आधुनिक भारतइतिहास

सामाजिक – आर्थिक प्रणालियां

सामाजिक - आर्थिक प्रणालियां

सामाजिक – आर्थिक प्रणालियां

अयगार प्रणाली

सामाजिक - आर्थिक प्रणालियां

यह एक सामाजिक आर्थिक प्रणाली थी जिसकी उत्पत्ति प्राचीन काल में कर्नाटक क्षेत्र में हुई तथा मध्यकाल में इसका प्रसार तमिल तथा आंध्र क्षेत्रों में हुआ।

इसका अर्थ यह था कि कुछ वस्तुओं तथा सेवाओं के संदर्भ में ग्रामीण जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति उद्यमियों के एक वर्ग द्वारा होती थी जिनका भुगतान उनके द्वारा किये गए कार्य से नहीं बल्कि सकल कृषि-उत्पाद के एक अंश से होता था जिसे अयम कहा जाता था। अतः प्रशासनिक कर्मचारियों सहित सभी ग्रामीण शिल्पकार तथा मजदूर अयगार (अयम प्राप्त करने वाले) कहे जाते थे।

बलूता प्रणाली

यह अयगार की तरह की प्रणाली थी जो मध्यकाल में प्रचलित थी। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक कृषक परिवार के अनाज तथा फल-फूल के उत्पादन का एक निश्चित हिस्सा, जिसे बलूता कहा जाता था, लगभग 12 ग्रामीण सेवकों तथा शिल्पकारों के जीवन निर्वाह के लिये निर्धारित कर दिया जाता है।

इन सेवकों तथा शिल्पकारों को बलूतादार (बढई, लुहार, कुम्हार, नाई, धोबी, मोची, रस्सी बनाने वाले, महार इत्यादि) कहा जाता था। ये व्यक्तिगत कृषक परिवारों द्वारा नियुक्त नहीं किये जाते थे (जैसा कि जजमानी प्रणाली में था) बल्कि इनकी नियुक्ति पूरे गांव द्वारा होती थी तथा यह अपेक्षा की जाती थी कि ये आवश्यकता पङने पर अपनी जाति के अनुरूप ग्रामीणों की सेवा करेंगे।

जजमानी प्रणाली

यह विशेष ग्रामीण परिवारों में निर्धारित अधिकारों तथा दायित्वों की परस्पर प्रणाली थी। इस प्रणाली के अंतर्गत जजमानी परिवार, साधारणतः भूमि-पति, ग्रामीण शिल्पकार तथा सेवक परिवारों से (जिन्हें कमीन कहा जाता था) वस्तु तथा सेवाएं प्राप्त करते थे तथा उन्हें परंपरागत भुगतान करते थे।

यह मध्यकालीन भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की विशेषता थी, हालांकि इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएं अत्यधिक थी। इस प्रणाली में उत्पादन निर्वाह तथा परंपरागत वितरण के स्तर तक होता था, बाजार के लिये नहीं। इसके विकास तथा इसकी निरंतरता का कारण संभवतः यह था कि इससे बार-बार आने वाले अकाल से सुरक्षा प्राप्त हुई।

कर प्रणालियां तथा प्रचलन

बटाई

यह मध्यकालीन भारत में प्रचलित कर निर्धारण तथा संग्रहण की कई विधियों में से एक थी। इस प्रणाली में कई तरीकों द्वारा कटाई के पहले तथा बाद में फसल का विवरण कृषक तथा सरकार के बीच होता था। इसे गल्ला-बख्शी प्रणाली भी कहा जाता था।

भागीदारी

इस प्रणाली के अंतर्गत भागदार (साझेदार) व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक रूप से सरकार को कर देने के लिये जिम्मेदार थे।

दहसाला

यह एक प्रकार की कर प्रणाली थी जिसमें पिछले 10 वर्षों में उत्पादित विभिन्न फसलों का औसत तथा मूल्य का औसत निकाल कर औसत उत्पादन का एक तिहाई, नकद रूप में, राज्य द्वारा भूमि कर के रूप में लिया जाता था। इसकी शुरूआत अकबर ने अपने शासन काल के 24 वें वर्ष में की थी।

दानबंदी

यह एक प्रकार की कर प्रणाली थी जिसमें अनुमानित फसल, न कि वास्तविक फसल (जैसा कि बटाई, प्रणाली में होता था), कृषक तथा सरकार अथवा उसके एजेंटों के बीच बांटी जाती थी। ब्रिटिश काल के दौरान स्थायी बंदोबस्त के तहत जमींदार अनुमानित हिस्से का भुगतान अनाज के रूप में मांग करते थे जो कृषकों के लिये नुकसानदेह सिद्ध हुआ।

इजरा

इस प्रचलन के अंतर्गत खेती करने अथवा कर संग्रहण का अधिकार सरकार द्वारा जमींदारों के माध्यम से अस्थायी तौर पर सर्वाधिक बोली लगाने वाले को सौंपा जाता था। इसके बदले इजारदार को कुछ अन्य लाभों के अलावा 4 से 6 प्रतिशत कमीशन मिलता था।

इस प्रचलन की उत्पत्ति शाहजहाँ के शासन काल में हुई, औरंगजेब के काल में यह आम हो गया। परवर्ती मुगल शासकों के दौरान इसका व्यापक प्रचलन हो गया था। अंग्रेजों ने भी पूर्वी भारत में कुछ समय के लिये इस प्रचलन का प्रयोग किया।

कानकूत

यह कर निर्धारण की एक विधि थी जिसमें कृषक तथा सरकारी अधिकारी नमूने के सर्वेक्षण के आधार पर उत्पादन का आकलन परस्पर सहमति के आधार पर करते थे तथा उसी हिसाब से सरकार का हिस्सा निर्धारित किया जाता था।

महलवारी

यह भूमिकर आकलन की एक प्रणाली थी जिसमें आकलन की इकाई महल अथवा एक क्षेत्र था, न कि व्यक्तिगत भूखंड। इस प्रणाली में भूमिकर देने का दायित्व सामूहिक था तथा समय-समय पर करों की दर में परिवर्तन का अधिकार सरकार के पास सुरक्षित था। अंग्रेजों ने इसका प्रचलन गंगा की घाटी, पंजाब, उत्तर-पश्चिम प्रांत तथा मध्य भारत के हिस्सों में प्रारंभ किया।

नसक

इस विधि के अंतर्गत कृषक द्वारा दिए जाने वाले कर का निर्धारण पूर्व अनुभवों के आधार पर किया जाता था।

रैयतवारी

यह कर बंदोबस्त की एक विधि थी जिसमें व्यक्तिगत कृषक (रैयत) को उसकी भूमि का मालिक स्वीकार किया गया। इस प्रणाली में समय-समय पर कर पुनः निर्धारण का अधिकार सरकार के पास सुरक्षित था। अंग्रेजों ने इसका प्रचलन मद्रास प्रेसीडेन्सी तथा बाद में बॉम्बे प्रेसीडेंसी में प्रारंभ किया।

जब्ती

इस प्रणाली में भूमिकर का निर्धारण तनब (बांस की छङी को लोहे की कङी से जोङकर बनाया गया यंत्र) की सहायता से माप के आधार पर किया जाता था। इसे बंदोबस्त प्रणाली भी कहा जाता है तथा इसका प्रचलन अकबर ने अपने शासनकाल के 15 वें वर्ष में प्रारंभ किया था।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

Related Articles

error: Content is protected !!