इतिहासमध्यकालीन भारत

मुहम्मद बहमनी शाह प्रथम | Muhammad Bahmani Shah I

मुहम्मद बहमनी शाह प्रथम (Muhammad Bahmani Shah I)

मुहम्मद बहमनी शाह प्रथम – 1358 ई. में अलाउद्दीन हसन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जफर खाँ मुहम्मद शाह प्रथम के नाम से सिंहासन पर बैठा। मुहम्मद बहमनी शाह प्रथम का संपूर्ण कार्यकाल एक ओर विजयनगर और दूसरी ओर तेलंगाना में कपाय नायक एवं उसके पुत्र विनायक देव से युद्ध करने में बीता। तेलंगाना के युद्ध में अंततः कपाय नायक को पराजित होकर गोलकुंडा के प्रदेश बहमनियों को समर्पित करने पङे और साथ ही अपना सिंहासन तख्त-ए-फिरोजा भी, जो बहमनियों का पीढियों तक राजसिंहासन रहा परंतु विजयनगर के साथ उसके युद्ध अनिर्णायक ही रहे।

मुहम्मद बहमनी शाह प्रथम का सबसे बङा योगदान बहमनी प्रशासनिक व्यवस्था को व्यवस्थित रूप देना था। उसने संपूर्ण बहमनी साम्राज्य को चार तराफों या अतराफों अर्थात् प्रांतों में विभाजित किया। ये प्रांत या तराफ थे — दौलताबाद, बरार, बीदर और गुलबर्गा।

इनमें प्रत्येक प्रांतपति को उसके विरुद विशेष से जाना जाता था, जैसे दौलताबाद का तराफदार मसनद-ए-आली, बरार का मजलिस-ए-आली, बीदर का आजम-ए-हुमायूँ और गुलबर्गा का मालिक नायब। इनमें गुलबर्गा का तराफ सबसे महत्त्वपूर्ण था। इसमें बीजापुर भी शामिल था और इसे सम्राट के सबसे विश्वासपात्र व्यक्ति को प्रदान किया जाता था।

इसी काल में बारूद का उपयोग पहली बार प्रारंभ हुआ, जिसने रक्षा-संगठन में एक नई क्रांति पैदा की। सेना के सेनानायक को अब अमीर-उल-उमरा कहा जाता था और उसकी नीचे बारबरदान होते थे, जो आवश्यकता के समय सेनाओं को इकट्ठा करते थे। इसी काल में संपूर्ण बहमनी प्रशासन को व्यवस्थित रूप दिया गया। मुहम्मद ने अपने शासन के अंतिम दस वर्ष प्रशासन को गठित करने और साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने में बिताए। वह बहमनी वंश के महानतम सुल्तानों में से एक था।

1375 ई. में मुहम्मद बहमनी शाह प्रथम की मृत्यु के बाद 22 वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल में क्रमशः पाँच सुल्तान सत्तारूढ हुए

1.) अलाउद्दीन मुहम्मद (1375-78 ई.),

2.) दाऊद (1378 ई.),

3.) मुहम्मद द्वितीय (1378-1397 ई.),

4.) गयासुद्दीन (1397ई.),

5.) शमसुद्दीन दाऊद (1397ई.)।

इसमें यदि हम मुहम्मद द्वितीय के 19 वर्ष के शासन के शांतिपूर्ण वर्षों को इस युग से निकाल दें, तो औसतन अन्य सुल्तानों ने कुछ माह तक ही शासन किया और शासकों का अपदस्थीकरण और उनकी हत्या का क्रम 1397 ई. में सुल्तान फिरोज के शासनकाल तक चलता रहा।

इन 22 वर्षों में बहमनी साम्राज्य के दिल्ली सल्तनत के साथ सारे संपर्क सूत्र समाप्त हो गए और दक्खिन में विदेशियों या अफाकियों के भारी मात्रा में आगमन से उत्तर से दक्षिण में आकर बसने वाले दक्खिनियों या धरीबों के मध्य भयंकर अंतर्विरोध का प्रारंभ हुआ।

अफाकियों के आगमन से बहमनी शासन एवं संस्कृति पर विदेशी, विशेषतः ईरानी, प्रभाव बढने लगा। इस प्रकार इस युग से बहमनी साम्राज्य पर विदेशियों, दक्खिनियों एवं हिंदुओं का मिश्रित प्रभाव पङा। परंतु इनमें दो वर्गों अर्थात् दक्खिनियों एवं अफाकियों (ईरानी, अरब और तुर्कों) के मध्य इस सीमा तक विद्वेष की वृद्धि हुई कि यह बहमनी साम्राज्य के विनाश का प्रमुख कारण बना।

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