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अफीम युद्ध और चीन में यूरोपीय प्रभाव की स्थापना

अफीम युद्ध और चीन में यूरोपीय प्रभाव की स्थापना

चीन पूर्वी एशिया का एक विशाल देश है और उसकी स्थापना प्राचीनतम एवं सर्वाधिक समृद्ध सभ्यताओं में से एक है। इस विशाल देश पर अनेक राजवंशों ने शासन किया। 17 वीं शताब्दी के मध्य में मंचू राजवंश ने चीन पर अधिकार कर लिया, जिसका शासन 1911-12 में गणराज्य की स्थापना तक जारी रहा।

अफीम युद्ध का प्रारंभ : यूरोप के साथ चीन का प्रारंभिक संपर्क

अफीम युद्ध

1275 ई. में वेनिस का व्यापारी तथा यात्री मार्को पोलो अपने पिता और चाचा के साथ चीनी सम्राट कुबलई खाँ के दरबार में जा पहुँचा और लगभग 17 वर्ष तक चीन में रहा। स्वदेश लौटने के बाद उसने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक द बुक ऑफ मार्को लिखी। इस पुस्तक ने पहली बार यूरोपवासियों के सामने चीन का पूरा विवरण प्रस्तुत किया। पुस्तक में चीन की समृद्धि तथा धन-वैभव का आकर्षक विवरण दिया गया था। परिणामस्वरूप यूरोप की लोलुप दृष्टि चीन की तरफ उठी और यूरोपीय लोग चीन के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करने के लिये उत्सुक हो उठे।

इन दिनों में चीन पूर्णतः आत्मनिर्भर था और अपने आपको अजेय समझता था। रोम के सौदागर प्रायः रेशम का व्यापार करने चीन आया करते थे। कभी-कभी अरबों व फारस वालों पर चीन के सम्राट की कृपा हो जाया करती थी, परंतु चीनी लोग विदेशियों से किसी प्रकार का संपर्क बढाना ही नहीं चाहते थे, फिर भी 16 वीं शताब्दी में यूरोपीय व्यापारियों ने चीन में अपने पैर जमाने प्रारंभ कर दिया।

चीन के लाख विरोध के बावजूद वे चीन के दक्षिणी किनारे पर जोंक की तरफ चिपक गए, जिसके फलस्वरूप धीरे-धीरे चीन की एकान्तता टूटने लगी।15 वीं और 16 वीं शताब्दी में जब यूरोपीय देशों ने पूर्वी देशों के समुद्री मार्ग खोजने का काम प्रारंभ किया तब 1511 ई. में कुछ पुर्तगाली मल्क्का पहुँचे और 1514 ई. में मलक्का से चीन पहुँचे।

1517 ई. में एक पुर्तगाली व्यापार-मंडल कैण्टन आया लेकिन 1522 ई. में चीनियों ने कैण्टन की पुर्तगाली व्यापारिक चैकी पर हमला कर उसे नष्ट कर दिया। चीनियों व पुर्तगालियों के बीच होने वाले संघर्ष के बाद भी 1557 ई. में उन्हें मकाओ द्वीप में आने – जाने और व्यापार करने की अनुमति मिल गई। पुर्तगालियों के प्रवेश के बाद 1575 ई. में स्पेनवासी, 1604 ई. में डच तथा 1637 ई. में अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में पदार्पण किया और वे कैण्टन में बस गए।

चीन सरकार ने इन विदेशी व्यापारियों पर अनेक कठोर प्रतिबंध लगाए। असीमित कठिनाइयों और अपमान के बाद भी वे लोग चीन से चिपके रहे। 1689 ई. में रूस ने चीन के साथ नेरशिन्स्क की संधि द्वारा संबंध स्थापित किया, किन्तु रूसी व्यापार को भी विशेष सुविधा न मिलने के कारण दोनों के बीच का व्यापार प्रायः ठप हो गया।

शुरू-शुरू में यूरोपीय देशों के साथ व्यापार में चीन का पलङा भारी रहा। चीन की अर्थव्यवस्था सुदृढ थी। वह घरेलू मामलों में आत्मनिर्भर और बाहरी मामलों में निर्यात प्रधान थी, किन्तु धीरे-धीरे व्यापार का यह संतुलन बदलने लगा, जिसका मुख्य कारण अफीम का व्यापार था। तांग-युद्ध (618-906ई.) में अफीम दवा के तौर पर भारत से चीन आई थी।

1600 ई. के बाद चीन में अफीम दवा के तौर पर भारस से चीन आई थी। 1600 ई. के बाद चीन में अफीम का मलीदा रखकर पीने लगे और शीघ्र ही वे बुरी तरह इसके आदी हो गये। अतः चीन में अफीम का व्यापार बढता गया। इस व्यापार में अंग्रेज अग्रणी रहे। वे भारत से पेटियों में अफीम भरकर चीन पहुँचाने लगे।

1800 ई. तक चीन में अफीम का आयात चार हजार पेटी (एक पेटी का वजन 133 पौण्ड होता था) हो गया तथा 1839 ई. तक यह तीस हजार पेटी हो गया। अफीम के व्यापार में वृद्धि से चीन सरकार के सामने न केवल गंभीर सामाजिक समस्या ही उत्पन्न हुई बल्कि विदेशी व्यापार के नियमन का भी जटिल प्रश्न पैदा हो गया। अब चीन को प्रतिवर्ष विदेशी व्यापार में दो लाख पौण्ड का घाटा होने लगा और चीन से सोना-चाँदी निकलकर बाहर जाने लगा।

अतः चीन की सरकार ने 1796 ई. और 1816 ई. में अफीम के आयात और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया, परंतु तस्कर व्यापारियों ने प्रतिबंध को निष्प्रभावी बना दिया।

अफीम युद्ध का प्रारंभ : ब्रिटेन और चीन का संबंध

यूरोपीय व्यापारियों में अफीम से सर्वाधिक लाभ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज व्यापारियों ने कमाया। ज्यों-ज्यों इस कंपनी का व्यापार उन्नति करता गया, त्यों-त्यों यह कंपनी व्यापारिक प्रतिबंध हटाने, व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने तथा इसके लिये एक लिखित संधि की माँग करने लगी।

कंपनी की ओर से ब्रिटिश सरकार ने भी चीन सरकार से पत्र-व्यवहार किया, किन्तु चीन सरकार ने उस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। अतः 1793 ई. में ब्रिटिश सरकार ने लार्ड मेकार्टन को अपना दूत बनाकर भेजा। चीन के सम्राट ने उसके साथ केवल यह रियायत की कि उसे तीन बार घुटने टेकने और नौ बार माथा टेकने से मुक्त कर दिया और सिर्ङ एक घुटना टेककर सलाम करने की स्वीकृति दे दी।

ब्रिटिश सम्राट जार्ज तृतीय ने जो उपहार भेजे थे, उन्हें राजकर के रूप में स्वीकार कर लिया गया, परंतु व्यापारिक संधि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया।

एमहर्स्ट मिशन

1815 ई. में नेपोलियन के पतन के बाद ब्रिटेन यूरोपीय समस्याओं से मुक्त हो गया था और अब वह चीन के साथ अपने व्यापार पर पूरा ध्यान दे सकता था, अतः 1816 ई. में ब्रिटेश सरकार ने लार्ड एमहर्स्ट को अपना दूत बनाकर चीन भेजा ताकि यह संधि के द्वारा व्यापार के मसले को हल कर सके।

लार्ड एमहर्स्ट की एक टाँग खराब थी, अतः उसने घुटने टेककर दंडवत प्रणाम करने से इन्कार कर दिया। इसी कारण चीनी अधिकारियों ने उसे सम्राट से मिलने की अनुमति नहीं दी और उसे सम्राट से मिले बिना ही वापस आना पङा।

यूरोपीय व्यापारियों की कठिनाइयाँ

19 वीं शता. के तीसरे दशक तक कैण्टन में यूरोपीय व्यापारियों की कठिनाइयाँ बहुत बढ गयी। 1832 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी का चार्टर समाप्त हो जाने से कंपनी का पूर्वी व्यापार से एकाधिकार समाप्त हो गया। अब हर तरह के व्यापारी चीन पहुँचने लगे. जिनमें से अधिकांश उद्दंड और उपद्रवी होते थे। अतः वे हमेशा चीनियों से लङते – झगङते रहते थे और कभी-कभी इन झगङों में मारे भी जाते थे।

जब भी कोई मौत की घटना होती तो चीनी अधिकारी अभियोगी को सौंपने की माँग करते और उन्हें चीनी नियमों के अनुसार दंड दिया जाता था। चीनियों का कहना था, कि चीन के अधिकार क्षेत्र में परंपरा से मान्य चीनी कानूनों के अनुसार ही न्याय होना चाहिये जबकि विदेशियों की दृष्टि में यह बर्बर प्रणाली थी।

कैण्टन में विदेशियों पर कई तरह के सामाजिक प्रतिबंध भी लगे हुए थे। विदेशियों की फैक्ट्रियाँ या गोदाम नगर की चहारदीवारी के बाहर थी और उन्हें अपनी फैक्ट्रियों की संकुचित सीमा में तो घूमने-फिरने की स्वतंत्रता थी, परंतु नगर में प्रवेश वर्जित था। नदी में उन्हें नौका-विहार की अनुमति नहीं थी। वे चीनी नौकर भी नहीं रख सकते थे और कोई विदेशी स्री कैण्टन नहीं आ सकती थी।

जब विदेशी व्यापारी इस संबंध में चीनी अधिकारियों से शिकायत करते तो उन्हें उत्तर मिलता, जिस देश के रीति-रिवाज तुम्हें पसंद नहीं हैं, उस देश में तुम बार-बार क्यों आते हो हम तो तुम्हें निमंत्रण नहीं देते। हमारे आतिथ्य का सम्मान करो, परंतु उसे सुधारने और उसका नियमन करने की कोशिश मत करो।

लार्ड नेपियर का आगमन

1833 ई. के पूर्व कैण्टन स्थित अंग्रेज व्यापारी एख व्यापारिक अधिकारी के नियंत्रण में रहते थे, जो वहाँ कंपनी का मुख्य प्रतिनिधि होता था, किन्तु 1832 ई. में कंपनी का एकाधिकार समाप्त होने पर कैण्टन में ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधित्व एख कमीशन प्राप्त अधिकारी करने लगा। ब्रिटिश हितों के प्रतिनिधि के दर्जे में यह परिवर्तन आगे चलकर आँग्ल-चीनी विवादों का मूल कारण बना, जिसका अंत प्रथम अफीम युद्ध में हुआ।

अफीम युद्ध

ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश – मंत्री लार्ड पामर्स्टन ने चीन स्थित अँग्रेज व्यापारियों की कठिनाइयों को दूर करने की दृष्टि से चीन के लिये तीन व्यापार अधीक्षकों की नियुक्ति की और लार्ड नेपियर को उनका प्रधान नियुक्त किया। लार्ड नेपियर को यह आदेश दिया गया कि वह पत्र द्वारा चीनी गवर्नर को अपने आगमन की सूचना देगा तथा चीनियों को नाराज करने का कोई कार्य नहीं करेगा।

कैण्टन पहुँचते ही नेपियर ने सीधे गवर्नर से समान स्तर पर बातचीत प्रारंभ की तथा चीनी सरकार के समक्ष अपने को ब्रिटेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित किया, परंतु चीनी गवर्नर के इस पत्र को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि नेपियर का आचरण चीनी नियमों के सर्वथा प्रतिकूल था।

लार्ड नेपियर यह दृढ-संकल्प लेकर चीना आया था, कि चीन में ब्रिटिश व्यापार के हितों की दृढतापूर्वक रक्षा करेगा। जब नेपियर ने पुनः जिद की तो गवर्नर ने अंग्रेजों का सारा व्यापार बंद कर दिया। इस पर नेपियर ने अपने दो जहाजों को चीनी किलों पर गोलाबारी करने का आदेश दे दिया। नेपियर की इस कार्यवाही से अन्य व्यापारी भी संकट में फँस गये और उन्होंने पुरानी स्थिति स्वीकार करने का निश्चय कर लिया, चाहे वह कितनी ही असंतोषजनक क्यों न हो।

अतः इन व्यापारियों ने बीच-बचाव करके झगङा निपटाया। इसी बीच नेपियर बीमार पङ गया और 1834 ई. में मकाओ में उसकी मृत्यु हो गयी। नेपियर को अपने मिशन में कोई सफलता नहीं मिली, उल्टे उसने चीनी सरकार को उत्तेजित और अप्रसन्न कर दिया।

नेपियर के बाद

नेपियर की मृत्यु के बाद उसके स्थान पर एल.बी.डेविस और उसके बाद जार्ज बी.रॉबिन्सन की नियुक्तियाँ हुई। ये दोनों पदाधिकारी नरम स्वभाव के थे, अतः उन्होंने भङकाने वाली कोई कार्यवाही नहीं की। 1836 ई. में चार्ल्स ईलियट को इस पद पर नियुक्त किया गाय। 1838 ई. में एक छोटा ब्रिटिश जहाजी बेङा दक्षिणी चीन के तट पर तैनात किया गया, ताकि आवश्यकता पङने पर वह अंग्रेज व्यापारियों की मदद कर सके।

अफीम के तस्कर व्यापार में वृद्धि

1800 ई. में चीनी सरकार ने अफीम के व्यापार को पूर्णतया निषिद्ध कर दिया, फिर भी स्थानीय चीनी अधिकारियों की मिलीभगत से ब्रिटिश व्यापारी चोरी से चीन अफीम पहुँचाते रहे। इस तस्कर व्यापार से चीन के स्थानीय अधिकारी भी लाभ उठाते रहे। चीन की जो नौकाएँ अफीम के तस्कर व्यापार को रोकने हेतु तैनात की जाती थी, वे भी अफीम के तस्कर व्यापार में सहायता देने लग जाती थी।

अफीम के इस तस्कर ने चीन में एक वित्तीय संकट उत्पन्न कर दिया। चीन के व्यापार संतुलन में गङबङी पैदा हो गयी तथा चाँदी देश से बाहर जाने लगी। चीन की जनता अपने दैनिक व्यवहार में ताँबे के सिक्कों का प्रयोग करती थी, लेकिन कर-अदायगी के लिये चाँदी का सिक्का ही देना पङता था। अफीम व्यापार के कारण चाँदी का सिक्का महँगा हो गया और उसके लिये ताँबे के अधिक सिक्के देने पङे।

चीन सरकार के सामने अब समस्या यह उत्पन्न हो गयी कि या तो कर कम करे या जनता के विरोध का सामना करे। अंत में चीन की सरकार ने अफीम के व्यापार को पूर्णतः समाप्त करने का निश्चय किया और इस कार्य के लिये 1839 ई. में लिन-त्जे-शू नामक एक योग्य एवं दृढप्रतिज्ञ अधिकारी को कमिश्नर बनाकर कैण्टन भेजा। उसने कैण्टन पहुँचते ही विदेशी व्यापारियों को आदेश दिया कि उनके पास जितनी भी अफीम है, वे उसे तुरंत सरकार को सौंप दें, अन्यथा वह सभी व्यापारियों को बंदी बना लेगा।

बचाव का कोई अन्य उपाय न देखकर ब्रिटिश अधिकारी चार्ल्स ईलियट ने अंग्रेज व्यापारियों को सलाह दी, कि वे अफीम की बीस हजार पेटियाँ चीनी अधिकारियों के हवाले कर दें। अँग्रेज व्यापारियों ने ऐसा ही किया। अफीम की उक्त बीस हजार पेटियाँ नमक और चूना मिलाकर नदी में बहा दी गई। ईलियट ने इसका विरोध करते हुये घोषणा की कि साम्राज्ञी विक्टोरिया चीन सरकार से इस हानि का बदला अवश्य लेगी।

उसके बाद कमिश्नर लिन ने अँग्रेज व्यापारियों से प्रतिज्ञा करानी चाही कि वे कभी भी भविष्य में अफीम का तस्कर व्यापार नहीं करेंगे। उसने धमकी दी कि यदि उन्होंने आज्ञा का उल्लंघन किया तो चीनी विधान के अनुसार उन्हें प्राणदंड तक दिया जा सकता है। उसने अफीम व्यापार के विरुद्ध महारानी विक्टोरिया को भी एक पत्र लिखा। लिन की कठोर कार्यवाही से अँग्रेज व्यापारियों में तीव्र उत्तेजना फैल गई।

online reference :

Wikipedia : अफीम युद्ध

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