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राजपूतों द्वारा अकबर का प्रतिरोध

राजपूतों द्वारा अकबर का प्रतिरोध

राजपूतों द्वारा अकबर का प्रतिरोध – मारवाङ के राठौङ : राव चंद्रसेन – मालदेव और उसके उत्तराधिकारी राव चंद्रसेन ने अकबर के साथ सहयोग करने के स्थान पर उसका प्रतिरोध करना उचित समझा। सिंहासन पर बैठते ही अकबर ने मेवात के अफगान गवर्नर हाजीखाँ के विरुद्ध सेना भेजी।

हाजीखाँ वहाँ से भागकर मेवाङ आ गया और महाराणा ने उसे अजमेर सौंप दिया। थोङे दिनों बाद अकबर की सेना उसका पीछा करती हुयी अजमेर आ पहुंची और अजमेर पर अपना अधिकार जमा लिया। हाजीखाँ भागकर जैतारण आ गया। उसका पीछा करती हुई मुगल सेना जैतारण भी आ पहुँची और मारवाङ के इस परगने पर अधिकार कर लिया।

मालदेव इस समय अकबर से लङने की स्थिति में नहीं था। अतः बिना किसी प्रतिरोध के मुगल सत्ता का मारवाङ में प्रवेश हो गया। इसके बाद मारवाङ के मेङता परगने पर भी मुगलों का अधिकार हो गया।

7 नवम्बर, 1562 ई. को मालदेव का स्वर्गवास हो गया और उसका तीसरा पुत्र चंद्रसेन सिंहासन पर बैठा। मालदेव ने अपने बङे पुत्र राम को पहले ही निर्वासित कर दिया था और वह इस समय उदयपुर में था। दूसरे पुत्र उदयसिंह को राज्याधिकार से वंचित कर फलौदी की जागीर दी गयी।

अतः मालदेव की मृत्यु के बाद मारवाङ के राठौङों में गृह युद्ध अवश्यंभावी था। इस समय तक अलवर, नागौर, अजमेर, मेङता, जैतारण पर मुगलों का अधिकार हो चुका था। मालदेव के उच्चाधिकारियों में व्याप्त असंतोष एवं तनाव का लाभ उठाते हुए मुगलों ने जालौर दुर्ग भी हस्तगत कर लिया।

राजपूतों द्वारा अकबर का प्रतिरोध

1564 ई. के आसपास राम अकबर के दरबार में जा पहुँचा और चंद्रसेन के विरुद्ध सहायता की प्रार्थना की। अकबर ने तत्काल हुसैन कुली के नेतृत्व में एक शाही सेना जोधपुर पर आक्रमण करने को भेज दी। मई-जून में जोधपुर पर मुगलों का अधिकार हो गया और चंद्रसेन भाद्राजूण की तरफ चला गया।

अगले 6 वर्षों तक चंद्रसेन इधर-उधर भटकता रहा। इस अवधइ में चित्तौङ और रणथंभौर पर भी मुगलों का आधिपत्य हो गया था। आमेर के राजघराने के साथ अकबर का वैवाहिक संबंध भी कायम हो गया था। 1570 ई. में बीकानेर के राव कल्याणमल और बाद में जैसलमेर के रावल हरराय ने भी अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इन दोनों शासकों ने भी अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए।

ऐसी अवस्था में राव चंद्रसेन एक बार नागौर जाकर अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए। ऐसी अवस्था में राव चंद्रसेन एक बार नागौर जाकर अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ ताकि वह अपना राज्य पुनः प्राप्त कर सके। उसका बङा भाई उदयसिंह भी इस समय अकबर की सेवा में उपस्थित था।

अकबर के दरबार का वातावरण चंद्रसेन को पसंद नहीं आया और वह कुछ दिन बाद ही भाद्राजूण वापस लौट गया। फरवरी, 1571 ई. में अकबर ने उसके विरुद्ध सेना भेज दी जिसने भाद्राजूण पर अधिकार कर लिया। चंद्रसेन वहाँ से सिवाणा की तरफ चला गया। 1 मार्च, 1574 ई. में शाही सेना ने सिवाणा को घेर लिया।

दो वर्ष से संघर्ष के बाद मार्च, 1576 ई. में शाही सेना ने सिवाणा पर अधिकार कर लिया और चंद्रसेन अपने थोङे से साथियों के साथ पहाङों की शरण में चला गया और घात लगाकर मुगलों पर आक्रमण करता रहा। 16 जुलाई, 1579 ई. में उसने मुगलों से सोजत छीन लिया और अजमेर के आसपास के इलाकों में लूटमार करने लगा। इस पर अकबर ने पुनः उसके विरुद्ध सेना भेजी।

अब चंद्रसेन ने सारण के पहाङों में शरण ली और यहाँ रहते हुए 11 जनवरी, 1581 ई. में उसका देहांत हो गया। राव चंद्रसेन अकबरकालीन राजस्थान का पहला वीर शासक था, जिसने अपने राज्य की स्वाधीनता के लिये शक्तिशाली मुगलसत्ता को चुनौती दी। राव चंद्रसेन ने जिस स्वातंत्र्य की ज्योति को प्रज्ज्वलित किया था, उसका निर्वाह राणा प्रताप ने किया। इस अखंड ज्योति को अकबरी तूफान भी नहीं बुझा सका।

मेवाङ के सिसोदियों द्वारा मुगलसत्ता का प्रतिरोध

निष्ठावान सरदारों ने मिलकर साँगा के पुत्र उदयसिंह को मेवाङ का राणा घोषित कर दिया। 1540 ई. में घमासान युद्ध के बाद उदयसिंह का चित्तौङ पर अधिकार हो गया और बनवीर वहाँ से भाग निकला। गिरि-सुमेल युद्ध के बाद उदयसिंह को शेरशाह सूरी के आक्रमण का सामना करना पङा परंतु अपनी संपूर्ण स्थिति को परख कर उदयसिंह ने बिना लङे ही शेरशाह को आत्मसमर्पण कर दिया। शेरशाह के लौटते ही उदयसिंह ने मेवाङ को अफगानों के प्रभुत्व से मुक्त कर दिया।

1567 ई. में उदयसिंह को अकबर के आक्रमण का सामना करना पङा। उदयसिंह चित्तौङ दुर्ग की सुरक्षा का भार जयमल राठौह को सौंपकर गिर्वा की पहाङियों की तरफ चला गया ताकि मुगलों के विरुद्ध छापामार युद्ध जारी रखा जा सके। जयमल की मृत्यु के बाद 25 फरवरी, 1568 ई. को चित्तौङ पर मुगलों का अधिकार हो गया ।

इसके पूर्व हजारों राजपूत स्रियों ने जौहर रचाया। चित्तौङ पर अधिकार हो जाने के बाद अकबर के आदेश से चित्तौङ के हजारों निर्दोष लोगों को मौत के घात उतार दिया गया । आसपास के नगरों तथा गाँवों को जलाकर राख कर दिया गया। चित्तौङ के हाथ से निकल जाने का उदयसिंह को गहरा धक्का लगा।

परंतु उसने मुगलों की अधीनता में जाना स्वीकार नहीं किया। आगामी कुछ वर्षों तक कुम्भलगढ, गोगुन्दा तथा आसपा के क्षेत्रों में अपनी सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने में लगा रहा और 28 फरवरी, 1572 ई. को उसका स्वर्गवास हो गया।

अकबर द्वारा प्रताप को समझाने के प्रयास

अकबर को प्रताप के विचारों की जानकारी थी, फिर भी, उसने शस्र-बल का प्रयोग करने से पहले उसको समझाने का प्रयास किया ताकि बिना रक्तपात के वह संपूर्ण राजस्थान पर अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित कर सके। प्रताप के राज्याभिषेक के चार महीने बाद अकबर ने अपने विश्वस्त एवं राजनीतिक वार्ताओं में दक्ष अमीर जलालखाँ को प्रताप के पास भेजा परंतु जलालखाँ को अपने मिशन में सफलता नहीं मिली।

अप्रैल, 1573 ई. में उसने आमेर के राजकुमार मानसिंह को उदयपुर जाकर प्रताप को समझाने का दायित्व सौंपा। शायद अकबर ने सोचा होगा कि इस प्रकार की वार्ता के लिये राणा प्रताप की जाति एवं धर्म का प्रभावशाली व्यक्ति अधिक उपयुक्त सिद्ध होगा।

मानसिंह डूंगरपुर को जीतने के बाद सलूम्बर होता हुआ उदयपुर पहुँचा और जून, 1537 ई. में उसने राणा प्रताप से भेंट की। दोनों की मुलाकात उदयसागर पाल पर हुई। प्रताप ने परंपरागत सम्मान के साथ मानसिंह का स्वागत किया। (डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार दोनों की भेंट गोगुन्दा में हुई थी, जबकि डॉ. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव और कर्नल टॉड के अनुसार उदयसागर की पाल पर हुई थी।)।

मानसिंह ने प्रताप को समझाया कि वह अकबर की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार कर उसके साथ मैत्रीपूर्ण समझौता करने के लिये उसके दरबार में उपस्थित होने के लिये चले। लेकिन प्रताप जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था।

राजस्थान के वीररस-प्रधान साहित्य में दोनों की इस भेंट को अलग-अलग रंग देकर चित्रित किया गया। अमरकाव्य वंशावली, राजरत्नाकर और रावजी राणाजी की बात आदि रचनाओं में कहा गया है कि प्रताप ने मानसिंह के सम्मान में उदयसागर पर एक भोज का आयोजन किया, परंतु वह स्वयं उसमें सम्मिलित नहीं हुआ और अपने बङे पुत्र अमरसिंह को भेज दिया।

जब मानसिंह ने प्रताप की अनुपस्थिति का कारण पूछा तो उसे कह दिया गया कि राणा की तबियत ठीक नहीं है। बुद्धिमान मानसिंह को यह समझते देर न लगी कि आमेर राजघराने द्वारा अकबर के साथ वैवाहिक संबंध किये जाने के बाद से ही सिसोदियों ने उसे अछूत मानते हुए उनके साथ बैठकर भोजन न करने का निश्चय कर रखा है, अतः प्रताप द्वारा भोज में सम्मिलित होने का सवाल ही नहीं था।

फिर भी, कुँवर मानसिंह ने राणा की अनुपस्थिति को घोर अपमान समझा। वह बिना भोजन किये हुए उठ खङा हुआ और क्रोधित होकर युद्ध की धमकी दी। इस पर अमरसिंह ने प्रत्युत्तर में कहा कि वह अकेला आये अथवा अपने फूफा अकबर के साथ, युद्धभूमि में उनका उचित स्वागत किया जायेगा। मानसिंह के जाते ही सभी बर्तनों तथा भोजन स्थल को धोया गया, क्योंकि मानसिंह के स्पर्श से सभी अपवित्र हो गए थे।

कर्नल टॉड तथा श्यामलदास ने भले ही चारणों द्वारा लिखित इस घटना को सत्य माना हो, आधुनिक शोधकर्ताओं से पता चलता है कि चारणों ने प्रताप और मानसिंह की भेंट को रोचक बनाने के लिये इस प्रकार की मनगढन्त कहानी का निर्माण कर लिया। ताकि प्रताप को मानसिंह की तुलना में अधिक प्रतिष्ठित एवं सम्मानित बतलाया जा सके। 17 वीं सदी के ग्रन्थों में भोजन के समय अनबन का उल्लेख मिलता है, परंतु किसी भी समकालीन रचना से भोज के अवसर पर घटित घटना की पुष्टि नहीं होती। वास्तव में यदि ऐसा हुआ होता तो राजपूतों में उसी समय तलवारें खिंच गयी होती।

यह केवल मानसिंह के अपमान की बात नहीं थी, अपितु सम्राट अकबर के लिये भी अपमानजनक बात थी और इसलिए अकबर इस घटना के आगामी तीन वर्ष तक चुपाचाप बैठा रहने वाला शासक नहीं था और न ही कुछ महीनों बाद राजा भगवन्त दास को प्रताप को समझाने के लिये भेजता। अबुल फजल और बदायूँनी ने भी मानसिंह के अपमान का उल्लेख नहीं किया है। डॉ.गोपीनाथ शर्मा भी इसे सही नहीं मानते हैं।

डॉ.रघुवीर सिंह के शब्दों में, अनेक युगों बाद प्रचलित होने वाली राणा प्रताप संबंधी अनेकानेक कल्पनापूर्ण कथाओं में ही इसकी भी गणना होनी चाहिए।

मानसिंह के बाद अकबर ने अपने राजदूत की हैसियत से राजा भगवन्त दास को सितंबर-अक्टूबर, 1753 ई. में राणा प्रताप के पास भेजा। लेकिन राजा भगवन्त दास को भी अपने राजनैतिक मिशन में सफलता नहीं मिल पाई।

दिसंबर, 1573 ई. में टोडरमल ने प्रताप से मुलाकात की, परंतु प्रताप के निश्चय में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया। इसके साथ ही समझौते का द्वार बंद हो गया और युद्ध के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया।

अकबर किसी भी कीमत पर स्वतंत्र मेवाङ के अस्तित्व को सहन करने के लिये तैयार न था तो प्रताप अपनी तथा अपने राज्य की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिये अंतिम क्षण तक संघर्ष करने के लिये कृत-संकल्प था। यह दो भिन्न आदर्शों की सर्वोच्चता के मध्य संघर्ष था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
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