीय विकास संभव ही नहीं है। इस अधिनियम में औपनिवेशिक स्वराज्य की चर्चा तक नहीं की गयी। केन्द्र में आंशिक तथा प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गयी, लेकिन गवर्नरों तथा गवर्नर जनरल को विशेष शक्तियाँ देकर लोकतंत्र को खोखला बना दिया गया।

साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली राष्ट्रवाद के लिए अहितकर थी, फिर भी न केवल उसे कायम रखा गया, बल्कि उसका विस्तार भी कर दिया गया। हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करके देश के राजनैतिक वातावरण को विषैला बना दिया गया। देशी रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों को प्रांतों तथा ब्रिटिश भारत की जनता के विकास संबंधी मामलों में निर्णायक मत देने का अधिकार दे दिया गया। भारतीयों को अपना स्वतंत्र संविधान बनाने का अधिकार नहीं था।

भारत की प्रगति का निर्णय करने का अधिकार इंग्लैण्ड की संसद को था। संघीय विधानसभा के लिए प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली भी स्थापित नहीं की गयी। यह एक महान अप्रजातांत्रिक कदम था, जो जान बूझकर उठाया गया था। केन्द्र में द्वैध शासन की व्यवस्था संघीय विचारधारा के प्रतिकूल थी। वैधानिक शक्तियों का बँटवारा भी सही नहीं था।

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