इतिहासराजस्थान का इतिहास

मेवाङी चित्रकला शैली का इतिहास

मेवाङी चित्रकला शैली – मेवाङ में चित्रकला का उद्भव तो लगभग 2,000 ई.पू. में हो गया था, किन्तु 11 वीं शताब्दी तक हमें कोई ऐसे ठोस नमूने नहीं मिलते जो मेवाङ के चित्रकला के इतिहास को धारावाहिक रूप दे सकें। फिर भी इतना तो निश्चित है कि अरबों के आक्रमण के फलस्वरूप गुजरात के कलाकार भाग कर सबसे पहले मेवाङ में आये। चूँकि ये कलाकार अजंता परंपरा शैली में प्रशिक्षित थे अतः अजंता शैली के साथ स्थानीय शैली का सामंजस्य स्थापित करके चित्रकला को एक नवीन रूप प्रदान किया था। अजंता परंपरा का प्रभाव सर्वप्रथम मेवाङ में ही परिलक्षित हुआ था। राजस्थान में मेवाङ मध्यकालीन शैली का मुख्य केन्द्र था। 1260 ई. का श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि और 1423 ई. का सुपासनाह चरित्रम् तत्कालीन शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं, जिनमें पोशाकों व आभूषणों में अजंता परंपरा तथा गुजरात शैली का सामंजस्य स्पष्ट दिखाई देता है। इस शैली की मुख्य विशेषताएँ – गरुङ जैसी लंबी नाक, कौङी जैसी फटी हुई आँखें जिसमें एक आँख चेहरे की सीमा से बाहर अधर में लटकी हुई, घुमावदार लंबी अँगुलियाँ, चटकदार सीमित रंग (लील, पीला, काला), छाया और प्रकाश के सिद्धांतों का अभाव आदि हैं। स्री आकृतियों में उभरी हुई गोल छातियाँ, तीखी नाक व छोटी ठुड्डी दिखायी गयी हैं, जबकि पुरुष आकृतियों में उसका वक्ष विशाल और कमर शेर के समान बनायी गयी है।

मेवाङी चित्रकला शैली

16 वीं शताब्दी के अंत में इस शैली में भी परिवर्तन आने लगा। अब धीरे-धीरे चेहरे में सुघङता आने लगी, फटी-फटी आँखें मीनाक्षी हो गयी तथा अधर में लटकी हुई आँख लुप्त हो गयी, रंगों में विविधता आ गयी, आकृतियाँ भावना प्रधान होने लगी, अँगुलियाँ नेत्रों के समान वाचाल हो गयी और आँखें मछली के समान हो गयी। इन चित्रों में पेङ-पौधों का चित्रण अलंकरण के लिये किया गया, किन्तु जानवरों की आकृतियाँ अयथार्थ दिखायी देती हैं, आदमी की वेश-भूषा में टखने तक धोती, कंधे पर उत्तरीय, बाद में कटि पर चमकदार जामा, भिंचा हुआ पायजामा, कून्हेदार पगङी अथवा टोपी दिखाई देती है। औरतें घाघरा, बारीक कपफदार ओढनी, नाभि के ऊपर तक चिपकी हुई चोली, कर्णफू, गले में हार, हाथों में चूङियाँ, भूजबंद से लटकते हुए फुंदे व चोटियों में गुँथे मोती व फूलमालाएँ आदि पहने हुए चित्रित की गयी हैं। बलखाती रेखाओं द्वारा नदी का अंकन किया गया जिनमें कहीं-कहीं मछलियाँ या कमेल तैरते हुए दिखायी देते हैं। लाल रंग की पृष्ठभूमि से नीले, पीले, हरे और काले रंग की रूपाकृतियाँ उभारी गयी हैं। बादल गोलाकार बनाये गये हैं। कहीं-कहीं स्वर्ण रंग का प्रयोग हुआ है, जो फारसी प्रभाव को प्रकट करता है। प्रतापगढ में रचित और पंचशिखा मेवाङ की इस परिवर्तित शैली का आदर्श नमूना है।

17 वीं शताब्दी के आरंभ तक मेवाङ की अपनी एक शैली बन चुकी थी। महाराणा अमरसिंह ने चावंड में रागमाला का सेट वनवाया, जिसमें चटकदार रंगों का प्रयोग हुआ और इसकी कोणनुमा आकृतियाँ गुजरात शैली की याद दिलाती हैं। 1615 ई. में मेवाङ-मुगल संधि के बाद तो मेवाङी शैली में मुगल विशेषताओं का उत्तरोत्तर समावेश होने लगा। 1625 से 1652 ई. तक मुगल प्रभाव पूर्णतः परिपक्व हो गया। वस्तुतः यह काल मेवाङी चित्रकला का उत्कर्ष काल रहा है। 1640 ई. के आस-पास बने नायिका भेद के चित्र इस समय के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। मध्यकाल में भक्ति और प्रेम की जो धारा प्रवाहित हुई उसका प्रतिबिम्ब हमें उस काल के चित्रों में दिखाई देता है। महाराणा जगतसिंह (1628-1652 ई.) का काल इस दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण रहा। राधा-कृष्ण चित्रों के केन्द्र बिन्दु थे। भागवत पुराण की अनेक प्रतियाँ चित्रित हुई जिनमें साहेबदीन द्वारा चित्रित पुराण भागवत श्रेष्ठ है। रामायण भी मेवाङ का प्रिय विषय रहा है। 1649 ई. में मनोहर द्वारा चित्रित रामायण और 1651 ई. में चित्रित आर्ष रामायण की प्रति आज भी सुरक्षित है। इन चित्रों द्वारा यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि राजस्थानी और मुगल शैली किस सीमा तक एक-दूसरे में घुलमिल गयी थी। औरतों की वेशभूषा मेवाङी है, किन्तु रूपाकृतियाँ व स्थापत्य मुगल शैली के हैं। 1650 ई. के आस-पास बने रागनी वसंत के चित्र में रंगों का संयोजन मेवाङ शैली का है, लेकिन वेश-भूषा, विशेषकर कृष्ण की वेश-भूषा में मुगल प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। इसी शैली में चित्रित केशव की रसिक प्रिया जिसमें नायक-नायिका की मानसिक अवस्थाओं का बङा मार्मिक अंकन हुआ है, मेवाङ का ही नहीं वरन् सारे राजस्थान का आकर्षक विषय रहा है।

महाराणा जगतसिंह के काल में बने चित्रों की विशेषताएँ सफेद, लाल, पीले, हरे, गुलाबी, काले और लाजवर्द (एक प्रकार का नीला रंग जो फारस से भारत आया था) रंगों का चटकदार प्रयोग, समतल एकरंगीय पृष्ठभूमि में विरोधाभासी रंगों से उभरती रूपाकृतियाँ, स्रियों व पुरुषों की भारी नाक, अंडाकार चेहरे, मछली जैसी आँखें, पुरुष आकृतियाँ लंबी व पतले बदन की, किन्तु उनमें सादगी और भावना का समावेश, स्री आकृतियाँ ठिगनी आदि। पुरुषों की वेशभूषा में सादा गोल घेरदार जामा, स्रियों की वेशभूषा में फूल व बूटों से सज्जित छींट के लहँगे, कसी हुई चोलियाँ, पारदर्शक चिपकी ओढनी आदि देखाई जाती थी। महाराणा जगतसिंह की मृत्यु के बाद महाराणा राजसिंह (1652-1680 ई.) और माहाराणा जयसिंह (1680-1698 ई.) के काल में ये सभी शैलियाँ अपना चरम स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं। इस शैली में मुगल सजावट अधिक अधिक बढती चली गयी। इस काल में चित्रित ग्रन्थ रागमाला, बारहमासा, कादंबरी, एकादशी माहात्म्य, पृथ्वीराज री वेल आदि हैं, जिनमें श्रृंगारिकता तो झलकती है लेकिन तत्कालीन समाज की झाँकी भी दिखायी देती है। इस काल के चित्रों में मंडप बनाना, दरवाजों पर पर्दों का प्रदर्शन, आँगन पर कालीन का चित्रण मुगल शैली के अनुरूप है। रंगों में चिकनाहट और चमक मुगलों के उत्तरोत्तर प्रभाव को स्पष्ट करता है। 18 वीं शताब्दी में व्यक्ति-चित्र, दरबार का दृश्य, हरम की झाँकियाँ, सवारी और शिकार के दृश्य अब मेवाङी कलम के विषय बन गये। लेकिन धीरे-धीरे उनमें ओज और रंगों की चमक जाती रही। मेवाङी चित्रकला में भित्ति-चित्र की एक समृद्ध परंपरा रही है। मेवाङ के महाराणाओं के पुराने महलों में तथा सामंतों की हवेलियों में भित्ति-चित्रों के श्रेष्ठ नमूने आज भी देखे जा सकते हैं।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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