इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजपूत राज्यों द्वारा संधियाँ करने के कारण

राजपूत राज्यों द्वारा संधियाँ करने के कारण – जॉन माल्कम, मिल और विल्सन तथा कर्नल टॉड आदि अँग्रेज विद्वानों की मान्यता है कि राजपूत राज्यों ने मराठों और पिण्डारियों के आक्रमणों तथा उनकी लूटमार से अपने राज्यों को बचाने के लिये कंपनी सरकार से संधियाँ कर ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार किया था। ओझा, श्यामलदास, डॉ.एम.एस.मेहता और डॉ. कालूराम शर्मा और डॉ. प्रकाश व्यास ने उनके मत का खंडन करते हुए विभिन्न राज्यों की सामंती समस्या को ही कंपनी सरकार से संधियाँ करने का प्रमुख कारण माना है। वस्तुतः राजपूत राज्यों से संधियाँ संपन्न होने से पूर्व मराठों व पिण्डारियों की शक्ति को पूर्णतः कुचल दिया गया। दिसंबर, 1817 ई. तक सिन्धिया ने अँग्रेजों से नयी संधि कर ली थी, भोंसले पूर्णतः पराजित होकर जोधपुर भाग आया था और जनवरी, 1818 ई. में होल्कर ने भी आत्मसमर्पण कर दिया था। कोटा, जोधपुर और उदयपुर को छोङकर सभी राज्यों ने मराठों के समर्पण के बाद संधियाँ की थी। फिर, राजपूत राज्यों को तो, कंपनी सरकार को उतना ही खिराज देना स्वीकार करना पङा था, जितना वे मराठों को अब तक अनियमित रूप से देते आये थे। अतः इन राज्यों को कोई आर्थिक राहत भी नहीं मिली थी।

अब केवल पिण्डारियों की लूटमार और आतंक का प्रश्न रह जाता है। पिण्डारियों के प्रमुख चार नेताओं – करीमखाँ, वसील मुहम्मद, चीतू और अमीरखाँ में से केवल अमीरखाँ का राजपूत राज्यों से संपर्क रहा था। आरंभ में अमीरखाँ अलग से कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं था, बल्कि होल्कर का मुख्य सेनानायक होने के कारण राजपूत राज्यों के संपर्क में आया था। होल्कर की शक्ति क्षीण होने के बाद उसने अपना स्वतंत्र दल गठित कर लिया था। कृष्णाकुमारी की घटना के समय सर्वप्रथम जयपुर राज्य ने उसकी सेवाओं को क्रय किया था, किन्तु जयपुर राज्य से इच्छित धनराशि न मिलने पर और जोधपुर राज्य द्वारा अधिक धन का प्रलोभन देने पर वह जोधपुर राज्य के पक्ष में चला गया था। राजपूतों के विभिन्न पक्षों का सहयोग करते हुए उसे राजपूत राज्यों की आंतरिक कमजोरियों का भी ज्ञान हो गया था, जिससे उसका हौसला बढ गया था और उसने राजपूत राज्यों में भयंकर लूटमार की तथा राजस्थानी शासकों से अधिक से अधिक धन वसूल करने का प्रयास किया। परंतु 17 नवम्बर, 1817 ई. को अमीरखाँ ने अँग्रेजों से संधि कर ली थी, जिसके अंतर्गत उसे टोंक-रामपुरा का स्वतंत्र शासक स्वीकार कर उसे नवाब की उपाधि प्रदान की गयी, इसके बदले में अमीरखाँ ने वचन दिया कि केवल आंतरिक व्यवस्था के लिये आवश्यक सेनाओं को छोङकर वह अपनी समस्त सेना भंग कर देगा, आंतरिक व्यवस्था के लिये आवश्यक तोपें व सैनिक सामान को छोङकर अपनी समस्त तोपें व सैनिक सामान ब्रिटिश सरकार को समर्पित कर देगा और किसी अन्य राज्य पर आक्रमण नहीं करेगा। इन तथ्यों से स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि राजपूत राज्यों द्वारा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने से पूर्व की अमीरखाँ ने भी अँग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था और राजस्थान में पिण्डारी आतंक समाप्त हो चुका था।

राजपूत शासकों द्वारा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने का मुख्य कारण सामंती समस्या थी। राजपूत शासक अपने सामंतों की शक्ति को नियंत्रित करने में असमर्थ थे और इसके लिए किसी सर्वोच्च सत्ता का सहयोग प्राप्त करना अनिवार्य समझते थे। इसके लिये मराठों से पर्याप्त सहयोग और समर्थन नहीं मिल पाया था और मराठों के हस्तक्षेप के बाद तो सामंतों की शक्ति में आशातीत वृद्धि हो गयी थी, क्योंकि मूल्य चुकाने के बाद तो सामंतों को भी मराठों की सहायता उपलब्ध हो सकती थी। सामंतों में भी परस्पर विरोधी गुट बन गये और उनकी पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता के कारण राज्य में अव्यवस्था फैल गयी थी। जोधपुर के सामंतों के दो प्रभावशाली गुटों में से एक ने अमीरखाँ को भारी रकम देकर अपने विरोधी सत्तारूढ दल के आयस देवनाथ और सिंघवी इन्द्रराज का वध करवा दिया, लेकिन महाराजा मानसिंह हत्यारों का बाल भी बाँका न कर सका। जयपुर राज्य में माचेङी (बाद में अलवर) के ठाकुर प्रतापसिंह को तो जब भी अवसर मिला, उसने राज्य की खालसा भूमि को हथियाने का प्रयास किया। खेतङी के ठाकुर अभयसिंह और सीकर के लक्ष्मणसिंह के बीच प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेने हेतु गहरी प्रतिस्पर्द्धा चली। जब लक्ष्मणसिंह का गुट मिसर गणेश नारायण को दीवान पद से हटाने में सफल हो गया तो गणेश नारायण ने अभयसिंह के साथ मिलकर सीकर के क्षेत्र में लूटमार आरंभ कर दी। शेखावाटी के ठाकुर श्यामसिंह ने तो ब्रिटिश क्षेत्रों के सीमावर्ती कुछ गाँवों को लूट लिया और जब ब्रिटिश सरकार ने जयपुर महाराजा को इसकी शिकायत की तो जयपुर महाराजा ने उत्तर दिया कि वह श्यामसिंह को नियंत्रित करने अथवा सजा देने में असमर्थ है। इसी प्रकार उदयपुर में भी चूँडावतों और शक्तावतों के बीच भयंकर प्रतिद्वन्द्वि रही। चूँडावतों ने शक्तावतों के पक्षपाती राज्य के प्रधान सोमचंद गाँधी की हत्या कर दी, किन्तु शक्तिहीन महाराणा हत्यारों का बाल भी बाँका नहीं कर सका। मराठों ने भी कभी चूँडावतों का तो कभी शक्तावतों का साथ दिया। फलस्वरूप मेवाङ राज्य वीरान हो गया तथा राज्य की शक्ति पूर्णतः नष्ट हो गयी। कई सामंतों ने खालसा भूमि हङप ली और भोम रखवाली नामक कर, जो महाराणा को प्राप्त होता था, वह सामंतों ने वसूल करना आरंभ कर दिया तथा माल निकासी पर चुँगी लगा दी। शक्तिहीन महाराणा के लिये अपने सामंतों पर नियंत्रण रखना संभव नहीं रहा। बीकानेर का राज्य यद्यपि मराठों व पिण्डारियों की लूटमार से बचा रहा, लेकिन यहाँ के शासकों को भी अपने सामंतों से संघर्ष करना पङा। 1809 ई. में मांडवे, बाँदापुर, मैणासर, मुकरमा, सीधमुख, भाद्रा आदि के सामंतों ने विद्रोह कर दिया। 1813 ई. में देपासलर के ठाकुर के नेतृत्व में देपालसर, सीधमुख, जसाणे, भाद्रा, दद्रेवा, रावतसर, पणीरोत, सरसला आदि के सामंतों ने विद्रोह कर दिया। इन सामंती विद्रोहों का दमन, अँग्रेजों से सैनिक सहायता प्राप्त होने पर ही, किया जा सका।

इस विवरण से स्पष्ट है कि शक्तिहीन राजपूत शासक अपने सामंतों को नियंत्रित करने में असमर्थ थे और शासकों का अपने सामंतों पर कोई प्रभाव ही नहीं रह गया था। इसलिए राजपूत शासकों के समक्ष मराठों व पिण्डारियों के आतंक की समस्या नहीं थी, बल्कि समस्या थी अपने सामंतों को नियंत्रित कर राज्य में शांति एवं व्यवस्था स्थापित करने की। इस समस्या का समाधान वे किसी बाहरी शक्ति की सहायता के बिना नहीं कर सकते थे। ऐसी स्थिति में उनके समक्ष ब्रिटिश संरक्षण स्वकार करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया था। बीकानेर राज्य से हुई संधि की सातवीं धारा में तो स्पष्ट रूप से कहा गया कि अँग्रेज सरकार महाराजा के विरुद्ध विद्रोह करने वाले एवं उनकी सत्ता को न मानने वाले ठाकुरों तथा राज्य के पुरुषों को उनके अधीन करेगी। इसी प्रकार, मेवाङ राज्य से संधि होने के बाद मेवाङ में नियुक्त प्रथम पोलीटीकल एजेण्ट कर्नल टॉड को तो यह विशेष हिदायत दी गयी थी कि वह (टॉड) संपूर्ण मेवाङ में महाराणा का आधिपत्य पुनः स्थापित करे, क्योंकि यहाँ के सामंतों पर महाराणा का कोई प्रभाव भी नहीं रह गया है। इसी तरह, जयपुर राज्य से संधि होने के बाद स्वयं ऑक्टर लोनी जयपुर गया और उसने जयपुर में पहला कार्य सामंतों को नियंत्रण में लाने का किया। इन समस्त विवरणों को देखते हुए यह कहना तर्कसंगत होगा कि राजपूत शासकों ने मराठों व पिण्डारियों के भय से नहीं बल्कि अपने सामंतों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार किया था, ताकि उनकी निरंकुश सत्ता बनी रहे।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Related Articles

error: Content is protected !!